न शास्त्रीय टप्पा.. न बेमतलब का गोल-गप्पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्तो, है रंगमंच तैयार..
Sunday, April 11, 2010
कवि नीरज जी की आवाज़ में... " कारवां गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे "
आज एक बहुत ही पुराना कोई गाना सुन रहा था वो गीत १९५० के आसपास का लिखा हुआ था ..जब भी इतने पुराने गानों कों सुनता हूँ तो बरबस मन ही मन सोचता हूँ की बताओ इसे किसी शायर ने या कवि ने लिखा होगा, इस रचना को लिखने में मालूम नहीं कितना समय लिया होगा पर आज पचास साल बाद भी उतना ही ताज़ा कैसे बना हुआ है? पता नहीं पर आखिर कौन सी बात है की उन गानों कों कालजयी बनाती है ?ऐसे ही एक गीत हम बहुत सुना करते थे बचपन में, वैसे तो बहुत से गीत हैं जिन्हें आज भी सुनकर मुंह से वाह तो निकल ही जाता है पर उनकी चर्चा बाद में की जाएगी अभी तो जिस मौलिक रचना को आप सुनने जा रहे हैं उसके बारे में कुछ यादे है जो आपके साथ बांटन चाहता हूं..... " कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे" रेडियो पर हमने इस गाने कों बहुत सुना है और इसी गाने के चलते हम इस फिल्म कों देखने सिनेमा हॉल तक गये थे, फ़िल्म थी "नयी उमर की नयी फ़सल" और उस गाने को गाया था मो: रफ़ी साहब ने ....ये गाना ही कुछ ऐसा था कि सुनकर पूरे शरीर मे एक अजीब सी प्रतिक्रिया होती थी .....और हम मुग्ध होकर बड़ी तल्लीनता से इसे सुनते थे और एक अरसे बाद आज भी वो गीत सुनने को मिले तो यही कहुंगा कि ऐसे गानो का आकर्षण अभी तक बना हुआ है ...।.
आज नीरज जी कि आवाज़ में इस मौलिक रचना को आप सुने .....नीरज जी का अपना अंदाज़ है पढने का,जो मुझे बहुत भाता है तो सुने और तो आनन्दित हों । वैसे बहुत दिनों बाद आपसे रूबरू होने का मौका मिला है पर मेरी यही कोशिश रहेगी कि आपसे अपने अनुभव बांटता रहूं।नीरज जी की ये आवाज़ बरास्ता मेरे अनुज गुड्डा के सौजन्य से ।
स्वप्न झरे फूल से,
मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई,
पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई,
चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई,
गीत अश्क़ बन गए,
छंद हो दफ़न गए,
साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये,
और हम झुके-झुके,
मोड़ पर रुके-रुके
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा,
क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा
इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा,
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा,
एक दिन मगर यहाँ,
ऐसी कुछ हवा चली,
लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली,
और हम लुटे-लुटे,
वक्त से पिटे-पिटे,
साँस की शराब का खुमार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ,
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ,
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ,
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ,
हो सका न कुछ मगर,
शाम बन गई सहर,
वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर,
और हम डरे-डरे,
नीर नयन में भरे,
ओढ़कर कफ़न, पड़े मज़ार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
माँग भर चली कि एक, जब नई-नई किरन,
ढोलकें धुमुक उठीं, ठुमक उठे चरण-चरण,
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन, चली दुल्हन,
गाँव सब उमड़ पड़ा, बहक उठे नयन-नयन,
पर तभी ज़हर भरी,
ग़ाज एक वह गिरी,
पुंछ गया सिंदूर तार-तार हुई चूनरी,
और हम अजान से,
दूर के मकान से,
पालकी लिये हुए कहार देखते रहे।
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे।
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25 comments:
बेहद सुंदर.
यह महज इत्तफाक ही है कि इन दिनों मैं नई उमर की नई फसल के गाने बार-बार सुन रही हूं. पिछले दिनों नीरज से मुलाकात हुई और उनके लिखे सारे गानों का दौर जेहन में ताजा हो गया. वे इन दिनों काफी कमजोर हो गये हैं. अब भी उनकी आवाज में वैसा ही जादू है. उन्हें सुनना हमेशा अच्छा लगता है. हो सके तो इस सिलसिले को आगे बढ़ाइये.
वाह !
आपका कितना आभार व्यक्त करें ...इस नायाब प्रस्तुति के लिए...!!
बहुत सुन्दर..
आह वाह कैसी कालजयी रचना ...मन करे बार बार सुनू और सुनता ही रहूँ जीवन भर -आभार !
कहानी बन कर जिए हैं इस जमाने में
सदियां लग जाएगी हमें भुलानेमें
आज भी होती है दुनिया पागल
जाने क्या बात है
नीरज के गुनगुनाने में।
नीरज की पंक्तियों के बारे में कुछ कहना सूरज का दिया दिखाने के समान है। इसलिए खुद कवि के शब्दों में ही उनकी कविता को सम्मान अर्पित कर रही हंू।
बहुत आभार भाई इसे प्रस्तुत करने का....आज तो आनन्द आ गया.
विमल भाई ,सुनवाने के लिए बहुत बहुत.
सप्रेम,
वाह !
बहुत अच्छी प्रस्तुति
bahut khub
http://kavyawani.blogspot.com/
shekhar kumawat
bahot sunder. bahot dino se niraj ko sunna chah raha tha tumhare blog per sunkar maja a gaya. mere or Jaglalji ke taraf se Kotish sneh our dhanyawd!!!!!!!!!!!!!
mujhe ummid hai niraj ki aur rachna sunne ko milege tumhare saujanya se!
bahooot sunder, maja aa gaya. maine aur Jaglalji ne sath-sath suna hai. unki taraf se bhi dhanyawad.
mere comment me ji choot gaya hai. Neeraj ji.
वाह, क्या सुन्दर गीत पढ़वाया, सुनवाया है! आजकल मैं भी इसे बहुत याद करती हूँ क्योंकि हर पल लगता है कि कारवां गुजर गया.... शायद एक उम्र के बाद यही लगता है।
घुघूती बासूती
Neeraj ji ki sabse pasandeeda kritiyon mein ek. par mujhe ise rafi sahab ki aawaaz mein sunna jyada pasand aata hai.
kya khau main , man gad gad ho ootha , ye bhi itfaq hai ki search me mujhe itna aacha blog amulay dharohar ke saath prapt hua, sadhuwad .puri THUMARI teaam ko.
aabhar
गज़ब की प्रस्तुति ! नीरज जी की आवाज में इसे सुनना बेहतरीन अनुभूति है .. !
शाएद इस मुलाक़ात से बेहतर नीरज जी से मुलाक़ात और न होगी।
वाह जवानी क्या चीज है।
Yah mera behad pasandeeta geet hai..a haunting melody..mai ise dinbhar sun sakti hun! Badi nayab rachana chuni aapne!
beautiful!!
neeraj ji ki toh duniya deewani hai .. madhu men do dete hain ..unako bhagwaan lambi se lambi umra de ..
वाह !
आपका कितना आभार व्यक्त करें ...इस नायाब प्रस्तुति के लिए...!!
बहुत सुन्दर.. dr.pankaj gupta
आज भी जिसके लिए होती है पागल कलिया....ना जाने क्या बात है नीरज के गुनगुनाने में
many many thanks
many many thanks
नीरज जी के स्वर में यह मैंने पहले भी कई सुना है पर हज़ार बार भी सुनें तो भी spell जैसा का तैसा ही रहता है...
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