Monday, September 13, 2010

झूठे सपनों के छल से निकल चलती सड़कों पर आ………………………गीतकार शैलेन्द्र

पिछली पोस्ट जो शिलेन्द्र जी पर थी उसमें एक रचना मैने अधूरी पोस्ट की थी और उस पोस्ट में मित्र पंकज श्रीवास्तव का ज़िक्र मैने किया था उनकी मदद से शैलेन्द्र की इस रचना को फिर जितना हम दोनों को याद था यहां पोस्ट कर रहे हैं |

झूठे सपनों के छल से निकल चलती सड़को पर आ
अपनो से न रह दूर दूर आ कदम से कदम मिला

हम सब की मुश्किलें एक सी है भूख, रोग, बेकारी,
फिर सोच कि सबकुछ होते हुए, हम क्यौं बन चले भिखारी
क्यौं बांझ हो चली धरती, अम्बर क्यौं सूख चला,
अपनों से न रह यूं दूर दूर आ कदम से कदम मिला

ये सच है रस्ता मुश्किल है मज़िल भी पास नहीं

पर हम किस्मत के मालिक है किस्मत के दास नहीं

मज़दूर हैं हम मजबूर नहीं मर जांय जो घोंट गला

अपनों से न रह यूं दूर दूर आ कदम से कदम मिला


तू और मैं हम जैसे एक बार अगर मिल जाएं

तोपों के मुंह फिर जांय ज़ुल्म के सिंहासन हिल जांय

लूटी जिसने बच्चोंकी हँसी उस भूत का भूत भगा

अपनों से न रह यूँ दूर दूर आ कदम से कदम मिला

7 comments:

राणा प्रताप सिंह (Rana Pratap Singh) said...

वाह! बहुत सुन्दर गीत है...क्या इसकी आडियो भी है और कौन सी फिल्म का है? किसने गाया है?

pankaj srivastava said...

विमल भाई, आखिरी पैरा की पहली लाइन में एक शब्द छूटा है-अनगिन

तू और मैं हम जैसे अनगिन, इक बार अगर मिल जाएं.

एक लाइन और याद आई है...सड़कों पर पैदा हुए औऱ सड़कों पर मरे नर नारी---आगे पीछे क्या है, याद आया तो बताऊंगा।

SATYA said...

सुन्दर गीत.

शरद कोकास said...

कॉमरेड शैलेन्द्र की यह अद्भुत रचना है ।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

गठरी खोली, ठुमरी पाया
..सुंदर ब्लॉग।

मुनीश ( munish ) said...

sundar geet. abhaar.

Fineddine said...

Thanks for sharing this post very helpful article
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आज की पीढ़ी के अभिनेताओं को हिन्दी बारहखड़ी को समझना और याद रखना बहुत जरुरी है.|

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