Saturday, April 11, 2009

ठुमरी की सालगिरह....

पिछले दिनों यूनुस जी ने रेडियोवाणी की दूसरी साल गिरह मनाई थी,आज ११ अप्रैल को ठुमरी भी दो साल की हो गई, ठुमरी पर जो मेरी पहली पोस्ट थी उसे आज फिर से पोस्ट कर रहा हूँ।


बचपन की सुहानी यादो की खुमारी अभी भी टूटी नही है..

जवानी की सतरगी छाव बलिया,आज़मगढ़, इलाहाबाद, और दिल्ली मे..

फिलहाल १२ साल से मुम्बई मे..

निजीचैनल के साथ रोजी-रोटी का नाता..

असल में जो पोस्ट पहले पहल ठुमरी के लिये लिखी गई थी वो दो साल से ठुमरी के एडिट वाले भाग में लम्बे समय से पड़ी थी,शायद इस पोस्ट की क़िस्मत में आज के दिन ही छपना लिखा था, वो पोस्ट मूल रूप से आपके सामने है।

अरे, क्या नहीं दिखा, भाई?... और क्यों नहीं दिखा? हम घास छील रहे हैं? कि आप गलत महफिल में चले आये हैं, बात क्या है? जो भी है अच्छा नहीं है...

"ठुमरी" नाम अपने अज़दक का दिया हुआ है, पहली पोस्ट छपने के बाद भी ठुमरी की दिशा तय नहीं हो पायी थी, बहुत सुविधाजनक तरीके़ से पहली ही पोस्ट में एक कुत्ते की तस्वीर लगा कर किसी तरह पोस्ट पूरी की गई,क्यौकि कुछ भी लिखने की अपनी स्थिति दूर दूर तक थी ही नहीं, खैर अज़दक महोदय को लगता था कि मैं लिख सकता हूँ? और मेरी स्थिति ऐसी कि ब्लॉग की दुनियाँ से अनजान,अन्य चिट्ठे पर जा जा कर टिप्पणी करता रहता और कुछ दिनों बाद मैने देखा कि टिप्पणी करते करते कुछ कुछ लिखने लग गया हूँ,और धीरे धीरे ये तय भी होता गया कि ठुमरी को अपनी पसन्दीदा संगीत रचनाओं और साथ साथ अपने मन में उमड़ते गुबारों का मंच बनाना है ,कितना सफल हुआ ये तो पता नहीं, पर खुद को कुछ कुछ जानने में अपनी ठुमरी ने बहुत मदद की है , साथ साथ उन्हें भी मैं धन्यवाद देना चाहूंगा जिन्होंने हिन्दी में लिखने वाले आसान औजार बनाए,जिसकी वजह से मेरे जैसे लोग भी हिन्दी में टूटा फूटा ही सही, लिखने लगे ,उन्हें भी मेरा सलाम पहुंचे जो गाहे बगाहे ठुमरी पर आकर अपनी टिप्पणियो से मेरा मनोबल हमेशा बढ़ाते रहे हैं। और उनको भी मेरा सलाम जिन्होंने ठुमरी को अपने चिट्ठे पर जगह दी है।

और इसी बात पर मुन्नी बेग़म की गायी हुई कुछ फड़कती हुई ग़ज़लो को सुनते हैं,जिन्हें किसी भी महफ़िल में आप भी गायें तो महफ़िल लूट सकते हैं।

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Saturday, April 4, 2009

गुलज़ार साहब वाकई कलम और आवाज़ के जादूगर हैं......


गुलज़ार साहब वाकई कलम और आवाज़ के जादूगर हैं,अपनी रचनाओ में जब शब्दों को रंग की तरह भरते चले जाते है तो वो रचना बहुत कुछ अपने अनुभव का कोलाज सा लगने लगती है, कभी कभी तो कुछ शब्दों का इस्तेमाल करके आपको चौंका देते है,अपनी गीतों में कुछ ऐसा संसार रचते हैं कि सुनने वाले को यहीं लगेगा कि भई ये तो गुलज़ार साहब ही लिख सकते हैं,बहुत से गाने तो आज भी मन के आंगन में गूजते ही रहते हैं, खामोशी,सीमा, मौसम आंधी और जब ओमकारा का वो गीत "नमक इश्क़ का या इक कौड़ी चाँद की...या "जब कजरार कजरारे" हो या उनकी लिखी अनगिनत रचनाएं आपके अंदर एक अलग ही महक पैदा करते हैं,वैसे जब पहली बार मैने मिर्ज़ा ग़ालिब सीरियल के मुखड़े में गुलज़ार साहब की रोबीली दमदार आवाज़ सुनी तो उनकी कलम के साथ -साथ उनकी आवाज़ के भी हम कायल हो गये थे।

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गुलज़ार साहब के बारे में सुना है कि वो चलताउ काम करना पसन्द नहीं करते,अपनी रचनाओं को लिखने में उनसे आप ये नहीं कह सकते कि दो दिन में आप लिख कर दे दीजिये......मेरे मित्र राजेश सिंह हैं जब उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म "बेताबी" के लिये विशाल भारद्वाज को बतौर संगीतकार लिया था पर गाने को कम समय में लिखना था लिहाज़ा गुलज़ार साहब ने इतनी जल्दी लिखने से मना कर दिया था, वैसे गुलज़ार साहब का लिखा संगीतबद्ध करना भी आसान नहीं होता ... मेरे मित्र हैं मिश्राजी उन्होंने एक घटना याद दिलाई कि "दिल ढूढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन" ये गीत गुलज़र साहब ने फ़िल्म "आंधी" के लिये लिखा था पर आरडी दादा की धुन में न आरडीदादा को मज़ा आ रहा था ना गुलज़ार साहब को,लिहाज़ा उस गीत को उन्होंने आंधी में इस्तेमाल ही नहीं किया बाद में इस गीत को गुलज़ार साहब ने फ़िल्म "मौसम" में इस्तेमाल किया और तब संगीबद्ध किया मदन मोहन साहब,बताने की ज़रुरत नहीं कि ये गीत भी कितना मोहक था जो आज भी आपको ताज़ा करने का दम रखता है।


सुना तो ये भी है कि स्लमडॉग का जै हो जिसपर गुलज़ार साहब को ऑस्कर से नवाज़ा गया है दरअसल इस गीत को गुलज़ार साहब ने सुभाष घई कि फ़िल्म "युवराज" के लिये लिखा था पर उस फ़िल्म ये गाना इस्तेमाल हो नहीं पाया, और रहमान ने गुलज़ार से पूछकर ये गाना स्लमडॉग में चिपका क्या दिया चारों तरफ़ जै हो का शोर ही मच गया पर ये गाना मुझे पसन्द नहीं आया।

मेरे फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े पुराने मित्र है आर एल मिश्रा और समीर चौधरी ( सलिल चौधरी के छोटे भाई) जिनसे पुरानी फ़िल्मों से जुड़ी बहुत सी घटनाएं सुनकर आनन्द आता है, जब कभी पुरानी बात छिड़ जाती है तो बस हम चुपचाप बैठकर उन्हें सुना करते है ऐसे ही एक दिन पता चला कि गुलज़ार साहब को जब पहला गाना लिखने को मिला था तब सचिन देव बर्मन दादा ने उनको बुलाया और समझाया था कि "चांदनी रात है, प्रेमिका को अपने प्रियतम से मिलना तो है पर ऐसी चांदनी है कि लोग उसे पहचान जाएंगे",गुलज़ार साहब ने लिखा "मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे,छुप जाउंगी ही रात ही में ,मोहे पी का संग दई दे", ये गाना तो खूब लोकप्रिय हुआ था।

चलिये तो पहले हम गुलज़ार साहब के लिखे पहले गीत सुनते हैं।
Bandini (1962) = M...


और लगे हाथ गुलज़ार साहब का लिखा "चड्डी पहन के फूल खिला है"जो जंगल बुक का शीर्षक गीत था सुनते हैं वैसे मासूम फ़िल्म का "लकड़ी की काठी" भी बच्चों में ही नहीं सभी की पसन्द बन गया ।


दरअसल मैं तो सिर्फ़ गुलज़ार साहब की आवाज़ में इन रचनाओं को सुनावाना चाह रहा था जिसे नीचे क्लिक करके आप सुन सकते हैं..पर लिखने बैठा तोऔर भी बहुत सी चीज़ें जुड़ती चली गई और कुछ इस तरह की पोस्ट बन गई, उम्मीद है आनन्द आया होगा। तो अब आप गुलज़ार साहब की आवाज़ में उनकी कुछ रचनाएं सुनिये,पढ़ने का अंदाज़ इतना प्रभावशाली है कि उनको सुनते हुए आप खुद ब खुद बहते चले जाते हैं।



आशा है आपको ये पोस्ट पसन्द आई होगी।

आज की पीढ़ी के अभिनेताओं को हिन्दी बारहखड़ी को समझना और याद रखना बहुत जरुरी है.|

  पिछले दिनों  नई  उम्र के बच्चों के साथ  Ambrosia theatre group की ऐक्टिंग की पाठशाला में  ये समझ में आया कि आज की पीढ़ी के साथ भाषाई तौर प...