Sunday, April 20, 2008

नारी तेरे रूप अनेक या एक?

आज का टेलीवीज़न चैनल महिलाओं को खलनायिका बनाने पर उतारू है,जितने भी मनोरंजन चैनल हैं, वो महिलाओं को केन्द्र में रखकर अपने कार्यक्रम बना रहे हैं,शादी,बहू,बहूरानियाँ,दुल्हन, मायका,ससुराल, बिटिया,सास..... सबकी सांसत है, चाल चौकडी चलते चलते ये थकतीं भी नहीं हैं,ऐसा लगता है जैसे मानो अपने देश की माँ ,बेटी ,सास बहू,जेठ जेठानी, सब मक्कारी में लिप्त हैं , एक दूसरे को नीचा दिखाना इनकी फ़ितरत है...

अनैतिकसम्बन्ध,ईर्श्या,बदचलनी,षडयंत्र....आज की कहानियों का आधार हैं, धारावाहिकों को देख कर तो लगता है कि सकारात्मक विचारों की महिला अपने देश में हैं ही नहीं,और मर्द... बेचारा नपुंसक ! ,किसी काम का नहीं. बस उसका काम पैसा कमाना है और औरतें चाल चलचल कर सम्पत्ती हड़पने,या किसी दूसरी औरत को नीचा दिखाने में ही लगी पड़ी हैं, और आंकड़े कहते हैं कि औरतें ही है जो ज़्यादा टेलीवीज़न देखतीं हैं,और औरतें देखना भी यही सब ज़्यादा चाहती हैं,और उनको सबसे ज़्यादा सास-बहु,देवर देवरानी,जेठ जेठानी के रिश्ते की खटास वाला पक्ष ही सबसे अच्छा लगता है.....

मनोरंजन चैनलों से जो कार्यक्रम खास तौर से परोसे जा रहे है उनके नाम तो देखिये.. हमारी बेटियों का विवाह,.राजा की आएगी बारात,मेरा ससुराल,मायका,घर की बेटी लक्ष्मियाँ ,बाबुल का अंगना,डोली सजा के रखना,नागिन,सात फेरे,सुजाता,तीन बहुरानियाँ, आदि...... और भी बहुतेरे नाम हैं, इन सारे धारावाहिक में औरतें एक से एक नई डिज़ाइन के कपड़े,गहने,में सजी धजी गुनाह पर गुनाह किये जा रही है और रोती रहती हैं एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगी रहतीं हैं,बदला लेती औरत,प्यार करती औरत....क्या औरत के नाम पर यही सब अधकचरी चीज़ें रह गईं हैं दिखाने को? तो क्या हमें मान लेना चाहिये कि जो ये मनोरंजन चैनल हमारे सामने जो परोस रहे हैं...... यही हमारा समाज है?



पुरुष, बेचारा बेचारा सा दिखाता है, औरतों के इस फ़रेब के सामने असहाय बना कितना लाचार दिखता है, क्या ऐसा है?क्या कुछ ऐसा हो गया है कि पुरुष प्रधान समाज में औरतें कुछ इतना बढ़ गईं है कि पुरुष कमज़ोर होता दिख रहा है,या औरत,औरत के खिलाफ़ किसी भी साजिश को देखना सबसे ज़्यादा पसंद करतीं हैं?

एक मित्र कह रहे थे कि जब बहू अपनी सास को अपनी किसी चाल से मात दे देती है तो घर में बैठी बहू अपनी सास की तरफ़ विजयी मुस्कान से देखती है,जो बहू घर में बोल नहीं सकती उनकी आवाज़ ये चैनल होते हैं...क्या इतनी गहराई से देखा जा रहा है ये सब कुछ?

और दूसरी तरफ़ हिन्दी फ़िल्म इन्डस्ट्री का हाल ये है कि औरतो (हिरोईन) का काम एक दम स्टीरियो टाइप्ड ही रहता है...हीरो वो सब कुछ करता है जो एक आम इंसान नहीं कर सकता...

तो क्या मान लेना चाहिये कि जिसकी लाठी उसकी भैंस........टेलिवीज़न औरतों का माध्यम है और फ़िल्म पुरुषों का? आखिर कौन है जो इन्हे सही तस्वीर दिखाने से रोक रहा है?

जनता? टीआरपी?

18 comments:

अर्चना राजहंस मधुकर said...

बिल्कुल सही कह रहे हैं आप....इन चैनल्स के सीरियल्स देखिये तो तो सचमुच यही लगता है कि पुरुषों के पास अक्ल नहीं होती सिवाय कमाने के.....बारिकी का अध्ययन है..बढ़िया है.....

Alpana Verma said...

sahi baat kahi hai..
actually ye public hai jo TRP badha kar asie programmes ko badhava de rahi hai--
sach mein chintan ka vishay hai--

कंचन सिंह चौहान said...

sahi kaha aapne... aur maja ye ki sab burai kar rahe hai.n aur sab dekh rahe hai.n.... ek jaisi sari kathae.n

Anonymous said...

kissi bhi serial ko daekh lae ek hii kahani haen aur baar baar janam aur punarm janam haen . aurto ko sajey rehaney aur makaari karney kae aalwa kuch nahin karey daekha jaa sakta haen aur purush ko kuch bhi naa kartey hee dikhaya jaata

par yae sab sirf paesaa kamaney kae saadhn haen

lakin aaj do khaebr jo aaye ek jismae ek ladki naey apne parivaar kae 7 sadsyo kii hatyaa ki aur dusri jismae goud liyae ladkae nae apen ma pita aur patni ki hatyaa ki to lagaa ki shaayad serial mae kuch kam hee dikhyaa jaata haen

Udan Tashtari said...

सही कह रहे हैं!!!

Anita kumar said...

मुझे खुशी है कि आप ने एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात की तरफ़ ध्यान खीचां है। हमने तो सीरियल देखने कब के बंद कर दिए। काश कुछ सिरियल ऐसे बनते जो समाज के दूसरे वर्गों का भी ध्यान रखते।

सुजाता said...

अनिता जी की ही तरह कहूंगी कि आपने एक बहुत महत्वपूर्ण बात उठाई है ।टी वी देखना हमारा भी बन्द है ।पर जब भी आंखों के आगे से कुछ गुज़र जाए तो यही हाल है जो आपने सुनाया ।
दर असल टी वी सीरियल में जो ट्रेंड एकता कपूर ने चलाया है वो पॉपुलर होता जा रहा है । टी वी सीरियल गलत सलत प्रचार कर रहे हैं ,स्त्रियों को आधुनिक सोच की ओर ले जाने की बजाय कई दर्जे नीचे गिरा हुआ दिखा रहे हैं ।कोई आश्चर्य नही कि बहुत से लोग इन बातों से प्रभावित हो जाते हों क्योंकि शिक्षा की जो हालत हमारे देश मे है वह सोचने समझने काबिल कहाँ बना रही है ?यहाँ शिक्षा सशक्तीकरण के लिए नही सिर्फ रोज़गार के लिए है ऐसे मे कुरुचिपूर्ण सीरियल भी चल निकलें तो क्या हैरत है ।

अफसोस कि हमारे जन माध्यम जन के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी भूल गये है ।

Unknown said...

देख तो दिल के जाँ से उठता है
ये धुआं सा कहाँ से उठता है

ajai said...

ग़लत दृश्य पर सेंसर बोर्ड कैंची चलाता है , लेकिन ग़लत संदेश पर कैंची कौन चलायेगा ????

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

विमल जी बात तो एकदम सही है, ये तो सिर्फ टीआरपी बढाने के फार्मूले हैं, टीवी की दुनिया में एकदम भेड़चाल है, जो सीरियल चल निकलता है सब उसी के पीछे चल पड़ते हैं। कभी एक्स्ट्रा मेरिटल रिलेशनशिप ही टीवी सीरियल्स का एकमात्र पसंदीदा विषय़ थे और अब सास-बहू, मायका और ससुलराल

अनिल रघुराज said...

विमल जी, बहुत गहरी बात उठाई है आपने।

Ila's world, in and out said...

क्या कोई भी औरत इतनी बुरी और प्रपंची हो सकती है जितना उसे इन सीरियलों में दिखाया जाता है. मेरा तो मानना है कि हर औरत में नायिका और खलनायिका के गुण मौजूद होते हैं,सिर्फ़ इन गुणों में अनुपात का फ़र्क होता है.

mamta said...

आपने बिल्कुल सही कहा है।

sanjay patel said...

नहीं ये चेहरा नहीं है हमारे समाज का . लेकिन ये भी बता दूँ कि इन धारावाहिकों से हमारे समाज में बहुत बड़े ख़तरे उभर रहे हैं....क्या आप यक़ीन करेंगे कि एक परिवार में बूढ़ी माँ की तलाक़शुदा बेटी इन धारावाहिकों की अगवानी में खाना नहीं बनाती. पिता शाम को रेडियो नही सुन पाते या टीवी पर समाचार नहीं सुन पाते. इन धारावाहिकों से हमारे घरों के बच्चियों का बोल-व्यवहार और पहनावा बदलता जा रहा है.मेरा परिवार तो ये धारावाहिक नहीं देखता (टीवी चैनल ही नहीं है)लेकिन जो परिवार देखते हैं उनमें जाना-आना तो लगा ही रहता है. कई बार मैं ऐसे मित्रों और परिजनों के घर जाकर सिर्फ़ इसलिये लौट आया हूँ क्योंकि वे मुझमें रूचि लेने के स्थान पर धारावाहिक में ज़्यादा रूचि ले रहे थे. वक़्त रहते हम न चेते तो विमल भाई ये सोशल नॉनसेंस हमार प्यारे भारतीय समाज को लील जाएगा....और शक्ति-स्वरूपा हमारी माँ-बहनों को जीवन तार तार कर देगा.

अखिल said...

vimalji
baat zordaar hei, isliye bhi ki aap apne hi thiye ke ched dekh paa rahe hein. Asal mein yeh aur kuch nahin khud ko aham braham manene ki mardani soch ka natija jisne ekta-anekta sabki smriti ko kalushit kar diya hei. ham kitna hi liblib kar lein bhed ling ka nahin soch ka hei jisne adam aur havva donon ko is kadar jakad rakha hei ki us bandhan se mukti ka natak bhi dhang se nahin kar paa rahei hein hum.
Purush ki nirihta और नारी पात्र की कुटिलता ka yeh adamber ही तो इस चलिया व्यवस्था की संजीवनी है न
बहरहाल आपका पन्ना आज पहली बार पलता
भाल हो अजित के शब्दों के सफर का जो आप से संवाद हो रहा है . बस यूं ही कुछ दिलचस्प गीत सुनवाते रहे. हिन्दी टाइपिंग में हाथ तंग है क्षमा करें
अखिल मित्तल

अखिल said...

विमलजी
आपसे पहली मुलाक़ात बहुत दी;चस्प लग रही है . हम पेशा हैं हम . चेंनल चित्रण की चर्चा दिलचस्प है.
इस प्रसंग में हमारी पत्नी का कहना है की इससे सिद्ध होता है की नारी ही नारी की शत्रु है. देखा हम पुरुषों का कमल नारी को नारी से भिडा दिया और निरीह बने देख रहे हैं तमाशा.
अच्छा लिखतें हैं आप
आनंद आया
कुछ और नया सुनावाएं
एक बार फिर भला हो शब्दों के सफर और चय्चिन्तन का जो आप से भेंट हो गई

Batangad said...

मुझे इसकी एक वजह और लगती है, टेलीविजन घर में होता है। सिनेमा स्क्रीन बाहर।

सागर नाहर said...

विमलजी
मैने भी और मित्रों कीतरह टीवी देखना बंद सा कर दिया था परन्तु ऐसा नहीं कि सारे धारावाहिक बुरे बन रहे हैं या नारी को बुरा दिखा रहे हैं।
स्टार टीवी पर ही "एक चाबी है पड़ौस में: जैसा बढ़िया सीरीयल आता है, कोई लड़ाई नहीं कोई झगड़ा नहीं बस आपसी नोंक झॊंक होती है पात्रों में और शाम को फिर एक दूसरे की गलबहियाँ करते दिखते हैं।
इमेजिन पर भी कम से कम चार पाँच बढ़िया धारावाहिक आ रहे हैं, सच कहूं तो इमेजिन ने एक बार फिर से दूरदर्शन के जमाने की याद दिलवा दी।

आज की पीढ़ी के अभिनेताओं को हिन्दी बारहखड़ी को समझना और याद रखना बहुत जरुरी है.|

  पिछले दिनों  नई  उम्र के बच्चों के साथ  Ambrosia theatre group की ऐक्टिंग की पाठशाला में  ये समझ में आया कि आज की पीढ़ी के साथ भाषाई तौर प...