Saturday, December 22, 2007

हीर सुनने का मन है?

भाई लोक संगीत को आज भी बजते देख यही लगता है कि भाई ये समाज जैसा भी है पर अपनी पुरानी चीज़ों को आज भी सम्हाले हुए है,आज मैं बहुत ज़्यादा लिखने के मूड में वैसे हूं नहीं, कुछ दर्द है जो आगे कभी मौका मिला तो बाटुंगा, पर एक बात ज़रूर हुई है इन दिनों कि कुछ हीर सुनने को मिली थी और मुझे लगा कि ठुमरी पर कुछ ना कुछ तो मैं सुनाता ही हूं तो क्यों ना आज हीर सुनी जाय, पहले वाली हीर में पहली आवाज़ मो. रफ़ी साहब की है और उसी में गुलाम अली साहब की एक गज़ल जो हीर की तर्ज़ पर ही गायी गई है शामिल है,और दूसरी मेहदी साहब की गाई हीर है तो तीसरी है गुलाम अली साहब की गायी हीर, और आखिर मे असा सिह मस्ताना की डोली चढ़ दे... तो आप भी इस दर्द भरे हीर को सुनिये और जिन्हें हीर के बारे में जानना है वो यहां देख सकते है


यहां प्लेयर के बांयी ओर दो बार क्लिक करके सुना जा सकता है।





4 comments:

Yunus Khan said...

हाय....विमल जी सुबह बना दी आपने ।

अफ़लातून said...

सुन कर अच्छा लगा ।

Sanjeet Tripathi said...

मस्त!!

पारुल "पुखराज" said...

vimal ji ,kal hi soch rahi thii ki heer post karuun..aapney mun ki murad puuri kar di sunvaa kar..bahut aabhaar

आज की पीढ़ी के अभिनेताओं को हिन्दी बारहखड़ी को समझना और याद रखना बहुत जरुरी है.|

  पिछले दिनों  नई  उम्र के बच्चों के साथ  Ambrosia theatre group की ऐक्टिंग की पाठशाला में  ये समझ में आया कि आज की पीढ़ी के साथ भाषाई तौर प...