ज़िंदगी में पुराने का जाना और नए का आना रिले रेस की तरह नहीं, समुद्र की लहरों की तरह चलता है। लेकिन हम पुरानी लहर के भीतर बन रही नई लहर को नहीं देख पाते और खामखां परेशान हो जाते हैं।
जिंदगी इतनी छोटी है कि इसे दुश्मनी या गलत कामों में जाया करने का मुझे कोई तुक नहीं नजर आता। ||अर्थकाम।।
पाक़िस्तान के आरिफ़ लोहार एक शानदार लोक गायक है, लाज़मी है उनको सबने सुना हो, और आज ठुमरी पर उनकी मंडली द्वारा गाया ये लोकगीत जिसमें थोड़ी पश्चिम की झलक है फिर भी कर्णप्रिय तो है, आज सुनने का मूड ज़्यादा है वैसे भी मेरी लिखने की आदत नहीं तो कोक स्टुडियो के इस कार्यक्रम की झलक यहां देखते हैं और सुनते है आरिफ़ लोहार की जुगनी ।
आज बहुत दिनों बाद थोड़ी फ़ुरसत मिली तो सोचा कि ठुमरी पर काफ़ी दिनों से जो सन्नाटा पसरा था उसमें कुछ हरक़त लाई जाय,तो सोचा क्यौं न कोक स्टुडियो की कुछ शानदार वीडियो से आपका और अपना मनोरंजन किया जाय, तो हाज़िर हैं कुछ नायाब ग़ायकी और वीडियो के नमूने। सुना तो सबने है ठुमरी पर भी ज़माने पहले शफ़क़त साहब को सुनाया था और आज फिर से इन्हें सुने तो कोई हर्ज़ नहीं है क्यौंकि अच्छी गा़यक़ी को जितनी बार सुनें आनन्द कभी कम नहीं होता। तो सुनिये और देखिये।
मोरा संइया मोसे बोले ना
आंखों के सागर होंठों के सागर, इसे भी शफ़क़त जी ने आवाज़ दी है सुनिये और दावा है ये आवाज़ आपको मुत्तासिर कर ही देगी।
पिछली पोस्ट जो शिलेन्द्र जी पर थी उसमें एक रचना मैने अधूरी पोस्ट की थी और उस पोस्ट में मित्र पंकज श्रीवास्तव का ज़िक्र मैने किया था उनकी मदद से शैलेन्द्र की इस रचना को फिर जितना हम दोनों को याद था यहां पोस्ट कर रहे हैं |
झूठे सपनों के छल से निकल चलती सड़को पर आ
अपनो से न रह दूर दूर आ कदम से कदम मिला
हम सब की मुश्किलें एक सी है भूख, रोग, बेकारी,
फिर सोच कि सबकुछ होते हुए, हम क्यौं बन चले भिखारी
क्यौं बांझ हो चली धरती, अम्बर क्यौं सूख चला,
अपनों से न रह यूं दूर दूर आ कदम से कदम मिला
अब हालत ये हो गई है कि टीवी और रेडियो या अखबारों से किसी महान व्यक्ति के जन्म और पून्य तिथि के बारे में पता चलता है उसी तरह आज सुबह आफ़िस जाते समय आकाशवाणी पर सूचना मिली कि आज के दिन यानि 30 अगस्त को गीतकार शैलेन्द्र का जन्म दिन है| हमने बचपन में उनके लिखे गीत बहुत बार स्कूल के मंच पर गाये भी थे।
"तू ज़िन्दा है तू ज़िन्दगी की जीत पर यकींन कर अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ला ज़मीन पर"
इसी रचना की अगली पंक्ति "ये गम के और चार दिन सितम के और चार दिन ये दिन भी जायेंगे गुज़र,गुज़र गये हज़ार दिन" आशावादी रुझान के गीतकार शैलेन्द्र ने जीवन से भरपूर अनेकों ऐसे गीत लिखे जो आज भी हमें प्रेरणा देते हैं| उनके लिखे बेहतरीन गीतों की फ़ेहरिश्त सी है इसमें किसे आप बेहतरीन मानें किसे नहीं ये समझ में आता नहीं |
गुलज़ार उनके बारे में लिखते हैं "बिना शक शंकर शैलेन्द्र को हिन्दी सिनेमा का आज तक का सबसे बड़ा लिरिसिस्ट कहा जा सकता है. उनके गीतों को खुरच कर देखें और आपको सतह के नीचे दबे नए अर्थ प्राप्त होंगे. उनके एक ही गीत में न जाने कितने गहरे अर्थ छिपे होते थे".
शैलेन्द्र बारे आज के मशहूर गीतकार जावेद अख्तर साहब का कहना है "जीनियस थे शैलेन्द्र. दरअसल, शैलेन्द्र का रिश्ता बनता है कबीर और मीरा से. बड़ी बात सादगी से कह देने का जो गुण शैलेन्द्र में था, वो किसी में नहीं था. यहाँ तक कि ‘गम दिए मुस्तकिल’ से लेकर ‘आज मैं ऊपर आसमाँ नीचे’ जैसे गाने लिखने वाले मज़रूह साहब ने एक बार खुद मुझसे कहा था कि "सच पूछो तो सही मायनों में गीतकार शैलेन्द्र ही हैं".शैलेन्द्र का रिश्ता उत्तर भारत के लोक गीतों से था. लोक गीतों में जो सादगी और गहराई होती है वो शैलेन्द्र के गीतों में थी. ‘तूने तो सबको राह दिखाई, तू अपनी मंजिल क्यों भूला, औरों की उलझन सुलझा के राजा क्यों कच्चे धागों में झूला. क्यों नाचे सपेरा'अगर क्यों नाचे सपेरा जैसी लाइन मैं लिख पाऊँ तो इत्मीनान से जीऊँगा."
इलाहाबाद विश्विध्यालय के अपने 80 के दौर में जब हम "दस्ता" के लिये नुक्कड़ नाटक किया करते थे, तब हम मिलकर शैलेन्द्र का लिखा एक गीत गाया करते थे उसे आज मैं याद करने की कोशिश कर रहा था पर उसकी कुछ ही पंक्तियां याद कर पाया जिसे मैं यहां आज आधा अधूरा ही लिख रहा हूं पर मुझे उम्मीद है अपने मित्र पंकज श्रीवास्तव से जो उस समय हमारे "दस्ता" की मुख्य आवाज़ हुआ करते थे, उन्हें ज़रूर याद होगा तो बाद में इस अधूरी रचना को सम्पूणता के साथ पेश किया जाएगा |
झूठे सपनों के छल से निकल चलती सड़को पर आ
अपनो से न रह दूर दूर आ कदम से कदम मिला
हम सब की मुश्किलें एक सी है भूख, रोग, बेकारी,
फिर सोच कि सबकुछ होते हुए, हम क्यौं बन चले भिखारी
क्यौं बांझ हो चली धरती, अम्बर क्यौं सूख चला,
अपनों से न रह यूं दूर दूर आ कदम से कदम मिला
कुछ पंक्तियां इसकी याद नहीं आ रहीं…पर इसकी आखिरी पंक्तियां जो इस समय याद करने की कोशिश कर रहा हूं वो कुछ इस तरह से है "लूटी जिसने बच्चों की हँसी उस भूत का भूत भगा"
गीतकार के रुप में उन्होंने अपना पहला गीत वर्ष 1949 में प्रदर्शित राजकपूर की फिल्म "बरसात" के लिए 'बरसात में तुमसे मिले हम सजन 'लिखा था। इसे संयोग हीं कहा जाए कि फिल्म "बरसात" से हीं बतौर संगीतकार शंकर जयकिशन ने अपने कैरियर की शुरुआत की थी।
13 दिसंबर 1966 को अस्पताल जाने के क्रम में उन्होंने राजकपूर को आर के काटेज मे मिलने के लिए बुलाया जहां उन्होंने राजकपूर से उनकी फिल्म मेरा नाम जोकर के गीत "जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां" को पूरा करने का वादा किया। लेकिन वह वादा अधूरा रहा और अगले ही दिन 14 दिसंबर 1966 को उनकी मृत्यु हो गई। इसे महज एक संयोग हीं कहा जाएगा कि उसी दिन राजकपूर का जन्मदिन भी था। सुनते हैं कि उनके पुत्र शैली शैलेन्द्र ने उनकी लिखी अधूरी रचना "जीना यहां मरना यहां" पूरे गाने की शक्ल दीं |
पसन्द तो उनकी बहुत सी रचनाएं है पर कुछ पसन्दीदा गीतों को देखा और सुना जाय तो आनन्द आ जाय.....शैलेन्द्र जी को हमारी श्रद्धांजलि।
आज के दौर में गायकों-गायिकाओं की भरमार है, संगीत भी टनाटन है पर बहुत से गायकों की आवाज़, संगीत में दब सी गई है...जो जादू ६० और ७० के दशक में संगीत और गायक़ी ने बिखेरा था वो आज कहीं ग़ुम सा हो गया है..शायद आज इस भागती दौड़ती ज़िन्दगी में किसी के पास ठहर कर संगीत के बारे में सोचने का समय नहीं है....ऐसा भी नहीं है कि सब बुरी रचनाएं है पर ये तो ज़रूर है कि १०० में से ४ या ५ ही रचनाएं हमको प्रभावित कर पाती है पर उन गानों के बारे में सोचिये कि पिछले ५० सालों में भी कभी पुराना नहीं पड़ता...याद कीजिये कुमार शानू ने एक दिन में पच्चीस गानों की रिकार्डिंग की थी जो कहते है रेकॉर्ड माना जाता है...वहीं नौशाद साहब का कहना था " हम एक गाने पर पच्चीस दिन का समय लेते थे और आज एक दिन में पच्चीस गाने लोग रेकार्ड कर लेते हैं" खैर आज हम पीछे मुड़ के देखते हैं तो के एल सहगल,तलत महमूद, सी एच आत्मा, मुकेश, किशोर कुमार, मन्ना डे महेन्द्र कपूर,हेमन्त दा सुरैया,कमल बारोट, गीता दत्त लता मंगेशकर,आशा भोसले आदि की आवाज़ में बहुत से गीत तो ऐसे है जैसे लगता था कि इनके आलावा और किसी से गवाया जाता तो उतना मज़ा नहीं आता।
खैर ..........पता नहीं मैं क्या क्या लिखता जाउंगा और पोस्ट ख़ामख्वाह लम्बी होती जाएगी.....तो सीधे असली मुद्दे पर आते हैं ... . आज..... ३१ जुलाई है और आज के दिन रुहानी आवाज़ के जादूगर रफ़ी साहब की पुन्य तिथि पड़ती है ....आज संगीतकार मदन मोहन जी के वेबसाइट पर मो: रफ़ी साहब के दो अनरिलीज़्ड नगमें रफ़ी साहब को श्रद्धांजलि के रूप में समर्पित किये गये है,उनमें एक के बोल हैं "हर सपना इक दिन टूटे इस दुनियाँ में". संगीत मदन मोहन साहब का है |
और यहां बैजू बावरा फ़िल्म का वो गीत "ओ दुनियाँ के रखवाले सुन दर्द भरे मेरे नाले".....ये किसी स्टेज़ प्रोग्राम में रफ़ी साहब का एकदम अनोखा अंदाज़ आप महसूस कर पायेंगे। रफ़ी साहब को हमार भी सलाम।
साहिर लुधियानवी की एक नज़्म " जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां है" फ़िल्म थी "प्यासा" सचिन देव बर्मन का संगीत और रफ़ी साहब की आवाज़ में ये दर्द को महसूस तो कीजिये सीधे दिल से बात करती है :
और चलते चलते कुछ यादगार गीत और नज़्म और उनके बारे में मेरे मित्र संजय पटेल जी के ब्लॉग पर जाना ना भूलें।
ठुमरी पर बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं गया, एक कारण व्यस्तता भी थी पर सिर्फ व्यस्ता ही नहीं थोड़ा मेरा आलसपन भी था या ऐसे भी सोचा जा सकता था की लिखने के लिए पर्याप्त "माल" नहीं मिल रहा था, इतने दिन वापस आने में लग गए वैसे आज सुप्रसिद्ध नाटककार बादल सरकार की ८५ वीं जन्म तिथि है तो आज मुझे उन्हें नमन करने का मौक़ा मिल गया ...उनसे मेरा भावनात्मक रिश्ता जो रहा है, मेरे रंगमंच की शुरुआत बादल सरकार की वर्कशॉप से हुई थी......आज भी मेरी आंखों के आगे वो सारे दृश्य तैरते ही रहते हैं .....खैर बादल दा की पोस्ट के बहाने कुछ बड़ी व्याख्या या विमल उवाच का कोई इरादा नहीं है मेरा, हाँ इस बहाने मैं ज़िंदा हूँ इसकी तस्दीक करना चाहता हूँ | तो आज के दिन बादल दा को तहे दिल से जन्मदिन पर रंग जगत बादल दा के स्वस्थ और सुखी जीवन का आकांक्षी है | पिछले साल भी इसी दिन मैंने बादल दा कों याद करते हुए एक पोस्ट लिखी थी उसे भी यहाँ सहेज रहा हूँ और बादल दा पर अशोक भौमिक की किताब व्यक्ति और रंगमंच को भी देखते चलें ।
बात बहुत पुरानी है, इतिहास में झांकियेगा तब पता चल ही जाएगा... समझिये ग्रामोफ़ोन भारत में आया ही था, उस ज़माने में कितनों के पास ग्रामोफ़ोन रहा होगा ? सन १९०० के आस पास की बात है, उस ज़माने में महिलाओं का घर से बाहर निकलाना कितना मुश्किल होता होगा, उस समय और शहरों की तो नहीं जानता पर इलाहाबाद, बनारस, आगरा, लखनऊ की तवायफ़ें ही बड़े नवाब और धन पशुओं और संगीत के मुरीदों का मनबहलाव करती थीं, ग्रामोफ़ोन जब भारत में आया तो उसकी रिकार्डिग तब कलकत्ते में हुआ करती थी, १९०२ के आस पास की कुछ रिकार्डिग तो आज भी महफ़ूज़ हैं और १९०६ के आस पास जानकी बाई और दूसरी गायिकाओं भी आज मौजूद है, हाँ स्तरीयता की दृष्टि से तो कुछ कह नहीं सकते पर ऐतिहासिक दृष्टि से उनको सुनना महत्वपूर्ण है,जानकी बाई, गौहर जान, मलका जान ऐसी बहुत सी गायिकाएं थी जिनकी रिकार्डिंग उस समय हुई थी, जानकी बाई (1875-1934)के चाहने वाले उन्हें "बुलबुल" उर्फ "छप्पन छुरी" भी बुलाते थे, कहते हैं एक चाहने वाले ने जानकी बाई पर 56 बार चाकू से हमला कर घायल कर दिया था तभी से उनको लोग "छप्पन छुरी" के नाम से पुकारते थे, जानकी बाई के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है बस इतना कि १९०० के आस पास जानकी बाई अपनी गा़यकी की वजह से बहुत प्रसिद्ध हो चुकी थी, दादरा, ठुमरी, गजल, भजन ही नहीं बल्कि बल्कि एक शास्त्रीय गायिक़ा के रूप में उस ज़माने में प्रसिद्धि मिल चुकी थी, १९०२से १९०८ के आस पास की रिकार्डिंग जो मिलती है उनमें जानकी बाई का नाम आता है और कहते हैं उनके क्रेडिट में लगभग 150 रिकॉर्ड है.उस ज़माने में एक दिन की रिकार्डिंग का जानकी बाई ३००० रुपये लेती थीं,इससे ही ये अंदाज़ा लगता है कि जानकी बाई की शख्सियत कैसी रही होगी, आज उन्ही ग्रामोफोन रिकार्ड के कबाड़खाने से कुछ रचनाएं आपको समर्पित हैं | कुछ ग़लती हो गई हो तो क्षमा करेंगे |
रसीली तोरी अंखियाँ........ जानकी बाई की आवाज़ जानकी बाई की आवाज़ में इस रचना कों भी सुनें |
आज आपका परिचय कराता हूँ एक अफ़गानी ग़ायक सादिक़ फ़ितरत (NASHENAS)से जो कंधार में पैदा हुए लेकिन काबुल में अपने जीवन में सबसे ज़्यादा रहे । वैसे NASHENAS अफगानिस्तानी भाषाओं, दरी और पश्तो और साथ ही उर्दू में दोनों में
गाते हैं . ।
1970 के शुरुआती दशक में सोवियत संघ में NASHENAS मॉस्को के एक विश्वविद्यालय से पश्तो साहित्य में डॉक्टर की उपाधि से सम्मानित भी हुए।
NASHENAS अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनो देशों में बहुत लोकप्रिय हैं, विशेष रूप से क्वेटा और अफ़गान और पश्तो भाषी क्षेत्रों में में तो काफ़ी लोकप्रिय हैं । भारत से बाहर रहकर भी NASHENAS सहगल और मन्ना डे के गाये गीतों को खूब दिल से गाते है। सादिक़ साहब पर सहगल का असर बहुत दिखता है और खूब गज़ब गाते भी हैं, आज ये पोस्ट सादिक़ फ़ितरत NASHENAS को नज़र करते हैं,नशेनस तो मैं अंग्रेज़ी में लिख रहा हूँ ..पर नाम कों लेकर भ्रम अभी भी बना हुआ है , नशेनाज़ लिखूं या नशेनस या नशेनास पता नहीं मालूम नहीं ...फिर भी आप सुनियेगा तो सहगल साहब की याद तो ताज़ा हो ही जाएगी | कुछ और अच्छी तरह सुनने के लिए यहाँ क्लिक करें |
तब की बात है जब रेडियो सिलोन पर सुबह-सुबह पुरानी फ़िल्मों के गीतों का कार्यक्रम आता था और कार्यक्रम के अन्त श्री के एल सहगल की आवाज़ के किसी गाने पर खत्म होता था..इस समय उस कार्यक्रम का नाम तो याद नहीं आ रहा पर जहां तक सहगल साहब की बात करें तो उनकी गायकी और उनके गाने का अपना अलग अंदाज़ था वो दौर ही कुछ ऐसा था कि उस समय किसी भी गायक पर सहगल साहब का असर ज़रूर रहता था ,कुछ दिनों से एक गायक की आवाज़ सुन रहा हूँ..जो रहने वाले तो अफ़गानिस्तान के है और ग़ायकी में अफ़गानिस्तान में एक बड़ा नाम सादिक़ फ़ितरत NASHENAS को हिन्दी में कैसे सन्भोधित करूँ समझ नहीं आ रहा नशेनास या नशेनाज़ या कुछ और....आज सादिक़ साहब सुनते है...... वैसे सहगल साहब की गायक़ी का लुत्फ़ किसी और पोस्ट में लिया जायगा अभी तो ज़रा सादिक़ साहब की सुध ली जाय।
भारतीय कार्यक्रम आते ही हम रेडियो बन्द कर दिया करते थे,अक्सर किसी ऑर्केस्ट्रा कार्यक्रम में ऐसे संगीत के बारे में मिमिक्री आर्टिस्ट मिमिक्री करते हुए मज़ाक में यही कहता कि ऐसा गाने के लिये जाड़े की सुबह लोटे -लोटे पानी से नहाने पर जो मुंह से ध्वनि निकलती है वही असली शास्त्रीय संगीत है, बचपन से बहुत से शास्त्रीय संगीत से जुड़े संगीतकारों के नाम सुनते थे उन्हीं में एक बड़े फ़नकार का नाम सुना नाम था बड़े गुलाम अली ख़ान आज उन्हीं से मुत्तालिक़ एक वीडियो यू-ट्यूब पर मिला तो उसे आप भी देखें और धन्य हों। ये
वीडियो करीब १५ मिनट का है |
आज एक बहुत ही पुराना कोई गाना सुन रहा था वो गीत १९५० के आसपास का लिखा हुआ था ..जब भी इतने पुराने गानों कों सुनता हूँ तो बरबस मन ही मन सोचता हूँ की बताओ इसे किसी शायर ने या कवि ने लिखा होगा, इस रचना को लिखने में मालूम नहीं कितना समय लिया होगा पर आज पचास साल बाद भी उतना ही ताज़ा कैसे बना हुआ है? पता नहीं पर आखिर कौन सी बात है की उन गानों कों कालजयी बनाती है ?ऐसे ही एक गीत हम बहुत सुना करते थे बचपन में, वैसे तो बहुत से गीत हैं जिन्हें आज भी सुनकर मुंह से वाह तो निकल ही जाता है पर उनकी चर्चा बाद में की जाएगी अभी तो जिस मौलिक रचना को आप सुनने जा रहे हैं उसके बारे में कुछ यादे है जो आपके साथ बांटन चाहता हूं..... " कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे" रेडियो पर हमने इस गाने कों बहुत सुना है और इसी गाने के चलते हम इस फिल्म कों देखने सिनेमा हॉल तक गये थे, फ़िल्म थी "नयी उमर की नयी फ़सल" और उस गाने को गाया था मो: रफ़ी साहब ने ....ये गाना ही कुछ ऐसा था कि सुनकर पूरे शरीर मे एक अजीब सी प्रतिक्रिया होती थी .....और हम मुग्ध होकर बड़ी तल्लीनता से इसे सुनते थे और एक अरसे बाद आज भी वो गीत सुनने को मिले तो यही कहुंगा कि ऐसे गानो का आकर्षण अभी तक बना हुआ है ...।.
आज नीरज जी कि आवाज़ में इस मौलिक रचना को आप सुने .....नीरज जी का अपना अंदाज़ है पढने का,जो मुझे बहुत भाता है तो सुने और तो आनन्दित हों । वैसे बहुत दिनों बाद आपसे रूबरू होने का मौका मिला है पर मेरी यही कोशिश रहेगी कि आपसे अपने अनुभव बांटता रहूं।नीरज जी की ये आवाज़ बरास्ता मेरे अनुज गुड्डा के सौजन्य से ।
स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
पहली बार होली के रंग से दूर हूँ , पर होली में सबके साथ बैठ कर कुछ नया सुनाने और गुनने का आनंद ही कुछ ही है ,अब जब होली आती है तो हम अपने अतीत में खो जाते हैं .....उसी में डूबते उतराते हैं, आज भी कुछ मन उसी तरह का हुआ जा रहा है , इसी मौके पर छाया गांगुली की आवाज़ में इस गीत को सुने और आनन्द लें |