एक अधूरी रचना जो मेरे अंदर इस चुनाव के वातावरण में रह रह कर याद आ रही थी..और खास बात कि पूरी रचना मुझे याद भी नहीं हो पा रही थी...इस विश्वास के साथ मैने पिछले पोस्ट में उस रचना को ठुमरी पर चढ़ा दी कि अपने पुराने मित्र जब पढेंगे तो इसे कम से पूरा तो ज़रूर करेंगे...और हुआ भी वैसा कि हमारे पुराने संघतिया पंकज श्रीवास्तव ने उस रचना को मेरे पास भेज दिया वैसा जैसा कि हम कभी मिलकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में गाया करते थे , दस्ता इलाहाबाद के ओस में भीगे सुहाने दिन याद आ गये, उस ज़माने की तस्वीर भी तो नहीं है कि यहां लगा देते....खैर मित्र पंकज का शुक्रिया अदा करते हुए इस रचना को दुबारा पोस्ट कर रहा हूँ...जो अब पूरी है ।
दिल्ली में दीखता है जंगल का ही नजारा
रहने को घर नहीं है, हिंदोस्तां हमारा
गुणगान हो रहा है, मालाएं पड़ रही हैं
हर शाख उल्लुओं की शक्लें उभर रही हैं
कुछ रीछ नाचते हैं, कुछ स्यार गा रहे हैं
जो जी हुजूर कुत्ते थे, दुम हिला रहे हैं।
हर खेत सांड़ चरते बैलों को नहीं चारा
रहने को घर नहीं है----
हर लोमड़ी यहां पर अंगूर खा रही है
खा पाए जो न उसको खट्टा बता रही है
अपराध तेंदुओं का खरगोश डर रहे हैं
भेड़ों की भेड़िए ही रखवाली कर रहे हैं
पिंजड़ों में सारिकाएं गिद्दों का चमन सार
रहने को घर नहीं है...
हर लॉन लाबियों में गदहे टहल रहे हैं
बिल्ली की हर अदा पर चूहे उछल रहे हैं
सांपों की बांबियों में चूहों के मामले हैं
मानेंगे न्याय करके बंदर बड़े भले हैं
हैं मगरमच्छ जब तक, क्या नदियों की धारा
रहने को घर नहीं----
सिर पर सुबह उठाए मुर्गे दिखा रहे हैं
सूरज का फर्ज क्या है, उसको बता रहे हैं
चिड़ियों के घोसलों में कौओं का संगठन है
पेड़ों को टांग उल्टा, चमगादड़ें मगन हैं
कितने ही घोसलों का बचपन है बेसहारा
रहने को घर---
लकदक पहन उजाले बगुले खड़े हुए हैं
तप से हुए हैं पैदा तप से बड़े हुए हैं
न जाल है न बंसी, फिर भी विकट मछेरे
अनजान हैं मछलियां, निकलीं बड़ी सवेरे
उनको न भंवर कोई, उनका नहीं किनारा
रहने को घर नहीं है----
ये गीत रामकुमार कृषक या कमल किशोर श्रमिक का है..तड़प उठी है तो इसका पता भी लगा लेंगे। शुक्रिया उन दिनों की याद दिलाने के लिए...हाथ में ढफली लिए मगन मन 'दस्ता'...
न शास्त्रीय टप्पा.. न बेमतलब का गोल-गप्पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्तो, है रंगमंच तैयार..
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10 comments:
अरे भईये, हम तो झूम गये पढ़कर. आह्हा!!!
Purane dino ki yaad taja ho gai. ye kavita aj ke sandarbh me bhi kitni sarthak hai.
हर लॉन लाबियों में गदहे टहल रहे हैं
बिल्ली की हर अदा पर चूहे उछल रहे हैं
सांपों की बांबियों में चूहों के मामले हैं
bahut achha laga padhkar
बहुत बढ़िया गीत प्रस्तुति बधाई .
बहुत बढिया!!बहुत जोरदार रचना प्रेषित की है।
खँजड़ी सहित प्रस्तुति न होगी ? पंकज जी को भी बधाई।
अफ़लातून
mast likahaa hai bhaai aapane
ये पोस्ट तो अच्छी है पर ये क्या हो रहा है ठुमरी में? हम क्वालिटी गीत संगीत की आशा ले कर आये थे :-(
wah bhai maza aa gaya. nayab cheez hai.mast.
विमल जी को जन्म दिन की मुबारक वाद मिले हमारी तरफ़ से
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