Wednesday, December 24, 2008

१०८ है चैनल, फिर दिल बहलते क्यौं नहीं?

ये रचना नेट के माध्यम से मुझ तक पहुँची थी...मेरे मित्र अजय कुमार ने कुछ शब्दों में हेर फेर भी किया है..फिर भी कुछ कमियाँ ज़रूर हैं,ये किसकी रचना है मुझे मालूम नहीं। अब आप ही पढ़ें और बताएं कैसी है?


शहर की इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है?
जब यही जीना है दोस्तों तो फिर मरना क्या है?

पहली बारिश में लेट होने की फ़िकर है
भूल गये बारिश में भीगकर टहलना क्या है?
सीरियल के किरदारों का सारा हाल है मालूम
पर माँ का हाल पूछने की फ़ुर्सत कहाँ है

अब रेत पे नंगे पाँव टहलते क्यौं नहीं?
१०८ है चैनल फिर दिल बहलते क्यौं नहीं?
इनटरनेट की दुनियाँ के तो टच में हैं,
लेकिन पड़ोस में कौन रहता है जानते तक नहीं

मोबाईल, लैन्डलाईन,सब की भरमार है,
लेकिन जिगरी दोस्त के दिलों तक पहुँचते क्यौ नहीं?
कब डूबते हुए सूरज को देखा था याद है?
सुबह- सुबह धूप में नहाये ये याद है

तो दोस्त शहर की इस दौड़ में दौड़ के करना क्या है?
जब यही जीना है तो फिर मरना क्या है?

9 comments:

hem pandey said...

आज की भागमभाग भरी दुनियाँ का सही चित्रण है.

अमिताभ मीत said...

मालिक ! दिल बहलने की बात की, कि दहलने की ?

संगीता पुरी said...

जब यही जीना है तो फिर मरना क्या है?
बिल्‍कुल सही कहा।

Varun Kumar Jaiswal said...

जी यह मुन्नाभाई MBBS फ़िल्म से ली गई है |
पढ़वाने के लिए शुक्रिया |

VIMAL VERMA said...

मैं तो समझ रहा था कि शायद मेरे किसी अनाम मित्र ने लिखा है..खैर शुक्रिया जानकारी देने के लिये..और हमारे कुटिया में आने के लिये।

रंजन (Ranjan) said...

क्योकिं ये दिल मागें मोर!!

Unknown said...

कमियों की बात छोड़िए, रचना बहुत सुंदर है.

Unknown said...

bahut sundar sachhi bbaat kahi hai waqt nahi.

Unknown said...

ये आज की जीवन शैली का वर्णन है.हमेश कुछ और पाने की कोशिश में अपने सुनहरे अतीत में उप्लाभ्दियो को छोड़ देते है.
sandeep dubey

आज की पीढ़ी के अभिनेताओं को हिन्दी बारहखड़ी को समझना और याद रखना बहुत जरुरी है.|

  पिछले दिनों  नई  उम्र के बच्चों के साथ  Ambrosia theatre group की ऐक्टिंग की पाठशाला में  ये समझ में आया कि आज की पीढ़ी के साथ भाषाई तौर प...