आजकल दो लोग बकलमखुद की सरकलम करने मे लगे हैं दोनों लोगों ने अपने अपने हिस्से का थोड़ा थोड़ा सच लिख कर अजित जी को जताया कि अब अपने बारे में जो कुछ भी लिखने की सोच रहे है, उससे पढ़ने वाले तो परेशान होंगे ही लिखने वाले की भी नींद हराम ही रहेगी ,अब यहाँ सवाल ये उठता है कि कौन कौन सी बात वो आम करना चाहते है ये तो वो जाने पर वाकई यहाँ किसे फ़ुर्सत है कि थोड़ा समय निकाल कर सबके जीवन को विस्तार से पढ़ सके,अब ऐसी सूरत में मुझे तो यही लगता है कि इतना हो हल्ला से बढ़िया है कि कुछ ना कुछ तो सामने लायें ही।
ये तो सही ही है कि अभी हम एक दूसरे को ठीक से जान भी नहीं पाये हैं,थोड़ा बहुत जो लिखते हैं उनका एक चेहरा हम देख पा रहे हैं,अनामदास जी की तो बात ही अलग है,यहाँ ब्लॉगजगत में अनामो बेनामों का जो हाल है ऐसे में अनाम का भी एक चेहरा बना लेना कम बड़ी बात है क्या ? अनामदास के लिखे को सभी सर आँखों पर लेते हैं,ऐसा भी नहीं कि अनामदास, धारा के विरूद्ध कुछ सनसनी टाइप लिखते हों किसी भी तरह चर्चा में बने रहने की जुगत में लगे हों या विवादों से घिरने की वजह से हम उन्हें जानते हों ऐसा तो कम से कम नहीं ही है, कौन कहता है कि आप अपना अतीत खोल खोल कर बताइये,आप उतना ही खुलिये जितना खुले हैं,अब जब से दोनों की पोस्ट बकलमखुद पर आयी है, मतलब अज़दक और अनामदास की तब से देख रहा हूँ और जो लोग लिखने का मन बना रहे थे वो भागने की तैयारी में है, जो कहीं से भी उचित नहीं है..
तो आपसे गुज़ारिश है कि आप अपने जीवन का जो भी अंधेरा उजाला है, जो भी अतीत में गुज़रा है, उसमें से जो आपको प्रसंग उचित हो हमसे बाँटिये ज़रूर, एक तो ऐसे ही ब्लॉग जगत पर आरोप लगते रहते हैं कि एक अजीब सी वर्चुअल दुनियाँ है, जिसमें कोई किसी को ठीक से जानता भी नहीं है,अपने पड़ोसी तक से मिलने से बचता है वो मानुष किसी भी ब्लॉग पर अहा अहा, वाह वाह और क्या बात है! और ना जाने किस किस तरह की टिप्पणी करता है,इन्हीं मे से कुछ विश्वासी दोस्त बने रहते है,कुछ तो खाना पीना छोड़कर,किसी नये विषय पर लिखने की सोचते रहते हैं, जिन्हें जानते नहीं उनके ब्लॉग पर नि:संकोच टिप्पणी करतेहै, किसी को बचपन याद आ जाता है,किसी के लिये नई जानकारी के लिये धन्यवाद लुटाता रहता है आखिर ये कैसी दुनियाँ हमें मिली है?या हम बना है?
इस दुनियाँ से किस किस तरह के लोग जुड़े है, ये तो हमे जानना चाहिये,और अगर अजितजी आप से मुख़ातिब होकर अपने अनुभव बाँटने की बात कर रहे है, तो क्या गलत कर रहे हैं,ये मेरी समझ के बाहर है... भाई कोई मुझे समझाएगा?
न शास्त्रीय टप्पा.. न बेमतलब का गोल-गप्पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्तो, है रंगमंच तैयार..
Monday, March 31, 2008
Thursday, March 27, 2008
धीरे धीरे मचल ऐ दिले बेक़रार.....ब्रायन सेलेस
कहने को तो बहुत सी बाते हैं कहने को,पर आज कुछ भी करने का मन नहीं है, जब कुछ भी करने का मन ना करे तो, संगीत आपको अंदर तक तर करने की कूवत तो रखती ही है,आज एक गीत सुनाने का मन कर रहा है जिसे लता जी ने अनुपमा फ़िल्म के लिये गाया था, मेरे बेहद पसंदीदा गीतों में भी ये गीत शामिल है...धीरे धीरे मचल ए दिले बेकरार कोई आता है......आज इसी गीत को ब्रायन सेलेस से सुनते हैं प्यानों पर...वाद्य यंत्रों में खास कर प्यानों पर इस गीत को सुनने का एक अलग ही मज़ा है....तो सुने और आनंद लें....
Sunday, March 9, 2008
खोया हुआ बच्चा, खांसता बूढ़ा और आंसू बहाती मीना कुमारी
इतनी सारी उलझनें कि किसी का घर खो जाता है, बुड्ढा खांसता है और खांसता चला जाता है... दोनों अपनी-अपनी जगह अकेले हैं... सिर पर मुसीबतों के भारी-भारी ऐसे तकलीफ़देह ढेले हैं... कौन करेगा इनकी मदद? कोई करेगा?
ठुमरी पर पॉडकास्ट: एक प्रयोग
ठुमरी पर पॉडकास्ट: एक प्रयोग
सब हसरतों का खू़न किये जा रहा हूँ मैं..कव्वाली रिज़वान-मुअज़्ज़म की
नुसरत साहब को सुनना वैसे भी सुखद रहता है...पर अभी इरफ़ान की टूटी बिखरी में सुना तो मुझसे भी रहा नही गया,आज नुसरत साहब को सुन कर रिज़वान मुअज़्ज़म की कव्वाली आपको सुनाने का मन है,रिज़वान-मुअज़्ज़म नुसरत साहब के भतीजे हैं,कहते हैं कि नुसरत साहब की विरासत को सम्हालते हुए इन्हें कामयाबी भी खूब मिली है..बहुत से शो इन लोगों ने पाकिस्तान से बाहर भी किये है, रिज़वान- मुअज़्ज़म के बारे में इतना ही कि नुसरत साहब के जाने के बाद उनकी परम्परा को बड़ी सफ़लता से आगे बढ़ा रहे हैं,इनकी कव्वाली दमदार हैं अंदाज़ के क्या कहने, पर आप भी सुने और आप खुद ही फ़ैसला करें,अगर आप खरीदने के उत्सुक हैं तो यहाँ पर क्लिक कर के जानकारी ले सकते हैं.तो पेश है उनके एलबम डे ऑफ़ कलर्स से दो चुनी हुई कव्वालियाँ..पिछले दिनों यूनुस जी ने मखदूम पर विशेष पोस्ट चढ़ाई थी उसे भी सुने..
मोरे मख़दूम बाजे मधुर बंसुरी.....
सब हसरतों का खून किये जा रहा हूँ मैं....
Monday, March 3, 2008
कौवा बोला काँव- काँव
अस्सी के दशक में हमने नाटककार मणिमधुकर का लिखा एक नाटक किया था, जिसका
नाम था.... रस गंधर्व, अब तो इस नाटक की स्मृतियाँ ही शेष रह गई हैं, फिर भी इस नाटक से
जुड़ी कुछ पंक्तियाँ आज भी मुझे कुछ कुछ याद हैं.......... जो भी याद आ रहा है लिखने की कोशिश कर रहा हूँ
अब अगर कुछ अधूरा रह गया हो जो मुझे लगता है, तो भूल चूक लेनी देनी मानकर पूरा भी कर दीजियेगा,
इतने सालों बाद भी ये पंक्तियाँ भूले भटके मेरे जेहन में आती जाती रहती हैं तो आज मैने सोचा ठुमरी पर डाल ही दूँ . जिन्हें ये अधूरा लग रहा हो वो इसको पूरा भी सकते हैं,
कौवा बोला काँव-काँव
आला झाला
देश निकाला
एक थी जिद्दी
सुन्दर बाला
सबका चित्त
चंचल कर डाला
गई ढूंढने मोती माला
किंतु मिला
लोहे का भाला
परनाले में फ़ंस गया पांव
कौवा बोला काँव-काँव
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तीन तिलंगे
तीन तिलंगे
लगे नहाने हर हर गंगे
उड़ गई धोती
रह गये नंगे
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आज की पीढ़ी के अभिनेताओं को हिन्दी बारहखड़ी को समझना और याद रखना बहुत जरुरी है.|
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