न शास्त्रीय टप्पा.. न बेमतलब का गोल-गप्पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्तो, है रंगमंच तैयार..
Thursday, July 15, 2010
आज १५ जुलाई प्रसिद्ध नाटककार बादल सरकार के जन्म दिन के बहाने
ठुमरी पर बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं गया, एक कारण व्यस्तता भी थी पर सिर्फ व्यस्ता ही नहीं थोड़ा मेरा आलसपन भी था या ऐसे भी सोचा जा सकता था की लिखने के लिए पर्याप्त "माल" नहीं मिल रहा था, इतने दिन वापस आने में लग गए वैसे आज सुप्रसिद्ध नाटककार बादल सरकार की ८५ वीं जन्म तिथि है तो आज मुझे उन्हें नमन करने का मौक़ा मिल गया ...उनसे मेरा भावनात्मक रिश्ता जो रहा है, मेरे रंगमंच की शुरुआत बादल सरकार की वर्कशॉप से हुई थी......आज भी मेरी आंखों के आगे वो सारे दृश्य तैरते ही रहते हैं .....खैर बादल दा की पोस्ट के बहाने कुछ बड़ी व्याख्या या विमल उवाच का कोई इरादा नहीं है मेरा, हाँ इस बहाने मैं ज़िंदा हूँ इसकी तस्दीक करना चाहता हूँ | तो आज के दिन बादल दा को तहे दिल से जन्मदिन पर रंग जगत बादल दा के स्वस्थ और सुखी जीवन का आकांक्षी है | पिछले साल भी इसी दिन मैंने बादल दा कों याद करते हुए एक पोस्ट लिखी थी उसे भी यहाँ सहेज रहा हूँ और बादल दा पर अशोक भौमिक की किताब व्यक्ति और रंगमंच को भी देखते चलें ।
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2 comments:
सुबह अशोक भौमिक का एसएमएस आया था, बादल दा के जन्मदिन की सूचना देते हुए और अब आपकी ये पोस्ट। वाकई बादल दा का हमारे बीच होना इस बौने समय में किसी उपलब्धि से कम नहीं।
1990 के इर्द-गिर्द का कोई समय था, जब अनिल भौमिक ने बादल सरकार की वर्कशॉप इलाहाबाद में कराई थी। मैं, अभय तिवारी, के.के. और दस्ता के तमाम दूसरे साथी इसमें शामिल हुए थे। तब बादल दा की उम्र 65 रही होगी, लेकिन ऊर्जा गजब की थी। खिचड़ी दाढ़ी से झांकती उनकी मुस्कान में जबरदस्त खिंचाव था। हफ्ते या दस दिन में रंगमंच की एक बिलकुल अलग दुनिया से परिचय हुआ था। भूलना मुश्किल है। आप शायद तब इलाहाबाद से दिल्ली कूच कर गए थे...क्यो तो दिन थे..
याद-ए-माजी अजाब है या रब
छीन ले मुझसे हाफिजा मेरा..
वैसे, आपने पोस्ट के साथ जो तस्वीर लगाई है, वो आजमगढ़ के हरिऔध कला भवन की लग रही है। हाल ही में एक स्टोरी के सिलसिले में आजमगढ़ जाना हुआ था। कलाभवन पहुंचा तो खंडहर देखकर दिल धक हो गया। सभागृह की कई दीवारें, खिड़कियां और छत गायब हो चुकी है...मैदान में सुअर और कुत्तों की भागम-भाग के बीच मनुष्यों का निश्चिंत होकर लघुशंका से निवृत होना काफी कुछ बता रहा था।. हरिऔध जी की वो पुरानी तस्वीर भी कबाड़ हो गई है...टूटी-फूटी दीवार पर, काफी ऊपर अभी भी टंगे हैं हिंदी को पहला प्रबंध काव्य देने वाले अयोध्या सिंह उपाध्याय..बस,फहराती सफेद दाढ़ी के बीच बड़ा हिस्सा गायब है, आंखे लगता है फोड़ दी गई है..पगड़ी है भी और नहीं भी.. सिंह और उपाध्यायों की रार में फंसे हिंदी प्रदेश में हरिऔध की परवाह कौन करे और क्यों...
बहरहाल, बादल दा शतायु हों और हिंदी पट्टी की ये दुर्दशा का नाश हो, यही दुआ है।
सबसे पहले तो ब्लाग की साज-सज्जा के लिये बधाई,
आज की यह पोस्ट बेहतरीन पोस्ट है, आभार ।
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