पिछली पोस्ट जो शिलेन्द्र जी पर थी उसमें एक रचना मैने अधूरी पोस्ट की थी और उस पोस्ट में मित्र पंकज श्रीवास्तव का ज़िक्र मैने किया था उनकी मदद से शैलेन्द्र की इस रचना को फिर जितना हम दोनों को याद था यहां पोस्ट कर रहे हैं |
झूठे सपनों के छल से निकल चलती सड़को पर आ
अपनो से न रह दूर दूर आ कदम से कदम मिला
हम सब की मुश्किलें एक सी है भूख, रोग, बेकारी,
फिर सोच कि सबकुछ होते हुए, हम क्यौं बन चले भिखारी
क्यौं बांझ हो चली धरती, अम्बर क्यौं सूख चला,
अपनों से न रह यूं दूर दूर आ कदम से कदम मिला
ये सच है रस्ता मुश्किल है मज़िल भी पास नहीं
पर हम किस्मत के मालिक है किस्मत के दास नहीं
मज़दूर हैं हम मजबूर नहीं मर जांय जो घोंट गला
अपनों से न रह यूं दूर दूर आ कदम से कदम मिला
तू और मैं हम जैसे एक बार अगर मिल जाएं
तोपों के मुंह फिर जांय ज़ुल्म के सिंहासन हिल जांय
लूटी जिसने बच्चोंकी हँसी उस भूत का भूत भगा
अपनों से न रह यूँ दूर दूर आ कदम से कदम मिला
न शास्त्रीय टप्पा.. न बेमतलब का गोल-गप्पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्तो, है रंगमंच तैयार..
Monday, September 13, 2010
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