Monday, July 21, 2008

शोला था जल बुझा हूँ......उस्ताद मेंहदी साहब की कुछ चुनी गज़लें पेश कर रहा हूँ.....



एक आध दिन पहले ख्वाब दर ख्वाब में उस्ताद मेंहदी हसन साहब की सेहत से मुत्तालिक़ कुछ खबरें पराशर साहब ने अपने ब्लॉग पर दी थीं...और इससे अलहदा मैं भी मेहदीं साहब को लेकर कुछ ज़्यादा फ़िक्रमंद हुआ जा रहा था....बहुत दिनों से उनकी खबर भी मिली नहीं थी तो अपने अंदर एक अजीब सी बेचैनी महसूस कर रहा था.....८१ के हो चुके हैं......उनकी सेहत को लेकर चिन्ता बनी रहती है.....मैं काफ़ी दिनों से सोच रहा था कि कुछ मेंहदी साहब की अमर गज़लें आपको सुनाऊँ....पर उनके बारे में कुछ भी लिखना मेरे लिये वाकई मुश्किल हो रहा था...अभी मैं सोच ही रहा था कि मित्र अशोक पान्डे अपने सुख़नसाज़ में "सब के दिल में रहता हूँ.........मेंहदी साहब पर अच्छी पोस्ट लिखी.....मैं भी कुछ अलग तरीक़े से मेंहदी साहब को याद करना चाहता था...पर मुझ जैसे भी अब अगर मेंहदी साहब के तारीफ़ क्या लिख देंगे....कि कमाल की आवाज़....गज़ब है मेहदी साहब गाने के लिये गज़लो का इंतिखाब कमाल का करते हैं,इससे ज़्यादा हम लिख भी नहीं सकते...हम तो मुरीद हैं उनके..कहिये दीवाने हैं उनके......अभी मित्र संजय पटेल जी ने उनके बारे में सुख़नसाज़ में जो बहुत अच्छे से अपने विचार रखे, मुझे लगा अब मेरा लिखना बेकार है.....बस कुछ गज़लें जो मुझे पसंद है सुनवाता चलूँ..... मेंहदी साहब की यादागार ग़ज़लों की फ़ेहरिस्त तो वैसे बहुत लम्बी है.. आज तीन से काम चलाइये..कुछ और हाथ में हैं वो बाद में सुनवाता रहुंगा..............पहली गज़ल .........शोला था जल बुझा हूँ........शायर:अहमद फ़राज़



शोला था जल बुझा हूँ हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूँ सदाएं मुझे न दो

जो ज़हर पी चुका हूँ तुम्हीं ने मुझे दिया
अब तुम तो ज़िंदगी की दुआएं मुझे न दो

ऐसा कभी न हो के पलट कर न आ सकूँ
हर बार दूर जा के सदाएँ मुझे न दो

कब मुझको ऐतराफ़\-ए\-मुहब्बत न था 'फ़राज़'
कब मैंने ये कहा था सज़ाएं मुझे न दो

दूसरी ग़ज़ल......एक बस तू ही नहीं.........शायर: फ़रहत शहज़ाद



एक बस तू ही नहीं मुझसे ख़फ़ा हो बैठा
मैंने जो संग तराशा था ख़ुदा हो बैठा

उठ के मंज़िल ही अगर आये तो शायद कुछ हो
शौक़-ए-मंज़िल तो मेरा आब्ला-पा हो बैठा

मसलह्त छीन ली क़ुव्वत-ए-ग़ुफ़्तार मगर
कुछ न कहना ही मेरा मेरी ख़ता हो बैठा

शुक्रिया ऐ मेरे क़ातिल ऐ मसीहा मेरे
ज़हर जो तूने दिया था वो दवा हो बैठा

जान-ए-शहज़ाद को मिन-जुम्ला-ए-आदा पा कर
हूक वो उट्ठी कि जी तन से जुदा हो बैठा

और ये तीसरी ग़ज़ल.....ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं...शायर हैं क़तील शिफ़ाई



ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा

तू मिला है तो ये एहसास हुआ है मुझको
ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिये थोड़ी है
इक ज़रा सा ग़म-ए-दौराँ का भी हक़ है जिस पर
मैंने वो साँस भी तेरे लिये रख छोड़ी है
तुझ पे हो जाऊँगा क़ुर्बान तुझे चाहूँगा

मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा
ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं

अपने जज़बात में नग़मात रचाने के लिये
मैंने धड़कन की तरह दिल में बसाया है तुझे
मैं तसव्वुर भी जुदाई का भला कैसे करूँ
मैंने क़िस्मत की लकीरों से चुराया है तुझे
प्यार का बन के निगेहबान तुझे चाहूँगा

मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा
ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं

तेरी हर चाप से जलते हैं ख़यालों में चिराग़
जब भी तू आये जगाता हुआ जादू आये
तुझको छू लूँ तो फ़िर ए जान-ए-तमन्ना मुझको
देर तक अपने बदन से तेरी ख़ुशबू आये
तू बहारों का है उनवान तुझे चाहूँगा

मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा
ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं

अभी बस इतना ही.....अगले पोस्ट में मेहदीं साहब की और भी बेहतरीन गज़लें सुनाने की कोशिश रहेगी।

9 comments:

Udan Tashtari said...

क्या लौटे हो गुरु ५ दिन बाद झूम कर...आह्ह!! वाह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह्ह!!!.. आनन्द आ गया...अभी एक सुनी...अब बाकी सुनता हूँ. :)

समय चक्र said...

sunakar anand aa gaya dhanyawad,

Ashok Pande said...

जारी रहे दादा! बहुत उम्दा!

उस्ताद की सलामती के लिए इस से बड़ी दुआ क्या हो सकती है.

Sajeev said...

क्या बात है लगता है जैसे सुरों की झडी सी लग गयी हैं, विमल भाई बहुत बहुत आभार, इन नायाब ग़ज़लों को सुनाने का

डॉ .अनुराग said...

आपने दिन बना दिया ....मेरी fav गजल है.....ढेरो दुआए आपको......

Manish Kumar said...

wah huzoor bahut din baad dikhai pade. teesri ghazal anuraag ki terah mujhe bhi behad pasand hai.

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी said...

बहुत शुक्रिया।

sanjay patel said...

विमल भाई
किसी भी गूलूकार की असली कमाई होते हैं उसको चाहने वाले .आप,हम सब जिस शिद्दत से ख़ाँ साहब को याद कर रहे हैं उसी पसेमंज़र उन्हीं की ग़ज़ल का शेर याद आ गया...
ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं.
मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा.

अन्यथा न लें ...
तीसरी रचना ग़ज़ल नहीं...नग़मा है
दो से ज़्यादा मिसरे जो हैं उसमें..

आप और अशोक भाई का जुनून मेहदी हसन साहब को तंदरूस्त करे...आमीन.

sanjay patel said...

और हाँ ..ये मेहदी हसन साहब की बात क्या चलती बाक़ी चीज़ें दिमाग़ से उतर ही जातीं हैं.आपने बड़ा भावुक होकर लिखा है ये पीस.
साधुवाद.
मेहंदी हसन साहब की ग़ज़लों को चाहने वाले भी बड़े भावुक होते हैं..जैसे कि आप.

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