अनैतिकसम्बन्ध,ईर्श्या,बदचलनी,षडयंत्र....आज की कहानियों का आधार हैं, धारावाहिकों को देख कर तो लगता है कि सकारात्मक विचारों की महिला अपने देश में हैं ही नहीं,और मर्द... बेचारा नपुंसक ! ,किसी काम का नहीं. बस उसका काम पैसा कमाना है और औरतें चाल चलचल कर सम्पत्ती हड़पने,या किसी दूसरी औरत को नीचा दिखाने में ही लगी पड़ी हैं, और आंकड़े कहते हैं कि औरतें ही है जो ज़्यादा टेलीवीज़न देखतीं हैं,और औरतें देखना भी यही सब ज़्यादा चाहती हैं,और उनको सबसे ज़्यादा सास-बहु,देवर देवरानी,जेठ जेठानी के रिश्ते की खटास वाला पक्ष ही सबसे अच्छा लगता है.....
मनोरंजन चैनलों से जो कार्यक्रम खास तौर से परोसे जा रहे है उनके नाम तो देखिये.. हमारी बेटियों का विवाह,.राजा की आएगी बारात,मेरा ससुराल,मायका,घर की बेटी लक्ष्मियाँ ,बाबुल का अंगना,डोली सजा के रखना,नागिन,सात फेरे,सुजाता,तीन बहुरानियाँ, आदि...... और भी बहुतेरे नाम हैं, इन सारे धारावाहिक में औरतें एक से एक नई डिज़ाइन के कपड़े,गहने,में सजी धजी गुनाह पर गुनाह किये जा रही है और रोती रहती हैं एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगी रहतीं हैं,बदला लेती औरत,प्यार करती औरत....क्या औरत के नाम पर यही सब अधकचरी चीज़ें रह गईं हैं दिखाने को? तो क्या हमें मान लेना चाहिये कि जो ये मनोरंजन चैनल हमारे सामने जो परोस रहे हैं...... यही हमारा समाज है?

पुरुष, बेचारा बेचारा सा दिखाता है, औरतों के इस फ़रेब के सामने असहाय बना कितना लाचार दिखता है, क्या ऐसा है?क्या कुछ ऐसा हो गया है कि पुरुष प्रधान समाज में औरतें कुछ इतना बढ़ गईं है कि पुरुष कमज़ोर होता दिख रहा है,या औरत,औरत के खिलाफ़ किसी भी साजिश को देखना सबसे ज़्यादा पसंद करतीं हैं?
एक मित्र कह रहे थे कि जब बहू अपनी सास को अपनी किसी चाल से मात दे देती है तो घर में बैठी बहू अपनी सास की तरफ़ विजयी मुस्कान से देखती है,जो बहू घर में बोल नहीं सकती उनकी आवाज़ ये चैनल होते हैं...क्या इतनी गहराई से देखा जा रहा है ये सब कुछ?
और दूसरी तरफ़ हिन्दी फ़िल्म इन्डस्ट्री का हाल ये है कि औरतो (हिरोईन) का काम एक दम स्टीरियो टाइप्ड ही रहता है...हीरो वो सब कुछ करता है जो एक आम इंसान नहीं कर सकता...
तो क्या मान लेना चाहिये कि जिसकी लाठी उसकी भैंस........टेलिवीज़न औरतों का माध्यम है और फ़िल्म पुरुषों का? आखिर कौन है जो इन्हे सही तस्वीर दिखाने से रोक रहा है?
जनता? टीआरपी?