न शास्त्रीय टप्पा.. न बेमतलब का गोल-गप्पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्तो, है रंगमंच तैयार..
Monday, July 16, 2007
नाक से गाने वालों को सलाम
पता नही इधर नाक से गाने वाले गायक को बार-बार विवाद में क्यों घसीटा जा रहा है, क्या नाक से इसके पहले कोई गाता ही नहीं था? नही, जबकि ऐसी बात नही है. पहला व्यक्ति कौन था ये तो शोध का विषय है, पर हिन्दी फ़िल्मी गीतों के शुरुआती दौर में चाहे नूरजहां हों या सहगल या मुकेश या पंकज मलिक या गीता दत्त हों यहां तक की लता मंगेशकर हों या आशा भोसले तक... एक तरफ़ से ये सारे नाक से ही गाना पसंद करते थे या शायद उस समय की कोई तकनीकी समस्या रही होगी... जैसी जिस भी वजह से इन्हें कुछ समय तक नाक से गाना पड गया होगा पर तब किसी ने उनके नाक पर कभी उंगली नहीं उठायी... और उठायी तो उसकी आज किसी को याद नहीं... फिर आज गायक से हीरो बने हिमेश के नाक से गाने पर इतना हो हंगामा क्यों? अब आप ही बताइये मुकेश के दर्द भरे नगमें अगर नाक से नहीं गाए जाते तो क्या हम पचा पाते? बर्मन दा, पंचम दा, गीता दत्त, भुपिंदर, मनहर उधास, जो अपनी नाक की वजह से प्रिय थे, कल्पना कीजिये ये अगर नाक छोड़ कर गाते तो कैसा लगता, फिर हिमेश पर इतना शोर क्यो? ज़रा सोचिये और बताइये…
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10 comments:
बात में दम है..
भाई बात तो वास्तव में पते की है. फिल्मी दुनिया में शायद यही रिवाज है.
मेरी टिप्पणी को ह्स्ती मिटती नहीं और नाक से गाने वालों को सलाम ! के लिये संयुक्त रूप से स्वीकार कर लीजियेगा विमल भैया . छपने के बाद ध्यान गया.मुआफ़ी चाहता हूं.
विमल भाई, ब्लॉग जगत में आप अवतरित हो ही गए. हो ही नहीं गए, ऐसी ऐसी सुर्रियाँ छोड़ रहे हैं कि विद्वानों से जवाब देते न बने. आपने बात तो ठीक कही है--
जँबँ दिँलँ हीँ टूँटँ गँयाँ -- हँमँ जीँकँरँ क्याँ कँरेँगेँ...
भाई अभयजी आपने कहा बात में दम है लेकिन मैं भी अच्छी तरह जानता हूं कि बात में उतना दम तो नहीं है क्योंकि मैंने हिमेश को ध्यान में रख लिखा था जो वाकई मुझे पसन्द नहीं, बाकी गायकों की वजह से हिमेश की भी तारीफ़ मिल गई,इष्टदेवजी, और संजयजी आप से मुझे बल मिला है. साथी जन सेवक जी से कहना है, क्या वो पहले से मुझे जानते हैं,अगर जानते हैं तो अपना परिचय अवश्य दें. और आप सभी को धन्यवाद.
हिमेश मुझे भी सख्त नापसंद हैं । रही बात नाक से गाने की, तो इसमें वाक़ई कोई बुराई नहीं है । जिन कलाकारों का नाम लेकर आपने आशंका तकनीकी समस्या की जताई है, दरअसल मामला वैसा नहीं है । तकनीकी समस्या बिल्कुल नहीं थी । उस ज़माने में नाक से गाना अच्छा माना जाता था । असली गायन उस समय वही माना जाता था । याद कीजिये अशोक कुमार कैसे गाते हैं ‘मैं बन का पंछी बनकर बन बन डोलूं रे’ या फिर वो गीत याद है आपको ‘नाव चली रे मेरी नाव चली रे’ या फिर ‘ मैं तो दिल्ली से दुल्हन लाया रे हो बाबूजी’ ये सारे अशोक कुमार के गीत हैं । सहगल से पहले के । या फिर कानन देवी का ‘तूफान मेल, ये दुनिया’ । या फिर के.सी.डे का गीत, ‘तेरी गठरी में लागा चोर’ । ये भी नक्कू गाना है । अरे किशोर कुमार का पहला गीत सुनिए ‘मरने की दुआएं क्यूं मांगूं’ या फिर मुकेश का पहला गीत ‘दिल जलता है तो जलने दे’ सब नक्कू हैं । तलत ने भी नक्कू गीत गाये हैं शायद यक़ीन ना हो । शमशाद बेगम को सुनिए, बिल्कुल देसी और नक्कू आवाज़ । वे जीवित हैं और पवई में रह रही हैं, पुराने ज़माने की रवायतों को वो बता सकती हैं । बताती भी हैं कि किस तरह नौशाद वग़ैरह उन्हें इसी तरह गाने को कहते थे । और तो और ओ.पी.नैयर के गानों में महिला स्वर लता कभी नहीं रही पर शमशाद जैसी नक्कू गायिका रही हैं । बाप रे, मैंने इतना सारा लिख डाला । ये तो एक नई पोस्ट का मसाला है अगर ये गाने नेट पर मिल जायें तो । तो भईया नाक से गाना कितना अहम रहा है, इस पर ये था हमारा प्रवचन । लंबा हो गया माफी चाहते हैं । पर संगीत के ख़ब्ती हैं क्या करें ।
विमल जी ! हर गाने मे नाक का थोडा बहुत स्तमाल तो होता ही है,नाक कोइ भी नही छोड़ सकता न माने तो नाक बन्द कर के कोइ भी ... खैर कुल बात ये है कि जो जळ्ते है वो ही उबळ्ते है! सौ टके की सीधी बात...अगर वो इतना ही बुरा गाते होते तो लगातार उनके गाने हिट क्यो होते है?
आप की राय से मै पूरे तौर पर सहमत हूं.
आप को शुभकामनायॆ!
एक सवाल पूछें साथी जी? बुरा न मनाइएगा. आपमें और रवीश कुमार में क्या अंतर है? आप कहेंगे हम हम हैं, रवीश रवीश हैं. बस यहीं मात खा गए आप. आपमें और रवीश में अंतर ये है कि वो स्थापित ब्लॉगर हैं और आप संघर्षरत.
स्थापित और संघर्षरत में क्या अंतर होता है? संघर्षरत वो होता है जो ब्लॉग पर प्रतिक्रिया आने पर पूरी विनम्रता के साथ ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को जवाब देने का प्रयास करता है. स्थापित वो होता है जो प्रतिक्रिया की गारंटी अपनी तिजोरी में रखता है. करेंगे टिप्पणी करने वाले आख़िर क्यों नहीं करेंगे. हमने जो ब्लॉग लिखा है. फिर हम जवाब दें, न दें... इग्नोर कर दें. हम स्थापित ब्लॉगर हैं.
एक आप हैं. खोज खोज कर टिप्पणी करने वालों को जवाब दे रहे हैं.
लेकिन वो दिन दूर नहीं साथी जी, जब आप भी स्थापित हो जाएँगे और हम जैसे जन सेवक तब आपकी बला से अपनी ऐसी तैसी में जाएँ. ऐसा हुआ था, हो रहा है, होता रहेगा. रवीश कुमार बताते हैं कि लेखक बस लिख देता है -- स्वर्णाक्षर. बटोरने वाले मोती बटोर लेते हैं.
साष्टांग श्रीमान स्थापित ब्लॉगर महाराज, साष्टांग दंडवत. और विमल जी आपको एडवांस में साष्टांग क्योंकि आ़खिर आप भी स्थापित होंगे और फिर प्रतिक्रिया देने वालों पर वैसे ही दृष्टिपात करेंगे जैसे शरद यादव जीतने के बाद अपने वोटरों पर करते हैं. जय हो.
जन सेवक महाराज की जय हो,अब आप हमकॊ जब स्थापित ब्लागर बनाने पर तुले ही है तो पहले तो मन में यही विचार आया कि आपकी बात मटिया दॆं और चुप मार के बैठे रहें पर मन है ना उ तो बेचैन रह्बे करेगा ना तो हम आपको ये ज़रुर बता दें यहां कोई नाम कमाने की कोई योजना नही है बस इतना कि इसी बहाने हिन्दी लिखना सीख रहे हैं, और अपने व्यक्तिगत विचार लिखने का एक मंच "ठुमरी" पर वो सब अनाप शनाप लिखें और आप जैसे लोग भेंटा जाय तो उनसे भी बतियाते चलें, बस इतना सा ख्वाब है देखिये हो भी पूरा होता है की नही क्योंकि लिखना भी एक बड़ा झमेला है क्योंकि मैं लिखाड़ भी तो नहीं हूं और अपनी रोज़ी रोटी भी तो चलानी है ना वो पहले ये बाद में और इस पर भी आप जो सपना हमें दिखाने पर तुले हुए हैं तो आपके मुंह में घी शक्कर.आप कुछ लिखियेगा तो आपको भी यही कह कर आपको भी हम ऊपर चढा के रहेंगे इसकी चिन्ता मत करियेगा आप हमारे यहां पधारे आपको मीठा मीठा धन्यवाद!!!
ये प्रतिक्रिया यहाँ भी दे रहा हूँ. क्या पता प्रमोद कुमार सिंह के पिछले पन्ने आप पढ़ें या न पढ़ें.
विमल जी... आलोचना का मकसद क्या होता है? क्या आलोचना का मकसद अराजकता होता है या फिर जिसकी आलोचना की जा रही हो उसको मिट्टी में मिला देना, नीचा दिखाना, पराजित कर देना, बदनाम कर देना और दुरदुराना होता है?
मैं जहाँ तक समझता हूँ आलोचना एक ऐसा विचार है जो वहीं खड़ा होने पर आता है जहाँ आलोचक खड़ा होता है -- वहाँ वह विचार पैदी ही नहीं हो सकता जहाँ आलोच्य खड़ा होता है. आलोचक की उपयोगिता यही है कि आलोच्य भी उस विचार को समझ-देख सके जो आलोचक उसे समझाना-दिखाना चाह रहा है. इस द्वंद्व में कई बार सर्जनात्मक का फ़ायदा होता है.
माना कि प्रमोद कुमार और आपमें गाढ़ी मित्रता है लेकिन प्रमोद कुमार ने मेरी प्रतिक्रिया को प्रकाशित कर अपने उदारवादी और जनतांत्रिक होने का सबूत प्रस्तुत किया है. रवीश कुमार ने मेरी प्रतिक्रिया मिटाकर अपने स्थापित ब्लॉगर होने का सबूत दिया है. आपने भी प्रमोद कुमार के साथ अपनी मित्रता का सबूत तो ज़रूर दिया है... लेकिन मित्र सोचिए कि क्या आपने अपने डैमॉक्रैट होने का सबूत दिया है?
हम हमेशा तारीफ़ ही क्यों सुनना-पढ़ना चाहते हैं और अगर कोई तारीफ़ के साथ साथ ये भी कहता है कि अब मित्र थोड़ा सुर बदलिए तो क्या ये कहने वाला शक्ति कपूर जैसा (स्टिंग ऑपरेशन में पकड़ाया गया, नीच, दुष्कामी जिसकी कुटम्मस हुई थी) महा नीच, महा दुराचारी खलनायक कहा जा सकता है?
इसी बहाने विचारों की अभिव्यक्ति पर चर्चा हो तो क्या बुराई है. वैसे मेरा नाम शक्ति कपूर नहीं है.
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