Sunday, September 16, 2012

कैरेबियन चटनी( Caribbean chutney) और भारतीय लोकगीत (Indian folk song)


सैकड़ों साल पहले हमारे देश के एक कोने से मज़दूरों के एक बड़े जत्थे को देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था ,गये तो वे मजबूरी में थे या यूँ कहें कि गये नहीं ज़बरन ले जहाज में ठेल ठेल कर ठूंस ठूंस कर अपने वतन से बेदखल कर दिया गया था ……अपने रिश्तेदारों, मित्रों, अपने-अपने साजो सामान के साथ,पर अब तो कई सौ साल गुज़र चुके हैं,उनके सीने में आज भी अपने देश की मिट्टी हरदम उन्हें अपने वतन की याद दिलाती रहती है | मैं जब भी इनके वीडियो देखता हूँ, इस दुनिया के बारे में सोचता ही रह जाता हूँ, आज भी उनका "लोक" जैसा भी है सुरक्षित है,भले ही इन सकड़ों सालों में न जाने उनका रूप किस किस तरह से बदल कर क्या हो गया ? पर आज भी उनका अपना समाज इन लोकगीतों को गाकर शायद अपनी जड़ो को सींच सींच कर बचाने की कोशिश कर रहे हों,आइये कुछ इसी दिशा में हो रहे उन प्रयासों से अपना दिल बहलाते है | एक पुराना गाना है जिसे राकेश यन्करण बड़े मज़े ले कर गा रहे हैं, अंदाज़ तो देखिये | "नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर" फ़िल्म "मुझे जीने दो" पर यहां इस गाने को संदीप की आवाज़ में सुनिये मज़ा आयेगा| राम कैलाश यादव को हमने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कभी सुना था, आज तो हमारे बीच वे नहीं हैं,पर उनकी लोक गायकी और अंदाज़ गज़ब का था,उनकी आवाज़ में ज़रा इस लोकगीत को सुनें और बताएं कि यहां और वहां में अन्तर नज़र आता है ? एक लोकगीत (निर्गुन) का आनन्द लें |

Thursday, June 14, 2012

आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ... मेंहदी हसन/ अहमद फ़राज़


दिल्ली के एक अपार्टमेंट में रंग-ए-महफ़िल सजी हुई है,ये मंज़र मुम्बई, इलाहाबाद या किसी भी शहर का  हो सकता है | जाड़े का दिन है,बाहर कुहासा घिर आया है, रात  का समा है, महफ़िल,कव्वाली से लेकर फिल्मी गानों से तर है, कभी मुन्नी बेगम तो कभी फ़रीदा खानम, कभी किशोर कुमार तो कभी रफ़ी,इधर हारमोनियम पर उंगलिया फिर -फिर रही थी और उधर   लोग बाग झूम -झूम से रहे हैं ,गुनगुना रहे हैं, साथ साथ सुरों के साथ ताल मेल बिठाने में में लगे हैं, कुछ सुर में हैं तो कुछ बेसुरे,जितने भी लोग बैठे हैं इस महफ़िल में, सब अलहदा अपनी अपनी दुनिया में डूब उतरा रहे हैं, रात गहरी और गहरी होती जा रही है, खिड़की के बाहर  काले आसमान पर नीले रंग ने अपनी दस्तक देनी शुरु कर दी है ,गज़लों को सुन सुन कर कुछ तो वहीं ढेर से हो चुके हैं ……अधनींदी अलसाई सी महफ़िल | ऐसे में एक तीखी लड़खड़ाती सी आवाज़ उभरती है "भाई रंजिश ही सही  याद है? अगर सुना सको तो ये तुम्हारा एहसान होगा मुझपर" और फिर क्या था गायक,   हारमोनियम पर रखी डायरी के पन्नों  को फ़ड़फ़ड़ाना  शुरु कर देता है  और तभी भीगी भीगी सी आवाज़ में "रजिश ही सही ……आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ "  शुरु हो जाता है "समा धीरे  धीरे फिर से बंधने सा लग जाता है – मुरीद, प्यार में पटकी खाए मजनूं  के अंदाज़ में आह आह और  वाह वाह  से कर उठते हैं, कुछ तो प्यार की कल्पनाओं में खो जाते हैं और महफ़िल फिर से जवान  हो जाती है, ऐसा लगने लगता है  कि ये गज़ल उन्हीं को देखकर शायर ने लिखी हो  |  “रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ, आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ”   गज़ल मेंहदी साहब की महकती जादुई आवाज़ में है, इस गज़ल की लम्बाई कोई 28 मिनट की है,तो पेश ए खिदमत है मेंहदी साहब के तिलस्म का जादू शायर हैं अहमद फ़राज़ |    || मेंहदी साहब को हमारी तरफ़ से विनम्र श्रद्धांजलि || ये ऑडियो गुड्डा नवीन वर्मा के सौजन्य से प्राप्त हुआ है तो गुड्डा को शुक्रिया !!

आज की पीढ़ी के अभिनेताओं को हिन्दी बारहखड़ी को समझना और याद रखना बहुत जरुरी है.|

  पिछले दिनों  नई  उम्र के बच्चों के साथ  Ambrosia theatre group की ऐक्टिंग की पाठशाला में  ये समझ में आया कि आज की पीढ़ी के साथ भाषाई तौर प...