न शास्त्रीय टप्पा.. न बेमतलब का गोल-गप्पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्तो, है रंगमंच तैयार..
Friday, October 12, 2007
क्या लोकगीत अब लुप्त हो जायेंगे ?
पता नहीं क्या क्या करना चाहता हूँ, पर समस्या ये है की ऑफिस का भी काम इतना सर पर पड़ा रहता है की अपने काम से मुक्त होकर कुछ व्यक्तिगत चिन्तन जैसी बात तो सोचना भी मुश्किल सा हो गया है, आज बैठा था की अचानक अनिल सिह ( अपने एक हिन्दुस्तानी की डायरी वाले) याद आ गए उन्होंने अरसा पहले जब हम बलिया मे रहते थे,तब उन्होने एक लोकगीत "छाप के पेड़ छियुलिया, की पतबन गहबर हो" ये लोकगीत उन्होंने मेरे घर पर सुनाया था और इस गीत को सुनकर मेरी माँ के आँख में आँसू आ गए थे, काफ़ी देर तक तो माँ इस गीत को सुनकर कही, अपने में ही खो गईं थीं उनको देखकर लगा था की लोकगीतों में भी कितना दम है जब सम्प्रेषित करती है तो सीधे दिल से सम्वाद स्थापित करती है, हम भी जब किसी जलसे में समूह के साथ लोकगीत गाया करते थे, तो वो समां देखते ही बनता था ।
ये सोचकर भी की सैकड़ो साल से लोकगीतों की परम्परा, हमारे समाज में आज भी आख़िर जिंदा कैसे हैं? यही सोचकर आश्चर्य भी होता है , हाँ ये ज़रुर हुआ है की, शादी विवाह के मौकों पर गाँव जवार में जो लोकगीत गाए जाते थे, उनकी जगह फिल्मो की धुनों ने ले ली है, अब तो ये हाल है की भजन भी फिल्मी धुनों पर गाये जाते हैं, आज भी बहुत सी फ़िल्मो के गाने लोकधुन की वजह से ही हिट होते हैं, ये दिगर बात है कि लोकगीतों का स्थान हमारे यहां हमेशा महत्वपूर्ण होने के बावजूद, धीरे धीरे ख्त्म होता जा रहा है, अब नई पीढ़ी के लोग भी शादी विवाह के मौके पर फ़िल्मी धुनों का ही इस्तेमाल धड़ल्ले से कर रहे हैं, जिससे लोकगीतॊ को नुकसान ही पहुंचा है।
हमारे पुराने मित्र उदय ने पिछले दिनों एक फ़िल्म कस्तूरी बनाई थी, उस फ़िल्म मे एक ख़ास बात थी, कुछ ऐसे लोकगीत जो हम सुना करते थे बरसों पहले, उन लोकगीतों का इस्तेमाल उदय ने अपनी फ़िल्म कस्तूरी में किया, ये लोकगीत हमेशा लोकप्रिय रहे हैं, इस वक्त मैं आपके लिए दो गीत इसी फ़िल्म कस्तूरी चुनकर लाया हूँ, संगीत निर्देशन प्रियदर्शन का है, जिनकी ये पहली फ़िल्म थी । आप ज़रूर सुनें, पहला गीत है बाबा निमियां के पेड़ जिन काट्यु हो. बाबा निमिया चिरैय बसे......जिसे गाया है मराठी गायिका आरती अंकलीकर ने और दूसरा गीत है पछियुं अजोरिया ढुरुकि चली... ...आवाज़ है कविता कृष्णामूर्ती की,तो लीजिये पेश हैं यहां ये तो बता दूं कि ये दोनो गीत भी फ़िल्म से ही हैं, ज़रा आरती अंकलीकर की आवाज़ में इस लोकगीत को तो सुनिये.....
यहां आप कविता जी की आवाज़ में सुन सकते है... पश्चिम अंजोरिया ढुरुकि चली...
कभी हम खूबसूरत थे !! !!
दूसरी गज़ल कुछ यूं है .... ऐ इश्क हमें बरबाद ना कर ...
अभी तो मैं जवान हूँ !!!
जवानी की सतरंगी छाँव, जवानी का जोश, जवानी-दीवानी ,ढलती जवानी, और जवानी के बारे मे ना जाने क्या लिखा जाता है, अब मै अपनी जवानी के बारे मे पुराना किस्सा ज़रुर सुनाना चाहता हूं ...मै भी इसे अपने पुराने दिन के रूप में ही याद करना चाहुंगा, जवानी के दिन के रूप मे नही, क्योकि अभी तो मै जवान हूं, तो इलाहाबाद के दिनो की बात है, रंगकर्म अपने उफ़ान पर था, नाटककार ब्रेख्त का नाटक इनफ़ॉरमर हम कर रहे थे, तब मै बाइस साल का रहा होउंगा, नाटक का एक पात्र मुझे भी निभाना था, निर्देशक थे तिगमांशु धूलिया.. तो निर्देशक ने बताया कि जो चरित्र आप निभा रहे है, उसकी उम्र लगभग पैंतालिस की है..तो मैने उस चरित्र के बारे सोचना शुरु किया, पैतालिस का आदमी कैसा होना चाहिये कैसा दिखना चाहिये....थोड़ा गाम्भीर्य धारण करना चाहिये और साथ साथ चाल भी धीमी होनी चाहिये.. बोलना भी बड़ा तौलकर....उसकी कनपटी के दोनो तरफ़ बाल सफेद होने चाहिये, वो तेज़ी जो जवानी मे रहती है वो तो बिल्कुल नही होनी चाहिए, पर आज मैं पैतालिस का हूं और आज लग रहा है, जो मैंने पहले इस उम्र के बारे में कल्पना की थी, वो ग़लत थी, क्योकि अभी भी मैं जवान हूं...हां इतना ज़रुर है, अपनी जवानी को बरकरार रखने के लिये बस इतना हुआ है कि बालों का रंग अब काला नहीं रह गया, उसमे भी लोरियल का इस्तेमाल हो रहा है...... जवानी बरकरार है, जब एक आध महीने में बालों का रंग थोड़ा धूमिल होने लगता है तो अपने कुछ खास लोग बोलने लग जाते है कि लगता है, लोरियल आंटी बहुत दिनो से आई नही हैं बुला लीजिये भाई और मै लोरियल आंटी को बुलाता हूं और फिर से पहले जैसा जवान हो जाता हूं
एक बार मै अपने ऑफ़िस की सीढियो से नीचे उतर रहा था तो मेरे एक सीनियर रास्ते में मिल गये, मैने क्या देखा, कि उनकी मूंछ के बाल उनके सर के बाल से कुछ ज़्यादा ही काला नज़र आ रहा था मैने इसका राज पूछा, तो उन्होने बताया कि मेरी मूंछ की उम्र सर के बालो से सोलह साल कम है, लेकिन ये बताना कि ये कमाल किसी रंग का है, इससे कन्नी काट गये, अरे कुछ तो ऐसे भी है सर के बाल सफ़ाचट्ट कर रखे है तो सफ़ेदी का सवाल ही नही उठता.. तो कहना ये चाहता हूं कि अभी भी मैं जवान हूं और इसी बात पर मल्लिका पुखराज की एक रचना याद आ रही है हालांकि इस रचना को मेरे पिता भी बहुत पसन्द करते थे और आज मै भी कह रहा हूं कि मुझे बेहद पसन्द है. धुन तो साधारण ही है. पर आवाज़ ऐसी की बार बार सुनने का मन करे , रचना है हफ़ीज़ जलंधरी की .... गाया है, मल्लिका पुखराज ने, तो मुलाहिज़ा फ़रमाइये:
अगर पुरानी तस्वीर देखने में परेशानी हो रही हो तो यहां पर आप इसे बखूबी सुन भी सकते है: .....
उस मोड़ का वो पीपल, करता है कितनी बातें ...... तलाश बैंड की कुछ रचनाएं !!!!
अब सुनिये इस गीत को और अपने कॉलेज के दिनो की कैन्टीन तो याद आ ही जाएगी ..... चाय ज़रा सी ........
और ये रचना हर सुबह है परेशां .......
सुनने के बाद अपने अनुभव ज़रूर बांटिये कुछ सुझाव भी हो तो दीजियेगा आपके सुझाव तलाश तक ज़रूर पहुंच
जाएंगे!!!!
Monday, October 1, 2007
कैसे समाज मे हम रह रहे हैं ?
यही नहीं, साहिर या उनकी तरह कुछ और लोग जो विज़नरी थे, पहले ही आने वाले समाज की शक्ल देख लेते थे तभी तो इस तरह का गीत उन्होंने उसी समय रच दिया, जैसे मुक्तिबोध ने अंधेरे मे सब कुछ देख लिया था, जो आज हम भी अपनी नंगी आंखो से देख सकते हैं.
कहते हैं जीवन बहुत ख़ूबसूरत है, एक बार ही तो ये जीवन मिलता है, छक के जी लेने में जाता क्या है भला ?पर लोग कहाँ चुप रहने वाले.... कहने वाले मिल ही जाएंगे की ख़ूब पैसा हो, तो जीवन भी खूबसूरती से जीं सकते हैं, पर पैसे वालों का क्या हाल है, परिवार में एक डॉक्टर भी जुड़ जाता है.. कुता लेकर सुबह सुबह टहलते देखे जाते हैं तो क्या लगता है वे खुश है, कुता पाल रखा है सुबह सुबह कुत्ता टहला रहे है बताइये कितना सुखद है ये सब इनके लिए पर आप जानते नही की सुबह सुबह कुत्ते को नही कुता इन्हें टहला रहा होता है, की सुबह सुबह डॉक्टर ने टहलने के लिए कहा और ये भी कहा है नही टहलोगे तो जल्दी टपक जाओगे.. कितना टेंशन है(भाई कुत्ते का उदाहरण यूं ही दे दिया है)
लोग तो ये भी कहते हैं की पैसा रिश्ते की मिठास तय करता है ओफो, ये क्या भाई,मै अनाप शनाप लिखने लगा दार्शनिक बातें मुझपर जंचती नही है, लगता है मैं ज़मीन से ऊपर उठकर ऊंची ऊंची छोड़ रहा हूँ पर कहना ये चाहता हूँ की, इसी समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो आने वाले समय को पहले ही भांप लेते हैं,इस पर मै तो चकित रहे बिना रह नही पाता..
अब बताइये कब लिखा था बुल्ले शाह ने बेशक मन्दिर मस्जिद तोड़ो बुल्ले शा ये कहता, पर प्यार भरा दिल कभी तोड़ो, इस दिल मे दिलवर रहता... आज देखिये आज के दौर मे ये गाना कितना फिट बैठता है,और बहुत से गीत होंगे पर मुझे ये गीत आज के दौर मे बड़ा सटीक लगता है मुकेशजी का गाया ये गीत, लगता है जैसे अभी अभी लिखा गया है. साहिर ने लिखा था आसमां पे है खु़दा और ज़मी पे हम ......
फ़िल्म है "वो सुबह कभी तो आएगी"... गायक हैं मुकेश
शायद मैं अपनी बात ठीक से नही रखा पाया, क्योकि इसके लिए लम्बे पोस्ट की दरकार है, जो मेरे लिए नितांत मुश्किल है, पर इतना जरूर है, कि जिस समाज मे हम रह रहे हैं कुछ ऐसा हो, की हमे अपने समाज पर गर्व हो, और हम सर उठा कर कहे, ऐसे ख़ूबसूरत समाज से जुड़कर हम गौरवान्वित महसूस करे, जो वाकई दुरूह है.इस खूबसूरत गीत से, मै आज की पोस्ट समाप्त करना चाहता हूं ... इस गीत को सुनिये, मज़ा भी है, और दर्द भी, इस फ़िल्म का नाम है नई उमर की नई फसल फ़िल्म तो कूड़ा थी, पर करते क्या, गाने के चक्कर में पूरी फ़िल्म देखनी पड़ी ... अब सोचिये ना, गाने के चलते हमने वैसे बहुत सी फ़िल्में देखी है जो बाद में पता चला गाने पर ही पूरी फ़िल्म टिकी है. पर ये गीत जो आप सुनने जा रहे है. आज भी सुनता हूं तो सिहर उठ्ता है मन, तो देखिये वीडियो
नीरज जी का है ये गीत ... कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे गाया है रफ़ीसाहब ने, .. तो सुनिये, आज बस इतना ही .... !!!!!
आज की पीढ़ी के अभिनेताओं को हिन्दी बारहखड़ी को समझना और याद रखना बहुत जरुरी है.|
पिछले दिनों नई उम्र के बच्चों के साथ Ambrosia theatre group की ऐक्टिंग की पाठशाला में ये समझ में आया कि आज की पीढ़ी के साथ भाषाई तौर प...
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पिछले दिनों मै मुक्तिबोध की कविताएं पढ़ रहा था और संयोग देखिये वही कविता कुछ अलग अंदाज़ में कुछ मित्रों ने गाया है और आज मेरे पास मौजूद है,अप...
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रंगरेज़ .....जी हां ....... अंतोन चेखव की कहानी पर आधारित नाटक है ... आज से तीस साल पहले पटना इप्टा के साथ काम करते हुये चेखव की कहा...
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पिछले दिनों नई उम्र के बच्चों के साथ Ambrosia theatre group की ऐक्टिंग की पाठशाला में ये समझ में आया कि आज की पीढ़ी के साथ भाषाई तौर प...