क्या कवि सम्मेलनों का दौर ख़त्म होता जा रहा है, एक समय था जब छोटे छोटे शहरों में कवि सम्मेलनों और मुशायरों की वजह से शहर में चहल पहल खूब हुआ करता था, वाह वाह और मुक़र्रर का शोर आज भी कानों में ज्यों का त्यों अपनी जगह बनाए हुए है...... पर आज उस समा को हम सिर्फ महसूस ही कर सकते हैं |
लगभग दसियों साल से सब कुछ समाप्त होता दिखाई दे रहा है तो आज उन्हीं पुराने दिनों कों याद करते हुए कवि डा: कुमार विश्वास जी की रचना उन्हीं की आवाज़ में सुनिए और आनंद लीजिये, इस रचना को मित्र ज्योतिन ने उपलब्ध कराया है उनका शुक्रिया और भी इस तरह की रचनाएँ अगर मुझे मिलती है तो ठुमरी के माध्यम से आप तक ज़रूर पहुंचाया जाएगा इसकी गारंटी मैं लेता हूँ ...........नए साल में फिर कुछ इसी तरह मुलाक़ात होगी |
समीर भाई आप सुन नहीं पा रहे इसलिये नीचे वाले प्लेयर पर चटका लगा कर अब सुन सकते हैं ....वैसे मैं ऊपर वाले प्लेयर को सुन पा रहा हूँ....
न शास्त्रीय टप्पा.. न बेमतलब का गोल-गप्पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्तो, है रंगमंच तैयार..
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