Wednesday, July 23, 2008

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ.....मेहदी हसन

मुझे याद है सब कुछ ...खासकर दिल्ली में तिलक ब्रिज और मदर डेयरी के पीछे जब हम रहा करते थे उस दौरान ऐसा बहुत बार हुआ है, किसी शनिवार इतवार या किसी छुट्टी के दिन बारह -पन्द्रह बैचलरों की महफ़िल सजी होती थी...हार्मोनियम,तबला. एक कोने में रखा होता.....गाने वाले और साज़िन्दे हमारे मित्र ही होते....गज़ल और गीतों से सजी महफ़िल देर रात तक चलती...सुनते सुनाते कुछ लोग सो चुके होते, पर इन्हीं में कुछ लोग ऐसे भी होते जो अभी भी ग्लास हाथ मे ले जाम छलका रहे होते, ऐसे लोगों के बारे मेरे दिमाग में एक बात ज़रूर आती कि इनके पेट मे कितनी जगह है कि शाम से पीये जा रहे हैं....और अभी भी प्यासे हैं......दारु खत्म हो गई है तो आवाज़ आती कौन चलेगा मेरे साथ बदरपुर वहाँ अभी दारु मिल सकती है...., चलो बदरपुर बॉर्डर से, और दारु ले आते हैं(शायद अब दिल्ली में आसानी से दारु उपलब्ध हो) गायक और साज़िन्दों ने अभी भी खाना नहीं खाया है...वो अभी भी गाये जा रहे है.....

मेहदी हसन, गुलाम अली, मुन्नी बेग़म,फ़रीदा खानम,एहमद हुसैन -मो.हुसैन,रफ़ी,लता ,मुकेश,जगजीत-चित्रा...और बीच बीच में कुछ कविताऎं,ठुमरी,चैती, कजरी और ना जाने कितनों की गाई रचनाएं रात भर गायी जाती....अब कुछ एक लोग अपने सोने की जगह तलाश रहे हैं....कुछ लोगों को बीच से खिसका- सरका कर अपने -अपने सोने की जगह बना रहे हैं......रात काफ़ी हो चुकी है..अब कुछ लुढकने के मूड में दिख रहे हैं ...फिर भी इनमें से कुछ हैं, जो संगीत के मुरीद हैं, अभी भी मुस्तैदी से अपनी फ़र्माइश के गीत और गज़ल सुन रहे हैं , खास कर दर्द भरी गज़लें सुनने के मूड ज़्यादा हैं ,सन्नाटे में एक आवाज़ आती....वो वाली गज़ल आती है....."रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ, आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ.....मेहदी साहब ने क्या कमाल कर दित्ता यार, जब भी इस गज़ल को सुनता हूँ, लगता है मेरे लिये ही ये गज़ल लिखी गई हो" वैसे ये सिलसिला रात भर चलता.....

अब सुबह होने को है....अब बाहर से रोशनी छनकर घर के अंदर आने लगी है.. आसमान नीला हो चुका है अब जो आलम है उसमें कुछ तो सो चुके हैं,कुछ हैं जो अभी भी हारमोनियम पर अपनी उंगलियाँ टेरने में लगे हैं ,, रंजिश ही सही, आज जाने की ज़िद ना करो..चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जाने गज़ल...... को चार पाँच बार सुनाने के बाद जिसे हमने खास मेहमान के तौर पर बुलाया था, रात भर की गहमा गहमी में और कई बार एक ही गज़ल को गाते - गाते थक सा गया है.......रात भर गाते -गाते वाकई उसे खाने का मौक़ा मिला नहीं ...वैसे अब उसके लिये खाना भी नहीं बचा है.....उसके पास गरियाकर सोने के अलावा अब कोई चारा भी नहीं है.....

और लो अब नया दिन भी सर पर आ गया .......सब अपने -अपने काम के जुगाड़ में अलग अलग दिशाओं में निकल पड़े हैं,कुछ तो कब निकल गये पता ही नहीं चला,अब कमरे के असली वशिन्दे अपनी नींद सो रहे हैं ..............पूरे कमरे को लौंग शॉट में देखा जाय तो बिखरे, अस्त व्यस्त कमरे को देखकर लगता था कि रात, ज़रुर किसी का कत्ल हुआ होगा...तो लीजिये पेश है् दिल्ली के उन क़ातिल रातों को याद करते हुए, मेहदी साहब की आवाज़ में एक गज़ल " रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ....आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिये आ........ शायर अहमद फ़राज़ की लिखी इस गज़ल को मेंहदी साहब ने दो अलग अंदाज़ में गाया था, आप सुनिये और बताईये, कैसा लगा आपको उनका ये अंदाज़........








रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ,

पहल से मरासिम न सही फिर भी कभी तो
-ओ -रहे दुनिया ही नीभाने के लिए आ

किस-किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम ,
तू मुझ से खफा है तो ज़माने भी लिए आ !

कुछ तो मेरे पिन्न्दार -ऐ -मुहब्बत का भरम रख ,
तू भी तो कभी मुझ को मनाने के लिए आ !

एक उम्र से हूँ लज्ज़त-ऐ-गिरिया से भी महरूम ,
ऐ राहत-ऐ- जान मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ऐ-खुश-फ़हम को तुझ से हैं उम्मीदें,ये
आखरी शम्में भी बुझाने के लिए आ
(मरासिम : relationship; ,पिन्न्दार-ऐ-मुहब्बत : love's प्राइड,लाज्ज़त -ऐ गिरिया : joy of crying; महरूम : devoid; राहत-ऐ-जान : comfort of the soul)

इस गज़ल में दो शेर अहमद फ़राज़ साहब के नहीं हैं, इन्हे लिखा तालिब बागपती ने(Talib Baghpati) पर मेंहदी साहब इन शेरों को इसी गज़ल का हिस्सा मान कर गाते हैं ।

माना की मुह्हबत का छुपाना है मुहब्बत,
चुपके से किसी रोज़ जताने के लिए आ

जैसे तुझे आते हैं न आने के बहाने,
ऐसे ही किसी रोज़ न जाने के लिए आ

11 comments:

Ashok Pande said...

बढ़िया संस्मरण लिखा आपने विमल भाई और ख़ूब याद किया उस्ताद को. वाक़ई यह एक विकट संयोग है कि आपको भी ख़ां साहब की वैसी ही याद आ रही है जैसी मुझे.

इस संसार में आपकी उपस्थिति अब दुबारा थोड़ी नियमित होती जा रही है. अच्छा लग रहा है. बने रहें.

डॉ .अनुराग said...

aha aapne mera din bana diya.....

Udan Tashtari said...

ये तो हमें हमारी महफिलों की याद दिला गये..आनन्द आ गया सुन कर. :) आभार.

मैथिली गुप्त said...

क्या खूब विमल भाई.
हमें तो कभी एसी महफिलें नसीब नहीं हुईं!

स्वप्नदर्शी said...

thanks for these wonderful gazals.

Rajesh Joshi said...

कुछ कहा, कुछ पचा गए आप. जितना कहा, खूब कहा.... पुराने दिन क्या अब भी वहीं कहीं छिपे होंगे... पटपड़गंज के आस पास?

sanjay patel said...

विमल भाई
मैं इस ग़ज़ल को ग्लोबल ग़ज़ल कहता हूँ क्योंकि अभी जब मैं यह कमेंट लिख रहा हूँ न तब भी जान लीजिये कहीं न कहीं ये गाई जा रही है. मज़ा देखियेगा तो कि कई गाने वाले कलाकार इसे अपनी गाई हुई बता कर भी अपनी दुकान चला लेते हैं . अच्छा है इससे तो इस ग़ज़ल की उम्र ही बढ़ती है.

एक बात और ...
इस ग़ज़ल की वजह से न जाने कितने सुनने वाले ग़ज़ल की तरफ़ आए हैं

और
न जाने कितनी नई आवाज़ो को इस ग़ज़ल ने ग़ज़ल गायकी का शऊर सिखाया है.

अहसान है उस्ताद मेहंदी हसन और रंजिश ही सही का हम आप ग़ज़ल मुरीदों पर.

संस्मरण भी इस ग़ज़ल की मानिंद सुरीला है.
पद्रह अगस्त की राम राम.

डॉ. अख़लाक़ उस्मानी said...

दूसरे शे'र के दूसरे मिसरे में यूँ लिखें-
रस्म-ओ-रहे दुनिया ही निबाहने के लिए आ

शम्में को 'शम्ए'लिखिएगा। बाक़ी के लिए साधुवाद।

shree prakash said...

bhai..ye wala sher bhi to wahin se nikla tha...pata nahin kiska hai...shaharyar ka kya?

दूर तक छाए थे बादल और कहीं साया न था
इस तरह बरसात का मौसम कभी आया न था

कला कम्यून said...

रफ़्तार धीमी है लेकिन गम्भीर है...."रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ...कला कम्यून पर कुछ नया आया है..देख लें...

Unknown said...

Aaap logon ko bahut hi pyaar bhara namaskar karta hun jo ki aap itne ache aartist hai . Mujhe gulam ali ji se baat karni hai krapa karen aap sabhi ka mai bahut hi bada fhain hun................"!

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