अरे इस तरह गदहे-सी नौकरी कर-कर के तो उबिया गया हूं... संकट बड़ा विकट है मगर करें क्या?...
दिल बहलाने के लिये हम क्या नहीं किये! सब किये। पहले बचपन में पढाई के साथ लुक्का छिप्पी, गेंद तड़ी, इक्खट दुक्खट, सब खेल खेल के देख लिये। आखिर मन था पता नहीं उसे क्या क्या चाहिये! इनसे सबसे मन भर गया फिर आया ज़िन्दगी में क्रिकेट का मौसम। फास्ट बौलर से स्पिनर बन गये क्योकि दाल भात भुजिया खाके क्रिक्रेट और वो भी फ़ास्ट बालर? बहुत बाद में दिमाग में घुसा कि ये तो कभी हो ही नही पायेगा... पर तब तक स्कूल में ड्रामा में पार्ट लेना शुरु किया तो लगा हां, ये है जिसकी हमको तलाश थी... पर ये भी कुछ दिन का ही मेहमान रहा.. घर में किसी को पसन्द नहीं था। कहा गया कि अब ये हाल कि बेटा हमारा भांड़ बनेगा? किसी को मंज़ूर नही था तो फिर यहां से भी मन भटक गया। अब तो पढाई ही माता और पढाई ही पिता...
पर आदमी कभी जानता है कि ज़िन्दगी कहां लिये जा रही है? मुकद्दर को कुछ और ही मंज़ूर था... जब घर से थोड़ा अलग जाके मौका मिला खूब धान के नाटक, नौटंकी शुरू! ये सिलसिला लंबा चला... पर भाई ये मन है कि कहीं रमे-टिके तब ना? माने ही नहीं... तो एक दिन ये सब भी हाथ से धीरे-धीरे छूटता गया और चुपचाप पकड़ी नौकरी, दो जून के भोजन की व्यवस्था हो गई और यही से शुरू हुआ बंटाधार! अब क्या बताएं जो नही करना था वो करना पडा और धीरे धीरे अब हम परिवारजीवी हो गये!
अब हमारी एक बेटी है और हम भी उससे वही उम्मीद पाले हुए हैं जो एक समय हमारे माता-पिता ने हमसे पाल रखी थी! हम तो इधर उधर भटकते हुए नौकरीपेशा आदमी हो गये पर अब वही चिन्ता बनी हुई है कि हमारी बिटीया वही करेगी जो हम सोचेंगे? जब देखो टीवी देखती रहती है। हमेशा खेलना-खेलना... ये कोई जीवन है? ठीक से पढो, अच्छे बच्चे बनो! इतना खेलना-वेलना अब ठीक नही है तुम्हारे लिये! चलो, निकालो किताब और अपना होमवर्क पूरा करो...
फिर देखते है कि वाकई दिल लगा के पढ़ रही है... या हमें दिखा दिखा कर पढने का नाटक कर रही है? मन बड़ा किनकिना रहा है! कभी चैन मिलेगा कि नहीं?
न शास्त्रीय टप्पा.. न बेमतलब का गोल-गप्पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्तो, है रंगमंच तैयार..
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आज की पीढ़ी के अभिनेताओं को हिन्दी बारहखड़ी को समझना और याद रखना बहुत जरुरी है.|
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9 comments:
बहुत अच्छी तरह से बयान की मन की बातें।
ऐसी खूबसूरत बयानी के बाद जरुर चैन पड़ा होगा. ऐसी उम्मीद है, विमल भाई.
बंधन बड़े खूबसूरत होते हैं। ये आपको बांधते नहीं मुक्त करते हैं। बंटाधार नहीं हुआ है, यहीं से तो असल ज़िंदगी शुरू हुई है। बाकी सारा तो रियाज़ था।
Mahoday aapko malal hai ki aap jo chahte the wo nahi ban paye.lekin is banne bigadne ki prakriya me aap ne bahut swad chakhe aur aakhir me ek jimmedar pati aur pita ban gaye.ye aapko kam lagta hai?lekin is dilchasp bayani ke liye badhayi ,aapne purani yaadon me pahuncha diya.vimalji hamare jaise bahut se log aise parivesh me rahte hai jahan par roji roti ka jugad pahle hai pasand -napasand baad me ,aaj bhi waha bachcho ko salah di jaati hai ki B.A. karlo, Type Seekh lo, kahi lag jao.
Lekin is baat ka kya malal karna ki main ye nahi ban paya ya wo nahi ban paya arre khush rahiye ki aapne ek achche insaan ki jindi ji.
waise bhi Neeraj ji ke shabdo me-
Kuchch sapno ke mar jaane se
jivan nahi mara krta hai.
हमे आपका मलाल करने का तरीका अच्छा भी लगा और अजीब भी लगा।
और वो कहते है ना की कहने से दुःख कम हो जाता है। तो उम्मीद करते है की अब आपका मन खिन्न नही होगा बल्कि प्यारी बिटिया को देख कर खुश होगा।
भाई अनूपजी और उड़्नतश्तरीजी आपको मेरा आत्मालाप भला लगा इसके लिये शुक्रिया,अनिल भाई आपने ठीक कहा कि ज़िन्दगी यहीं से शुरु होती है,अजयजी आपको नीरज जी की कविता बडे समय पर याद आई, जो अच्छी लगी,और ममताजी आपकी प्रतिक्रिया अच्छी लगी....शुक्रिया
बच्ची के साथ ,टे.वि. से अलग, कुछ समय ?
विमल भाई...वर्तमान अटल है ..बस इस बात को पकड़ लीजै.मेरे पिता मुझे चार्टर्ड अकाउंटेट बनाना चाहते थे ; मैने खोल ली एडवरटाइज़िंग एजेंसी.मेरी बिटिया का गणित लाजवाब था..कंम्प्यूटर साइंस में जाती..आई.आई.टी करती ; नहीं डाँक्टर बनना है उसे..बारहवीं के बाद सारे एंट्रेंस टेस्ट में असफ़ल रही...मैने कहा अब तो लाइन बदल लो ; नहीं ड्राँप ले लिया है इस साल..स्कूल तो ख़त्म हो गया है एक कोचिंग पकड़ ली है...एक साल और धकाओ...सत्रह की है...मेडीकल में कैरियर बनने में पूरे दस साल चाहिये...उसके बाद भी प्रेक्टिस चलगी या नहीं ..क्या पता..लेकिन ज़िद है साहब..मेरे शहर के नामचीन अस्पताल में एम.बी.बी.एस. तीन हज़ार रूपल्ली की नौकरी कर रहे है.जबकि दीगर जाँब्स में लड़के-लड़्कियाँ माँ-बाप के हाथों में तीस - तीस हज़ार रूपये महीने के लाकर रख रहे हैं..पर क्या करें भाई..हमने अपने बाप की नहीं सुनी थी ...ये हमारी क्यों सुनेंगे ? ऐसा लग रहा है कि पच्चीस साल पहले जो संघर्ष था जीवन में वह अब कम होगा लेकिन औलादों के रंग-ढ़ंग से लगता है कि पचास पास आते आते..एक नया संघर्ष शुरू होगा हमारी ज़िन्दगी का...क्या कीजिये..बस मौन धरिये...वरना बी.पी.बढ़ाइये..शुगर टेस्ट करवाइये...मै सोचता था पचपन का होते होते वी.आर.एक ले लूंगा...अपना कारोबार समेट लूंगा..खू़ब संगीत सुनूंगा..जलसों में शिरक़त करूंगा...लायब्रेरियों में जाऊंगा...पत्नी के साथ यायावरी पर निकलूंगा...सब निरस्त है जीवन में विमल भाई...कल की नहीं सोच सकते...बस आज खटते रहो यही नियति है ज़िन्दगी...और हाँ जिन सहकर्मियों के साथ पच्चीस साल से काम कर रहा हूं वे इतना सम्मान देते हैं कि बता नहीं सकता...और जिनके लिये अपने आपको झोंक से काम में लगा रहा उन औलादों की मुहज़ोरी से शर्मसार होने के अलावा कर भी क्या सकता हूँ..जबकि कर्मचारी नज़रें उठा कर बात भी नहीं करते.ये विडम्बना नहीं विमल भाई...हक़ीक़त है..इसका सामना करना ही पड़ता है...ये सचाइयाँ अहसास करवातीं हैं कि हमारे वालदैन ने किस तरह से हमारी परवरिश की होगी...हमने कितना सम्मान दिया उनको..मान बढ़ाया अपनी विरासत का...हमें क्या मिलेगा...शायद ये सोचने से बेहतर है मै ये सोचूँ ..मैने क्या दिया अपने माता-पिता को ...
भाई संजय पटेलजी,
आपके अनुभव से भी सबक लिया जा सकता है और मेरे लिये बहुमूल्य भी हैं, आपका बहुत बहुत धन्यवाद.
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