Tuesday, August 31, 2010

आ अब लौट चलें…गीतकार शैलेन्द्र को याद करते हुए

शैलेन्द्र
अब हालत ये हो गई है कि टीवी और रेडियो या अखबारों से किसी महान व्यक्ति के जन्म और पून्य तिथि के बारे में पता चलता है उसी तरह आज सुबह आफ़िस जाते समय आकाशवाणी पर सूचना मिली कि आज के दिन यानि 30 अगस्त को गीतकार शैलेन्द्र का जन्म दिन है| हमने बचपन में उनके लिखे गीत बहुत बार स्कूल के मंच पर गाये भी थे।
"तू ज़िन्दा है तू ज़िन्दगी की जीत पर यकींन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर"

इसी रचना की अगली पंक्ति "ये गम के और चार दिन सितम के और चार दिन ये दिन भी जायेंगे गुज़र,गुज़र गये हज़ार दिन" आशावादी रुझान के गीतकार शैलेन्द्र ने जीवन से भरपूर अनेकों ऐसे गीत लिखे जो आज भी हमें प्रेरणा देते हैं| उनके लिखे बेहतरीन गीतों की फ़ेहरिश्त सी है इसमें किसे आप बेहतरीन मानें किसे नहीं ये समझ में आता नहीं |
गुलज़ार उनके बारे में लिखते हैं "बिना शक शंकर शैलेन्द्र को हिन्दी सिनेमा का आज तक का सबसे बड़ा लिरिसिस्ट कहा जा सकता है. उनके गीतों को खुरच कर देखें और आपको सतह के नीचे दबे नए अर्थ प्राप्त होंगे. उनके एक ही गीत में न जाने कितने गहरे अर्थ छिपे होते थे".
शैलेन्द्र बारे आज के मशहूर गीतकार जावेद अख्तर साहब का कहना है "जीनियस थे शैलेन्द्र. दरअसल, शैलेन्द्र का रिश्ता बनता है कबीर और मीरा से. बड़ी बात सादगी से कह देने का जो गुण शैलेन्द्र में था, वो किसी में नहीं था. यहाँ तक कि ‘गम दिए मुस्तकिल’ से लेकर ‘आज मैं ऊपर आसमाँ नीचे’ जैसे गाने लिखने वाले मज़रूह साहब ने एक बार खुद मुझसे कहा था कि "सच पूछो तो सही मायनों में गीतकार शैलेन्द्र ही हैं".शैलेन्द्र का रिश्ता उत्तर भारत के लोक गीतों से था. लोक गीतों में जो सादगी और गहराई होती है वो शैलेन्द्र के गीतों में थी. ‘तूने तो सबको राह दिखाई, तू अपनी मंजिल क्यों भूला, औरों की उलझन सुलझा के राजा क्यों कच्चे धागों में झूला. क्यों नाचे सपेरा'अगर क्यों नाचे सपेरा जैसी लाइन मैं लिख पाऊँ तो इत्मीनान से जीऊँगा."
इलाहाबाद विश्विध्यालय के अपने 80 के दौर में जब हम "दस्ता" के लिये नुक्कड़ नाटक किया करते थे, तब हम मिलकर शैलेन्द्र का लिखा एक गीत गाया करते थे उसे आज मैं याद करने की कोशिश कर रहा था पर उसकी कुछ ही पंक्तियां याद कर पाया जिसे मैं यहां आज आधा अधूरा ही लिख रहा हूं पर मुझे उम्मीद है अपने मित्र पंकज श्रीवास्तव से जो उस समय हमारे "दस्ता" की मुख्य आवाज़ हुआ करते थे, उन्हें ज़रूर याद होगा तो बाद में इस अधूरी रचना को सम्पूणता के साथ पेश किया जाएगा |


झूठे सपनों के छल से निकल चलती सड़को पर आ
अपनो से न रह दूर दूर आ कदम से कदम मिला 
हम सब की मुश्किलें एक सी है भूख, रोग, बेकारी, 
फिर सोच कि सबकुछ होते हुए, हम क्यौं बन चले भिखारी 
क्यौं बांझ हो चली धरती, अम्बर क्यौं सूख चला, 
अपनों से न रह यूं दूर दूर आ कदम से कदम मिला
कुछ पंक्तियां इसकी याद नहीं आ रहीं…पर इसकी आखिरी पंक्तियां जो इस समय याद करने की कोशिश कर रहा हूं वो कुछ इस तरह से है "लूटी जिसने बच्चों की हँसी उस भूत का भूत भगा"
गीतकार के रुप में उन्होंने अपना पहला गीत वर्ष 1949 में प्रदर्शित राजकपूर की फिल्म "बरसात" के लिए 'बरसात में तुमसे मिले हम सजन 'लिखा था। इसे संयोग हीं कहा जाए कि फिल्म "बरसात" से हीं बतौर संगीतकार शंकर जयकिशन ने अपने कैरियर की शुरुआत की थी।
13 दिसंबर 1966 को अस्पताल जाने के क्रम में उन्होंने राजकपूर को आर के काटेज मे मिलने के लिए बुलाया जहां उन्होंने राजकपूर से उनकी फिल्म मेरा नाम जोकर के गीत "जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां" को पूरा करने का वादा किया। लेकिन वह वादा अधूरा रहा और अगले ही दिन 14 दिसंबर 1966 को उनकी मृत्यु हो गई। इसे महज एक संयोग हीं कहा जाएगा कि उसी दिन राजकपूर का जन्मदिन भी था। सुनते हैं कि उनके पुत्र शैली शैलेन्द्र ने उनकी लिखी अधूरी रचना "जीना यहां मरना यहां" पूरे गाने की शक्ल दीं |

पसन्द तो उनकी बहुत सी रचनाएं है पर कुछ पसन्दीदा गीतों को देखा और सुना जाय तो आनन्द आ जाय.....शैलेन्द्र जी को हमारी श्रद्धांजलि।


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