न शास्त्रीय टप्पा.. न बेमतलब का गोल-गप्पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्तो, है रंगमंच तैयार..
Tuesday, September 22, 2009
अजयजी की गठरी का ब्लॉग जगत में स्वागत करें !
अजयजी हमारे मित्र है उन्होंने भी गठरी नाम से अपने ब्लॉग की शुरूआत की है,आप भी उनका हौसला बढ़ाएं, उम्मीद है उनकी गठरी से ब्लॉग जगत लाभान्वित होगा।
Saturday, September 19, 2009
अतीत होते हमारे लोकगीत.....!!!
पिछली पोस्ट में त्रिनिडाड के बैठक संगीत के बारे मैने लिखा था पर ऐसा नहीं है कि ये बैठक संगीत सिर्फ़ और सिर्फ़ कैरेबियन देशों की थाती है....भाई हम भी कभी अपनी अंतरंग बैठकों में कुछ ऐसे गीतों को गाते रहे हैं कि जिस गाने से महफ़िल शुरू हुई होती वहां कुछ अलग किस्म के इम्प्रोवाईजेशन की वजह से उस पूरी रचना का एक नया ही रूप बन जाता...अब मेरे पास उसकी रिकॉर्डिंग तो नहीं है पर उस रचना में कव्वाली, गज़ल,कुछ अलग किस्म के चलताउ शेर और कुछ लोकप्रिय फ़िल्मी गीतों से बनी रचना उस पूरे बैठक में निकल कर आती थी,अफ़सोस तो इस बात का है कि उन बैठकों का कुछ भी हमारे पास मौजूद नहीं है।
अपने इस चिट्ठे पर मेरी कोशिश तो रहती है कि कुछ ऐसी चीज़ें परोसी जाँय जिसे लोगों ने कम सुना हो,जब मैने कैरेबियन चटनी पर पोस्ट लिखी थी तो अपने यहां के कैरेबियन चटनी को लेकर अलग अलग प्रतिक्रिया आई थी अनामदासजी ने लिखा था ......."इन गानों को सुनकर लगता है कि ऑर्गेनिक भारतीय संगीत, देसी संगीत सुनने के लिए अब कैरिबियन का सहारा लेना पड़ेगा, जहाँ भारतीय तरंग में बजते भारतीय साज हैं, और गायिकी में माटी की गंध है, सानू वाली बनावट नहीं है. मॉर्डन चटनी म्युज़िक में रॉक पॉप स्टाइल का संगीत सुनाई देता है, भारत में लोकसंगीत या तो बाज़ार के चक्कर के भोंडा हो चुका है या फिर उसमें भी लोकसंगीत के नाम पर ऑर्गेन और सिंथेसाइज़र, ड्रम,बॉन्गो बज रहे हैं.
तो अखिलेशजी की प्रतिक्रिया थी......."इसमें चटनी ही नहीं अचार भी है साथ ही साथ मिट्टी की हांडी में बनी दाल का सोंधा पन भी है...हां परोसने के तरीके में क्रॉकरी और स्टेन्लेस( संगीत) का बखूबी इस्तेमाल है, बेवतन लोगों में रचा बचा अस्तित्वबोध नये बिम्बों के साथ आधुनिक होता हुआ भी कहीं अतीत की यात्रा करता है। कहीं का होना या कहीं से होने के क्या मायने हैं इस संगीत से अयां हो रहा है।
पर मैं कहना चाहता हूँ कि आज भी अपने यहाँ ढूढें तो मन के तार झंकृत करने वाले लोक-गीतों भले कम हो गये हों पर आज लोग हैं कि उन्हें संजो कर रखे हुए हैं...
तो उसी कड़ी में कुछ लोकागीत लेकर आया हूँ जिसे हम दुर्लभ गीतों में शुमार कर सकते है, इन गीतों को भी किसी ने संजो के ही रखा होगा और आज मेरे पास न जाने कहां कहां से घूमता टहलता मेरे पेनड्राइव से होता हुआ आज ठुमरी तक पहुंचा है जिसे आप ज़रूर सुने और अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर दे ।
नौटंकी शैली में ज़रा इस गाने को सुनें, जिसे आप पहले भी सुन चुके है जिसे लता जी ने गाया था फ़िल्म" मुझे जीने दो" में और पीछे से नक्कारे की किड़मिड़ गिम भी सुने जो इस गाने को और मोहक बना रहा है.....इस आवाज़ से मैं तो अंजान हूँ. पर आप ही सुने और कुछ बताएं।
बिरहा पर भी क्लिक करके एक संगीत के साईट पर बहुत से लोकगीतों से रूबरू हो सकते है।
यहां बिरहा में जिनकी आवाज़ है वो मेरे लिये अनाम है अगर आप मदद कर सकें तो अच्छा होगा।
रोपनी आज रोपनी पर जो लोकगीत गाये जाते है उन पर एक नज़र ...हमारे यहां तो हर मौसम के लिये लोकगीत बने है...मॉनसून आते ही खेतों में धान की रोपनी होती है और किसान अपने खेतों में रोपनी वाले गीत गाते गाते अपना काम करते है...
और कोहबर(विवाह के समय जहाँ कई प्रकार की लौकिक रीतियाँ होती हैं) का गीत गाती महिलायें, विवाह गीत तो आपने बहुत से सुने होंगे पर कोहबर पर विशेष इस गीत को सुनें,
अपने इस चिट्ठे पर मेरी कोशिश तो रहती है कि कुछ ऐसी चीज़ें परोसी जाँय जिसे लोगों ने कम सुना हो,जब मैने कैरेबियन चटनी पर पोस्ट लिखी थी तो अपने यहां के कैरेबियन चटनी को लेकर अलग अलग प्रतिक्रिया आई थी अनामदासजी ने लिखा था ......."इन गानों को सुनकर लगता है कि ऑर्गेनिक भारतीय संगीत, देसी संगीत सुनने के लिए अब कैरिबियन का सहारा लेना पड़ेगा, जहाँ भारतीय तरंग में बजते भारतीय साज हैं, और गायिकी में माटी की गंध है, सानू वाली बनावट नहीं है. मॉर्डन चटनी म्युज़िक में रॉक पॉप स्टाइल का संगीत सुनाई देता है, भारत में लोकसंगीत या तो बाज़ार के चक्कर के भोंडा हो चुका है या फिर उसमें भी लोकसंगीत के नाम पर ऑर्गेन और सिंथेसाइज़र, ड्रम,बॉन्गो बज रहे हैं.
तो अखिलेशजी की प्रतिक्रिया थी......."इसमें चटनी ही नहीं अचार भी है साथ ही साथ मिट्टी की हांडी में बनी दाल का सोंधा पन भी है...हां परोसने के तरीके में क्रॉकरी और स्टेन्लेस( संगीत) का बखूबी इस्तेमाल है, बेवतन लोगों में रचा बचा अस्तित्वबोध नये बिम्बों के साथ आधुनिक होता हुआ भी कहीं अतीत की यात्रा करता है। कहीं का होना या कहीं से होने के क्या मायने हैं इस संगीत से अयां हो रहा है।
पर मैं कहना चाहता हूँ कि आज भी अपने यहाँ ढूढें तो मन के तार झंकृत करने वाले लोक-गीतों भले कम हो गये हों पर आज लोग हैं कि उन्हें संजो कर रखे हुए हैं...
तो उसी कड़ी में कुछ लोकागीत लेकर आया हूँ जिसे हम दुर्लभ गीतों में शुमार कर सकते है, इन गीतों को भी किसी ने संजो के ही रखा होगा और आज मेरे पास न जाने कहां कहां से घूमता टहलता मेरे पेनड्राइव से होता हुआ आज ठुमरी तक पहुंचा है जिसे आप ज़रूर सुने और अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर दे ।
नौटंकी शैली में ज़रा इस गाने को सुनें, जिसे आप पहले भी सुन चुके है जिसे लता जी ने गाया था फ़िल्म" मुझे जीने दो" में और पीछे से नक्कारे की किड़मिड़ गिम भी सुने जो इस गाने को और मोहक बना रहा है.....इस आवाज़ से मैं तो अंजान हूँ. पर आप ही सुने और कुछ बताएं।
बिरहा पर भी क्लिक करके एक संगीत के साईट पर बहुत से लोकगीतों से रूबरू हो सकते है।
यहां बिरहा में जिनकी आवाज़ है वो मेरे लिये अनाम है अगर आप मदद कर सकें तो अच्छा होगा।
रोपनी आज रोपनी पर जो लोकगीत गाये जाते है उन पर एक नज़र ...हमारे यहां तो हर मौसम के लिये लोकगीत बने है...मॉनसून आते ही खेतों में धान की रोपनी होती है और किसान अपने खेतों में रोपनी वाले गीत गाते गाते अपना काम करते है...
और कोहबर(विवाह के समय जहाँ कई प्रकार की लौकिक रीतियाँ होती हैं) का गीत गाती महिलायें, विवाह गीत तो आपने बहुत से सुने होंगे पर कोहबर पर विशेष इस गीत को सुनें,
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