Monday, July 16, 2007

आखिर बात क्या है जो हस्ती मिटती नहीं

सन्दर्भ फ़िल्मी-गैर फ़िल्मी गीतों को लेकर उठाना चाहता हूं. गीतों की बात निकलती है तो ५० और ६० के दशक के गीत हमारे मन-मस्तिष्क पर या यूं कहा जाय कि ज़ुबान पर आ ही जाते हैं. दिल पुकारे आ रे, आ रे, आ रे; अभी ना जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं, सुन सुन ओ ज़ालिमा प्‍यार हमको तुझसे हो गया, रात ने क्‍या-क्‍या ख़्वाब दिखाए- ये सब ऐसी रचनाएं हैं हमने जिन्‍हें याद करने की कोशिश भी नहीं की पर अनायास ही ज़बान पर जीवित हो उठते हैं, उनके बोलों से मन और मस्तिष्‍क गुंजायमान हो उठता हे!

इनमें भी कुछ गीत ऐसे है जो सिर्फ़ और सिर्फ़ रेडियो पर ही सुनने में आनन्द आता है. पर रेडियो का आनन्द भी कुछ ऐसा है की कि इन गानों की सीडी भी अपने पास रखें तो भी रेडियो का जो आनन्द है उसका वह विकल्प नहीं बन पाता. ज़रा अजीब बात है... नहीं? साथ ही यह देखना भी मज़ेदार है कि ५०-५० साल पुराने गाने हमारे मन व होंठों पर बार-बार जिस तरह लौटते रहते हैं वही बात नये गानों के साथ नही होती. ऐसा क्यों है. क्या ये दिक्कत सिर्फ़ मेरे साथ ही है? क्या समझा जाय कि हम अतीतजीवी हो गये है या कुछ और बात है? ऐसा कैसे हो गया?

7 comments:

Manish Kumar said...

विमल भाई पुराने गीतों का कोई सानी नहीं है. पहले के जमाने में गीत के बोलों पर ज्यादा ध्यान दिया जाता था अब संगीत पर ज्यादा जोर है। कारण ये भी है कि इस टीवी युग में जनता गानों को देखना ज्यादा पसंद करती है. पहले सुनना पसंद करती थी। पर मेरा ये मत है कि कम ही सही आज भी हमारे यहाँ अच्छे गाने बनते हैं और हमारे आज के गायक या संगीतकार कम प्रतिभाशाली नहीं हैं. हाँ, अच्छे गीतकार गिनती के हैं। कभी इस बहस पर एक लेख लिखा था..कहाँ गए संगीत के सुर मर गई क्या मेलोडी...?
http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com/2006/08/blog-post_115682622196537105.html
शायद आपके प्रश्न का कुछ जवाब मिल सके।

अभय तिवारी said...

कुछ नहीं बुढ़ौती की निशानियां हैं..

sanjay patel said...

ज़माने की कमर्शियल फ़ितरतें भी मारती जा रहीं हैं पुराने गीतों को.लेकिन जैसे आपने कहा वे अनायास आपके मानस में घुमड़्ते हैं ..वजह यह भी है कि पुराने सारे संगीत का आधार क्लासिकल म्युज़िक था.अब मुझे पिछले दिनों एक जानकारी मिली कि सहगल साहब (निश्चित रूप से बाबा नहीं;कुंदनलालजी)आफ़ताबे मौसिकी़ उस्ताद फ़ैयाज़ खाँ साहब के भी गंडाबंद शाग़िर्द रहे (इस जानकारी के बाद सहगल साहब को सुनने का अंदाज़ बदल गया)शास्त्रीय आधार से बनी चीज़ें हमेशा आपके अवचेतन मन को हाँट करती हैं..जहाँ तक आवाज़ में नैज़ल (नाक में गाना) उसे दुनिया के तमाम बडे़ कलाकार अच्छा ही मानते आए हैं जैसे बेगम अख़्तर को भी सुनिये..हल्का सा नज़ला हमेशा तारी रहता है उनके गाने में.तो नाक में गाना कोई बुरा नहीं..वह कालजयी है या नहीं यह समय ही तय करता है..देश के चार बडे़ ब्राँड्कास्टर्स को देखिये नाक में बोलते हैं...अमीन सयानी साहब,हरीश भिमाणी,स्मृति शेष पं.विनोद शर्मा (जो सचमुच करते बीवी से प्यार वो कैसे करें प्रेस्टीज से इनकार..दीपिकाजी .इस एड़ में पण्डित जी बोले भी हैं और माँड्ल भी हैं;कभी विविध भारती से सबसे लोकप्रिय स्पाँसर्ड कार्यक्रम इंस्पेक्टर ईगल के मुख्य पात्र)और जसदेव सिंह. कोई अपने काम और नाम की नाक रखे यह ज़्यादा ज़रूरी है..नाक में बोलना या गाना नहीं.

VIMAL VERMA said...

अभयजी ने साफ़ कर दिया कि ये बुढौती की निशानी है, शायद इससे भी इंकार नही किया जा सकता, पर इसी बहाने मनीषजी और संजयजी के विचार से भी अवगत हुआ.आप ने अपनी राय दी आप सबको शुक्रिया लेकिन एक बात साफ़ कर दूं कि हिमेश को बतौर गायक पसन्द भी नही करता.मैं अपनी बात कह के स्भी को उकसाने की कोशिश कर रहा था.

Yunus Khan said...

मनीष का कहना सही है कि आज भी कुछ अच्‍छे गीत लिखे जा रहे हैं । पर आज श्रेष्‍ठता की मात्रा कम है । मैं इस बात से भी सहमत हूं कि नये गानों की शेल्‍फ़ लाईफ़ कम है । उनका असर दूर तक नहीं जाता । लेकिन पुराने गानों के बारे में मेरी धारणा है कि वे सदा रहेंगे, उनकी सादगी और उनके सच्‍चापन इसका कारण है । मैं अपनी फितरत आपको बताऊं कि रेडियो और वो भी विविध भारती में होना मेरी कितनी मदद करता है । मान लीजिये कि गीता दत्‍त का गाया गैर फिल्‍मी ‘हौले हौले हवाएं डोलें’ मन में तैर गया । या फिर तलत का गीत ‘बेचैन नज़र बेताब जिगर’ । तो चाहे मुझे दफ्तर जाना हो या नहीं, काम कुछ भी हो, मैं फ़ौरन जाकर उस गाने को निकालकर सुनता हूं, मन का क्‍या है कभी कभी ऐसे गाने मन में तैर जाते हैं कि उनको खोजें कहां । इसलिये कई मुमकिन नग्‍मे अपने कंप्‍यूटर पर जमा हैं । फिर कैसेट हैं, सीडीज़ हैं । और सबसे भला साथी है रेडियो । बस, बटन दबाईये और समस्‍त अप्रत्‍याशित गीत हाजिर हैं । रेडियो का अप्रत्‍याशित होना ही इसकी ताक़त है । जल्‍दी ही रेडियो नामा शुरू हो रहा है । आपका उसमें सहयोग अपेक्षित है । आप रेडियो-प्रेमी व्‍यक्ति जो हैं । यक़ीन मानिए आप अतीतजीवी नहीं हुए हैं । मैं नई पीढ़ी के दर्जनों ऐसे लोगों को जानता हूं जो पुराने गानों के विशेषज्ञ हैं । पुराने गानों में ताक़त है, रचनात्‍मकता है । उन पर तकनीक हावी नहीं हैं । इसलिये प्रिय बन गये हैं ।

sanjay patel said...

युनूसभाई आपकी और भाई कमल शर्मा की आवाज़ में भी नैज़ल है..लेकिन बड़ा सुरीला...बनावटी नहीं..स्वर के प्रवाह को बढा़ता है वह और एक जैसे तानपूरा होता है न शास्त्रीय संगीत में ..जताता नही कि मै हूं..लेकिन तार उतरे उसके तो समझिये गाने वाले को बैचेन कर दिया उसने...तो नैज़ल या आपका सुरीला नक्कू बडे़ काम की चीज़ है.आकाशवाणी जयपुर के एक बडे़ सीनियर ड्रामा आर्टिस्ट थे नंदलाल शर्मा..पं.विनोद शर्मा के अनुज ..बडी़ नज़ले वाली आवाज़ थी उनकी..कभी इन्दौर आए थे अस्सी के दशक में ..तो उन्होने भारतरत्न भार्गव और केशव पाण्डेजी की मौजूदगी में मुझे ये बात कही थी कि नसीब वालों को मिलता है ये नक्कूपन.लेकिन हाँ फ़िर कहूंगा कि ये कुदरती होना चाहिये बनावटी नहीं.कुंदनलाल सहगल जैसा...हिमेश जैसा नहीं.मेरा एक और आब्ज़रवेशन है हिमेश के बारे में कि ये जनाब हैं गुजराती मादरे ज़ुबान वाले बंदे..और चूँकि मै गुजराती लोगों के बीच उठता बैठता हूँ मैने महसूस किया है विमल भाई और युनूस भाई कि गुजरात के कुछ लोग जब हिन्दी में बतियाते हैं नाक में बोलते हैं बडे़ नाज़ोनख़रे से.शायद इनके गाने में भी वही बात है लेकिन है तो बडी़ बेसुरी...कमर्शियल लिमिटेशन न हो तो शायद जावेद अख़्तर साहब जैसा भावुक गीतकार हिमेश के साथ काम करने से इनकार ही कर दे.

ajai said...

Vimalji baat naye-purane ki nahi hai.Baat jawani aur budhauti ki bhi nahi hai,baat sirf Melody ki hai wo naya ho ya purana kya fark padta hai.hum ye kah sakte hain ki pahle ke gano me adhiktar me melody thi aaj adhikans gane me melody nahi hoti.aaj ke adhikans gane jyadatar dekhe jaate hai aur bahut se to cinema hall ke bahar aate hi dum tod dete hain.inka jeevan bhi bada sanchchipt hota hai , film utri aur ye bhi jubaan se utar jaate hain.

आज की पीढ़ी के अभिनेताओं को हिन्दी बारहखड़ी को समझना और याद रखना बहुत जरुरी है.|

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