फुटपाथ पे रहने वाले बालक को देखिये, पैसे के अभाव में स्कूल छूट गया पर पैसा कमाने के वास्ते छै सात भाषाएं टूटी फूटी ही सही जानता है, दु:ख भी होता है और आशचर्य भी,.... इतनी सी उमर,लेकिन महानगर में पेट पालने के लिये दूसरे पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये ही सही...भाषाएं सीखना तो उसकी मजबूरी है.....पर यही खासियत भी है.......ज़्यादा बोलने से इस वीडियो का मज़ा जाता रहेगा, तो सुनिये इस चपल बालक की चटपटी बातें..
न शास्त्रीय टप्पा.. न बेमतलब का गोल-गप्पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्तो, है रंगमंच तैयार..
Saturday, February 23, 2008
Friday, February 22, 2008
कैरेबियन चटनी में मुरली की धुन..
सुदूर कैरेबियन कबाड़खाने से कुछ कबाड लेकर आया हूँ,आज आपको कैरेबियन संगीत में भजन गाते है उसे आप यहां सुनेंगे,कैरेबियन चटनी होती है झमाझम
संगीत और मधुर कंठ, आज थोड़ा भजन सुनिये,सैम बूधराम की मस्त आवाज़ का जादू,तेज़ कैरेबियन संगीत के बीच खांटी सैम की आवाज़ कम से कम मस्त तो करेगी ही... आपको अंदर से थिरकने पर मजबूर भी कर देगी, वैसे सैम ने बहुत शानदार चटनी गाई हैं...पर चटनी में भजन जैसा कुछ सुनने को मिले तो आप कैसा महसूस करेंगे, अब ज़्यादा ठेलम ठेली के चक्कर में मज़ा जाता रहेगा तो पहले एक तो मुरलिया आप सुने और दूसरा जै जै यशोदा नंदन की...सुनिये, हम तो अपने लोक गीतो को मरते हुए देख रहे है... पर सोचिये हज़ारों मील दूर, हमारे भाई बंधू अब तक उन गानों भजनों को अपने कबाड़खाने में संजो कर रखे हुए हैं, ये क्या कम बड़ी बात है।
तो दोनो रचनाएं Sam Boodram की हैं
बाजत मुरलिया जमुना के तीरे..............
जै जै यशोदा नंदन की.....
संगीत और मधुर कंठ, आज थोड़ा भजन सुनिये,सैम बूधराम की मस्त आवाज़ का जादू,तेज़ कैरेबियन संगीत के बीच खांटी सैम की आवाज़ कम से कम मस्त तो करेगी ही... आपको अंदर से थिरकने पर मजबूर भी कर देगी, वैसे सैम ने बहुत शानदार चटनी गाई हैं...पर चटनी में भजन जैसा कुछ सुनने को मिले तो आप कैसा महसूस करेंगे, अब ज़्यादा ठेलम ठेली के चक्कर में मज़ा जाता रहेगा तो पहले एक तो मुरलिया आप सुने और दूसरा जै जै यशोदा नंदन की...सुनिये, हम तो अपने लोक गीतो को मरते हुए देख रहे है... पर सोचिये हज़ारों मील दूर, हमारे भाई बंधू अब तक उन गानों भजनों को अपने कबाड़खाने में संजो कर रखे हुए हैं, ये क्या कम बड़ी बात है।
तो दोनो रचनाएं Sam Boodram की हैं
बाजत मुरलिया जमुना के तीरे..............
जै जै यशोदा नंदन की.....
Tuesday, February 19, 2008
मेकाल हसन बैण्ड..... सुनेंगे तो मुरीद हो ही जाएंगे....

ब्लॉग पर पतनशीलता पर कुछ उच्च कोटि के अनुभव, मित्र लोग ढूंढ कर ला रहे हैं, अब बहस के बीच संगीत से मन को
हल्का करें इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है ..तो इसी बात पर आपके लिये लाया हूँ मेकाल हसन बैण्ड की दो रचनाएं ।
साथियों,मन की बात तो ये है कि जब मन अनमनाया हो तो मन को हल्का करने में संगीत की भूमिका बड़ी होती है...तो आज कुछ रचनाएं सुनिये और सुनाइये, मेरी पसन्द की दो रचनाएं सुने,ये दोनो रचनाएं . SAMPOORAN अलबम से हैं।
पहली रचना सम्पूरन (SAMPOORAN).......संगीत की हारमनी अद्भुत तो है ही....धीमें धींमें बाँसुरी की धुन समां को
बाँध कर रख देती है...और फिर जो माहौल बनता है उसे आप सुन कर ही आनन्द ले पायेंगे तो सुनिये...
दूसरी रचना दरबारी है.... कुछ यार मन बयां बयां.... ज़रा इसे सुने तो दुबारा सुने रह ना पायेंगे..
Monday, February 18, 2008
इन्हें रोज़ एक राखी सावन्त चाहिये.......
ब्लॉग जगत में भी धोनियों की कमी नहीं है,ऐसा मैं इसलिये लिख रहा हूँ कि वैसी ही स्थिति कमोबेश ब्लॉगजगत में भी आ गई है,अपनी कमी को छुपाते हुए बहस का रूख कहीं और कर देना। पर यहां ऐसे लोग खखार कर थूकने लगे हैं ये कभी सोचा ना था, सोचा था कि यहां सूकून होगा,पर इ ससुर के नाती किसी को चैन की सांस भी लेने नहीं देंगे, कोई किसी को दलित विरोधी बता कर बहस को गर्म करने के फ़िराक में है, तो कोई प्रगतिशीलता का चादर भर ओढ़े है और चीख चीख कर जताने की कोशिश में है कि वो प्रगतिशीलता को ओढ़ता बिछाता और उसी पर सोता है और उसी पर हगता मूतता है,किसको बता रहे है ये सब समझ में आता नहीं,और इन सारी कवायद के पीछे तथाकथित पत्रकार बंधुओं की संख्या ज़्यादा है, इनके दिमाग से जो इनके चैनल पर रोज़ दिखता है ये उसी सनसनी को ब्लॉग में भी आज़माने की कोशिश करते हैं, इन्हें रोज़ एक राखी सावन्त की ज़रूरत पड़ती है... अगर नहीं मिली तो किसी को भी राखी सावन्त समझकर झपट पड़ने की मंशा हमेशा बनी रहती है।
इन्ही की वजह से मुम्बई में राज ठाकरे राज ठाकरे बना......मतलब किसी भी बहस को अपनी ओर मोड़ने में ये किसी भी हद तक जा सकते है...... अगर बहस थोड़ी फ़ीकी पड़ रही हो तो किसी खौरहे कुत्ते की तरह भांति गुर्र्र्र्र्र्र्र्र्र गुर्र्र्र्र्र्र गुर्राते रहेंगे अगर बात ना बनी तो तो बेनाम टिप्पणियों से उस मुद्दे को ज़िन्दा रखने की जुगत में लगे रहेंगे.....सामाजिक चिन्ता तो ऐसे ज़ाहिर करेंगे जैसे बस अब संन्यास लें लेंगे कि मानो जनता तो इन्हीं की राह देख रही हो... छटपटा रही हो, पर किसी को क्या मालूम, ये जो भी बखेड़ा खड़ा कर रहे हैं उसका किसी जनता, किसी दलित या किसी आम आदमी से कोई लेना देना ही नहीं है... उल्टे उसकी मंशा है कि किसी भी तरह उसके ब्लॉग पर लोगों की आवाजाही बनी रहे.....बस.......! क्या इससे भी ज़्यादा कोई सोच सकता हो तो मुझे बताएं....
कुछ तो इसमें कलम के जगलर हैं इन्हें पहचानने की ज़रूरत है....जगलरी बुरी नहीं है पर उसकी दिशा? ज़रूर सही होनी चाहिये, अब आप कहेंगे कि ये कौन तय करेगा, तो मैं सिर्फ़ यही कहूंगा कि ये पाठक तय करेगा...क्योकि बिना पाठक के ब्लॉग का कोई महत्व नहीं है,और जो लोग हिट पाने के लिये ही इस खुराफ़ात में लगे है... तो उनसे मेरा कहना यही है कि बड़े दिनो बाद ब्लॉग की वजह हिन्दी में अच्छा पढ़ने और गुनने को मिल रहा है...उसको यूँ ही हवा में ना उड़ाएं, अभागे कुम्बले को देखिये सत्रह साल खेलने के बाद कप्तानी मिली,सबने सोचा था ऑस्ट्रेलिया में सब गोलमगोल हो जाएगा पर नियत का खेल देखिये, आज वहां से लौटकर उसकी गरिमा और बढी है पर धोनी साहब का जो हाल है पता ना पावें सीताराम,.. जब भारत लौटेंगे तो कितनी गरिमा रह जाएगी ये जब वो वापस आएंगे तो सबको पता चल जाएगा.......धोनी साहब को देखिये दिमाग दीपिका पर लगा है...पर बात वो देश के गौरव की करते हैं....वैसे ही अपने यहां ब्लॉग पर कुछ इससे अलहदा बात मुझे नज़र नहीं आती...किसी पर हंसना अच्छी बात है पर उसका मखौल बनाकर दल बना कर लिहो लिहो करना ये अच्छी बात नहीं है।
तो आखिरी में किसी की एक लाइन कहकर बात समाप्त करता हूँ.....सूप त सूप चलनियों हंसे....जामें बहत्तर छेद ....
इन्ही की वजह से मुम्बई में राज ठाकरे राज ठाकरे बना......मतलब किसी भी बहस को अपनी ओर मोड़ने में ये किसी भी हद तक जा सकते है...... अगर बहस थोड़ी फ़ीकी पड़ रही हो तो किसी खौरहे कुत्ते की तरह भांति गुर्र्र्र्र्र्र्र्र्र गुर्र्र्र्र्र्र गुर्राते रहेंगे अगर बात ना बनी तो तो बेनाम टिप्पणियों से उस मुद्दे को ज़िन्दा रखने की जुगत में लगे रहेंगे.....सामाजिक चिन्ता तो ऐसे ज़ाहिर करेंगे जैसे बस अब संन्यास लें लेंगे कि मानो जनता तो इन्हीं की राह देख रही हो... छटपटा रही हो, पर किसी को क्या मालूम, ये जो भी बखेड़ा खड़ा कर रहे हैं उसका किसी जनता, किसी दलित या किसी आम आदमी से कोई लेना देना ही नहीं है... उल्टे उसकी मंशा है कि किसी भी तरह उसके ब्लॉग पर लोगों की आवाजाही बनी रहे.....बस.......! क्या इससे भी ज़्यादा कोई सोच सकता हो तो मुझे बताएं....
कुछ तो इसमें कलम के जगलर हैं इन्हें पहचानने की ज़रूरत है....जगलरी बुरी नहीं है पर उसकी दिशा? ज़रूर सही होनी चाहिये, अब आप कहेंगे कि ये कौन तय करेगा, तो मैं सिर्फ़ यही कहूंगा कि ये पाठक तय करेगा...क्योकि बिना पाठक के ब्लॉग का कोई महत्व नहीं है,और जो लोग हिट पाने के लिये ही इस खुराफ़ात में लगे है... तो उनसे मेरा कहना यही है कि बड़े दिनो बाद ब्लॉग की वजह हिन्दी में अच्छा पढ़ने और गुनने को मिल रहा है...उसको यूँ ही हवा में ना उड़ाएं, अभागे कुम्बले को देखिये सत्रह साल खेलने के बाद कप्तानी मिली,सबने सोचा था ऑस्ट्रेलिया में सब गोलमगोल हो जाएगा पर नियत का खेल देखिये, आज वहां से लौटकर उसकी गरिमा और बढी है पर धोनी साहब का जो हाल है पता ना पावें सीताराम,.. जब भारत लौटेंगे तो कितनी गरिमा रह जाएगी ये जब वो वापस आएंगे तो सबको पता चल जाएगा.......धोनी साहब को देखिये दिमाग दीपिका पर लगा है...पर बात वो देश के गौरव की करते हैं....वैसे ही अपने यहां ब्लॉग पर कुछ इससे अलहदा बात मुझे नज़र नहीं आती...किसी पर हंसना अच्छी बात है पर उसका मखौल बनाकर दल बना कर लिहो लिहो करना ये अच्छी बात नहीं है।
तो आखिरी में किसी की एक लाइन कहकर बात समाप्त करता हूँ.....सूप त सूप चलनियों हंसे....जामें बहत्तर छेद ....
Thursday, February 7, 2008
Anthem Without Nation
बीती रात मुम्बई की सबसे सर्द रात में एक थी..पारा ९.२ तक पहुँच गया था, कहते हैं पिछले ४०-५० सालों में ऐसी सर्दी नहीं पड़ी थी,जितनी सर्दी ज़्यादा पड़ रही है........और ऐसे मौसम में मुम्बई में गर्मा गर्मी कुछ ज़्यादा ही दिखाई दे रही है।
ये जो मुम्बई में जो कुछ हंगामा हो रहा है,मैने अपनी नंगी आँख से भी देखा तक नहीं है.. जो कुछ भी देखा है टीवी पर ही देखा है,जो कुछ भी हुआ अफ़सोस जनक है..मेरा इस पर कोई विचार देने का इरादा तो कतई नहीं है,पर इतना तो है मुम्बई में रहते पंद्र्ह साल हो गये हैं पर कभी भी अपना अपना सा लगा नहीं, अपने इलाहाबाद को हम तो सीने से लगाए रहते है और उसी आस में हम यहां किसी सड़क के किनारे चाय की दुकान खोजकर मित्रों या परिवार के संग तबियत से बैठकर चाय की चुस्की ले लें तभी मज़ा आ जाता है ,पर यहां मुम्बई का रगड़ा पेटिस,उसल पाव,मिसल पाव, पव भाजी आजतक मुझे भाया नहीं,यहाँ वड़ा पाव भी कभी कभी ही खाने मन करता है....पर खाने के बाद पेट की ऐसी तैसी वो अलग ।
और अब ठाकरे की मेहरबानी से वस्तुस्थिति पता चल रही है सबकुछ देख कर लगा कि मराठी भाइयों के दिल में कुछ तो पक रहा था काफ़ी दिनों से, और मीडिया के हवा देने पर इतना कुछ हो गया फिर भी राज को व्यापक जनसमर्थन नहीं प्राप्त है , ये देखकर अच्छा लगा ...... पिछले दिनों एक बात तो लग रही थी, जब ये देखा की पूरब के भाई लोग सर पर टोकरी रख कर सब्ज़ी या मछली घर घर बेच रहे थे तो स्थानीय लोगों के विरोधी स्वर सुनाई दे रहे थे... पर लगा देखो ये सब पैसे के लिये कितना मेहनत करते हैं.. और स्थानीय लोग थोड़ा अपना रूआब रखते हुए.. घर घर जाकर माल बेचना पसन्द भी नहीं करते...लेकिन इनकी कमाई देखकर स्थानीय लोगों में असन्तोष साफ़ दिखा....पर यहां नौकरी-पेशा लोगों में इतना वैमन्यस्यता तो मुझे दिखाई नहीं देती।
मीडिया के कुछ ज़्यादा ही सनसनी फैला्ने से हम यहां मुम्बई मे रहकर थोड़ा असुरक्षित महसूस करने लगे हैं, जिन घटनाओं को मैने टीवी पर देखा टैक्सी वाले को मार खाते हुए,खोमचे वाले का सारा माल सड़क पर फैला है खूब अच्छे से लोग उस खोमचे वाले की धुनाई कर रहे है,या देखा लोकल ट्रेन में किसी कमज़ोर आदमी को पिटते हुए....तो बड़ी ग्लानि हो रही थी, आखिर हम कैसी जगह रहते हैं?कैसे लोगों के बीच हमें रहना पड़ रहा है, जो अपनी बदहाली के लिये दुष्मन को चिन्हित ही नहीं कर पा रहे और आस पास के लोगों पर अपना गुस्सा उतार रहे हैं, बेरोज़गारी,और भाषा के नाम पर उलझे पड़े है.. पर इसके ज़िम्मेदार लोग राज ठाकरे को थोड़ा चढ़ाकर शिवसेना के टक्कर मे लाकर वोट को कुछ इस तरह बाँट देना चाहते हैं कि फिर से चुनाव में वोट की फ़सल काट सकें,और लोग लड़ते रहें,सरकार है कि मुस्कुरा रही है ।
कैसे हो गए हैं हम? कहाँ गई मुम्बई की स्पिरिट? सब समन्दर में समां गई क्या,?या जो कुछ अनामदास जी ने लिखा उसमें मज़ा ही ढूढते रहेंगे या इसका कोई हल भी सुझाएंगे? पर मैं तो इन सब पचड़ों में कहीं से पड़ने वाला नहीं, पता नहीं अभी और क्या क्या करना है.बीवी बच्चे माँ भाई और अपने लिये ही तो सब कुछ कर रहे हैं, तो जिनको सलाह देनी है वो दें, जिन्हें मज़ा लेना है वो लें,उन्हें रोकने वाला मैं कौन होता होता हूँ ................यही सब देख कर इन्ही मौज़ू पर एक गीत सुना था कभी, आज थोड़ा प्रासंगिक सा लगता है आप भी सुनिये... ...ANTHEM WITHOUT NATION शीर्षक से गीत Nitin Sawhaney की आवाज़ में है नितिन को मैने बहुत ज़्यादा सुना तो नहीं है पर आप सुनकर बताइयेगा यही उम्मीद करता हूँ, , तो मैं तो चला अपने काम धंधे पर ...पर जाते जाते .टी वी पत्रकारिता से जुड़े मेरे पुराने मित्र पंकज श्रीवास्तव की एक कविता जो उन्होने बीस साल पहले कही थी ....
दर्द में डूबे हुए दिन सर्द बड़ी राते हैं
मन को कितना समझाएं
बाते तो बातें हैं........
पर नितिन के गीत को सुनने से पहले एक शेर....... पन्द्रह साल मुम्बई मे रहकर भी ये शहर अपना सा नहीं लगता ।
ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ
अपना शहर होता तो घर गए होते
पले बढे़,इस ज़मीन पे हम जवान हुए
ये ना पूछो हमारे कैसे इम्तिहान हुए
पड़ा जिसे भी उस जुबान को अपना समझा
के हमने दिल से सब जहान को अपना समझा
ज़मीन से ले के आसमान को अपना समझा
सुना ये देश बेगाना है तो,हैरान हुए
पले बढ़े जो इस ज़मीन पे हम जवान हुए....
कदम कदम पे दो राहें समाजों के मिले
के हमसफ़र अलग- अलग से,रिवाज़ों के मिले
के रास्ते न हमें अपने अंदाज़ों के मिले
अजीब हादसे सफ़र के दरम्यान हुए
पले बढ़े इस ज़मीं पे हम जवान हुए
हमारी पाक मोहब्बत किसी को रास नहीं
हमें तो प्यार कि किसी से भी कोई आस नहीं
के क्या है इनमें अभी हमारे पास नहीं
ये सोचकर हम अक्सर ही परेशान हुए
पले बढ़े.इस ज़मीन पे हम जवान हुए
ये ना पूछो हमारे कैसे इम्तिहान हुए
ये जो मुम्बई में जो कुछ हंगामा हो रहा है,मैने अपनी नंगी आँख से भी देखा तक नहीं है.. जो कुछ भी देखा है टीवी पर ही देखा है,जो कुछ भी हुआ अफ़सोस जनक है..मेरा इस पर कोई विचार देने का इरादा तो कतई नहीं है,पर इतना तो है मुम्बई में रहते पंद्र्ह साल हो गये हैं पर कभी भी अपना अपना सा लगा नहीं, अपने इलाहाबाद को हम तो सीने से लगाए रहते है और उसी आस में हम यहां किसी सड़क के किनारे चाय की दुकान खोजकर मित्रों या परिवार के संग तबियत से बैठकर चाय की चुस्की ले लें तभी मज़ा आ जाता है ,पर यहां मुम्बई का रगड़ा पेटिस,उसल पाव,मिसल पाव, पव भाजी आजतक मुझे भाया नहीं,यहाँ वड़ा पाव भी कभी कभी ही खाने मन करता है....पर खाने के बाद पेट की ऐसी तैसी वो अलग ।
और अब ठाकरे की मेहरबानी से वस्तुस्थिति पता चल रही है सबकुछ देख कर लगा कि मराठी भाइयों के दिल में कुछ तो पक रहा था काफ़ी दिनों से, और मीडिया के हवा देने पर इतना कुछ हो गया फिर भी राज को व्यापक जनसमर्थन नहीं प्राप्त है , ये देखकर अच्छा लगा ...... पिछले दिनों एक बात तो लग रही थी, जब ये देखा की पूरब के भाई लोग सर पर टोकरी रख कर सब्ज़ी या मछली घर घर बेच रहे थे तो स्थानीय लोगों के विरोधी स्वर सुनाई दे रहे थे... पर लगा देखो ये सब पैसे के लिये कितना मेहनत करते हैं.. और स्थानीय लोग थोड़ा अपना रूआब रखते हुए.. घर घर जाकर माल बेचना पसन्द भी नहीं करते...लेकिन इनकी कमाई देखकर स्थानीय लोगों में असन्तोष साफ़ दिखा....पर यहां नौकरी-पेशा लोगों में इतना वैमन्यस्यता तो मुझे दिखाई नहीं देती।
मीडिया के कुछ ज़्यादा ही सनसनी फैला्ने से हम यहां मुम्बई मे रहकर थोड़ा असुरक्षित महसूस करने लगे हैं, जिन घटनाओं को मैने टीवी पर देखा टैक्सी वाले को मार खाते हुए,खोमचे वाले का सारा माल सड़क पर फैला है खूब अच्छे से लोग उस खोमचे वाले की धुनाई कर रहे है,या देखा लोकल ट्रेन में किसी कमज़ोर आदमी को पिटते हुए....तो बड़ी ग्लानि हो रही थी, आखिर हम कैसी जगह रहते हैं?कैसे लोगों के बीच हमें रहना पड़ रहा है, जो अपनी बदहाली के लिये दुष्मन को चिन्हित ही नहीं कर पा रहे और आस पास के लोगों पर अपना गुस्सा उतार रहे हैं, बेरोज़गारी,और भाषा के नाम पर उलझे पड़े है.. पर इसके ज़िम्मेदार लोग राज ठाकरे को थोड़ा चढ़ाकर शिवसेना के टक्कर मे लाकर वोट को कुछ इस तरह बाँट देना चाहते हैं कि फिर से चुनाव में वोट की फ़सल काट सकें,और लोग लड़ते रहें,सरकार है कि मुस्कुरा रही है ।
कैसे हो गए हैं हम? कहाँ गई मुम्बई की स्पिरिट? सब समन्दर में समां गई क्या,?या जो कुछ अनामदास जी ने लिखा उसमें मज़ा ही ढूढते रहेंगे या इसका कोई हल भी सुझाएंगे? पर मैं तो इन सब पचड़ों में कहीं से पड़ने वाला नहीं, पता नहीं अभी और क्या क्या करना है.बीवी बच्चे माँ भाई और अपने लिये ही तो सब कुछ कर रहे हैं, तो जिनको सलाह देनी है वो दें, जिन्हें मज़ा लेना है वो लें,उन्हें रोकने वाला मैं कौन होता होता हूँ ................यही सब देख कर इन्ही मौज़ू पर एक गीत सुना था कभी, आज थोड़ा प्रासंगिक सा लगता है आप भी सुनिये... ...ANTHEM WITHOUT NATION शीर्षक से गीत Nitin Sawhaney की आवाज़ में है नितिन को मैने बहुत ज़्यादा सुना तो नहीं है पर आप सुनकर बताइयेगा यही उम्मीद करता हूँ, , तो मैं तो चला अपने काम धंधे पर ...पर जाते जाते .टी वी पत्रकारिता से जुड़े मेरे पुराने मित्र पंकज श्रीवास्तव की एक कविता जो उन्होने बीस साल पहले कही थी ....
दर्द में डूबे हुए दिन सर्द बड़ी राते हैं
मन को कितना समझाएं
बाते तो बातें हैं........
पर नितिन के गीत को सुनने से पहले एक शेर....... पन्द्रह साल मुम्बई मे रहकर भी ये शहर अपना सा नहीं लगता ।
ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ
अपना शहर होता तो घर गए होते
पले बढे़,इस ज़मीन पे हम जवान हुए
ये ना पूछो हमारे कैसे इम्तिहान हुए
पड़ा जिसे भी उस जुबान को अपना समझा
के हमने दिल से सब जहान को अपना समझा
ज़मीन से ले के आसमान को अपना समझा
सुना ये देश बेगाना है तो,हैरान हुए
पले बढ़े जो इस ज़मीन पे हम जवान हुए....
कदम कदम पे दो राहें समाजों के मिले
के हमसफ़र अलग- अलग से,रिवाज़ों के मिले
के रास्ते न हमें अपने अंदाज़ों के मिले
अजीब हादसे सफ़र के दरम्यान हुए
पले बढ़े इस ज़मीं पे हम जवान हुए
हमारी पाक मोहब्बत किसी को रास नहीं
हमें तो प्यार कि किसी से भी कोई आस नहीं
के क्या है इनमें अभी हमारे पास नहीं
ये सोचकर हम अक्सर ही परेशान हुए
पले बढ़े.इस ज़मीन पे हम जवान हुए
ये ना पूछो हमारे कैसे इम्तिहान हुए
Tuesday, February 5, 2008
अब्राहम लिंकन का पत्र....... पुत्र के शिक्षक के नाम...
कुछ ऐसी चीज़ पढ़ लें कि काफ़ी दिनों तक वो आपके दिमाग पर छाई रहती है,वैसे ही ये कविता भी आपके ऊपर अपनी पकड़ कम से कम लम्बे समय तक बनाई रखेगी ...अरविन्द गुप्ता का काम काबिले तारीफ़ है,कि बच्चो के लिये उनके यहां इतना कुछ है कि समझ नहीं आता उन्होंने इतना कुछ किस तरह किया है, ये कविता भी उन्ही के सौजन्य से आप तक पहुँचा रहा हूँ...
हे शिक्षक !
मैं जानता हूँ और मानता हूँ
कि न तो हर आदमी सही होता है
और न ही होता है सच्चा;
किंतु तुम्हें सिखाना होगा कि
कौन बुरा है और कौन अच्छा |
दुष्ट व्यक्तियों के साथ साथ आदर्श प्रणेता भी होते हैं,
स्वार्थी राजनीतिज्ञों के साथ समर्पित नेता भी होते हैं;
दुष्मनों के साथ - साथ मित्र भी होते हैं,
हर विरूपता के साथ सुन्दर चित्र भी होते हैं |
समय भले ही लग जाय,पर
यदि सिखा सको तो उसे सिखाना
कि पाये हुए पाँच से अधिक मूल्यवान-
स्वयं एक कमाना |
पाई हुई हार को कैसे झेले,उसे यह भी सिखाना
और साथ ही सिखाना,जीत की खुशियाँ मनाना |
यदि हो सके तो ईर्ष्या या द्वेष से परे हटाना
और जीवन में छिपी मौन मुस्कान का पाठ पठाना |
जितनी जल्दी हो सके उसे जानने देना
कि दूसरों को आतंकित करने वाला स्वयं कमज़ोर होता है
वह भयभीत व चिंतित है
क्योंकि उसके मन में स्वयं चोर छिपा होता है |
उसे दिखा सको तो दिखाना-
किताबों में छिपा खजाना |
और उसे वक्त देना चिंता करने के लिये....
कि आकाश के परे उड़ते पंछियों का आह्लाद,
सूर्य के प्रकाश में मधुमक्खियों का निनाद,
हरी- भरी पहाड़ियों से झाँकते फूलों का संवाद,
कितना विलक्षण होता है- अविस्मरणीय...अगाध...
उसे यह भी सिखाना-
धोखे से सफ़लता पाने से असफ़ल होना सम्माननीय है |
और अपने विचारों पर भरोसा रखना अधिक विश्व्सनीय है!
चाहें अन्य सभी उनको गलत ठहरायें
परन्तु स्वयं पर अपनी आस्था बनी रहे यह भी विचारणीय है |
उसे यह भी सिखाना कि वह सदय के साथ सदय हो,
किंतु कठोर के साथ हो कठोर |
और लकीर का फ़कीर बनकर,
उस भीड़ के पीछे न भागे जो करती हो-निरर्थक शोर |
उसे सिखाना
कि वह सबकी सुनते हुए अपने मन की भी सुन सके,
हर तथ्य को सत्य की कसौटी पर कसकर गुन सके |
यदि सिखा सको तो सिखाना कि वह दुख: में भी मुस्कुरा सके,
घनी वेदना से आहत हो, पर खुशी के गीत गा सके |
उसे ये भी सिखाना कि आँसू बहते हों तो बहने दें,
इसमें कोई शर्म नहीं...कोई कुछ भी कहता हो... कहने दो |
उसे सिखाना-
वह सनकियों को कनखियों से हंसकर टाल सके
पर अत्यन्त मृदुभाषी से बचने का ख्याल रखे |
वह अपने बाहुबल व बुद्धिबल क अधिकतम मोल पहचान पाए
परन्तु अपने ह्रदय व आत्मा की बोली न लगवाए |
वह भीड़ के शोर में भी अपने कान बन्द कर सके
और स्वत: की अंतरात्मा की यही आवाज़ सुन सके;
सच के लिये लड़ सके और सच के लिये अड़ सके |
उसे सहानुभूति से समझाना
पर प्यार के अतिरेक से मत बहलाना |
क्योंकि तप-तप कर ही लोहा खरा बनता है.
ताप पाकर ही सोना निखरता है |
उसे साहस देना ताकि वह वक्त पड़ने पर अधीर बने
सहनशील बनाना ताकि वह वीर बने |
उसे सिखाना कि वह स्वयं पर असीम विश्वास करे,
ताकि समस्त मानव जाति पर भरोसा व आस धरे |
यह एक बड़ा-सा लम्बा-चौड़ा अनुरोध है
पर तुम कर सकते हो,क्या इसका तुम्हें बोध है?
मेरे और तुम्हारे... दोनों के साथ उसका रिश्ता है;
सच मानो, मेरा बेटा एक प्यारा- सा नन्हा सा फ़रिश्ता है |
( हिन्दी अनुवाद मधु पंत अगस्त २००४)
हे शिक्षक !
मैं जानता हूँ और मानता हूँ
कि न तो हर आदमी सही होता है
और न ही होता है सच्चा;
किंतु तुम्हें सिखाना होगा कि
कौन बुरा है और कौन अच्छा |
दुष्ट व्यक्तियों के साथ साथ आदर्श प्रणेता भी होते हैं,
स्वार्थी राजनीतिज्ञों के साथ समर्पित नेता भी होते हैं;
दुष्मनों के साथ - साथ मित्र भी होते हैं,
हर विरूपता के साथ सुन्दर चित्र भी होते हैं |
समय भले ही लग जाय,पर
यदि सिखा सको तो उसे सिखाना
कि पाये हुए पाँच से अधिक मूल्यवान-
स्वयं एक कमाना |
पाई हुई हार को कैसे झेले,उसे यह भी सिखाना
और साथ ही सिखाना,जीत की खुशियाँ मनाना |
यदि हो सके तो ईर्ष्या या द्वेष से परे हटाना
और जीवन में छिपी मौन मुस्कान का पाठ पठाना |
जितनी जल्दी हो सके उसे जानने देना
कि दूसरों को आतंकित करने वाला स्वयं कमज़ोर होता है
वह भयभीत व चिंतित है
क्योंकि उसके मन में स्वयं चोर छिपा होता है |
उसे दिखा सको तो दिखाना-
किताबों में छिपा खजाना |
और उसे वक्त देना चिंता करने के लिये....
कि आकाश के परे उड़ते पंछियों का आह्लाद,
सूर्य के प्रकाश में मधुमक्खियों का निनाद,
हरी- भरी पहाड़ियों से झाँकते फूलों का संवाद,
कितना विलक्षण होता है- अविस्मरणीय...अगाध...
उसे यह भी सिखाना-
धोखे से सफ़लता पाने से असफ़ल होना सम्माननीय है |
और अपने विचारों पर भरोसा रखना अधिक विश्व्सनीय है!
चाहें अन्य सभी उनको गलत ठहरायें
परन्तु स्वयं पर अपनी आस्था बनी रहे यह भी विचारणीय है |
उसे यह भी सिखाना कि वह सदय के साथ सदय हो,
किंतु कठोर के साथ हो कठोर |
और लकीर का फ़कीर बनकर,
उस भीड़ के पीछे न भागे जो करती हो-निरर्थक शोर |
उसे सिखाना
कि वह सबकी सुनते हुए अपने मन की भी सुन सके,
हर तथ्य को सत्य की कसौटी पर कसकर गुन सके |
यदि सिखा सको तो सिखाना कि वह दुख: में भी मुस्कुरा सके,
घनी वेदना से आहत हो, पर खुशी के गीत गा सके |
उसे ये भी सिखाना कि आँसू बहते हों तो बहने दें,
इसमें कोई शर्म नहीं...कोई कुछ भी कहता हो... कहने दो |
उसे सिखाना-
वह सनकियों को कनखियों से हंसकर टाल सके
पर अत्यन्त मृदुभाषी से बचने का ख्याल रखे |
वह अपने बाहुबल व बुद्धिबल क अधिकतम मोल पहचान पाए
परन्तु अपने ह्रदय व आत्मा की बोली न लगवाए |
वह भीड़ के शोर में भी अपने कान बन्द कर सके
और स्वत: की अंतरात्मा की यही आवाज़ सुन सके;
सच के लिये लड़ सके और सच के लिये अड़ सके |
उसे सहानुभूति से समझाना
पर प्यार के अतिरेक से मत बहलाना |
क्योंकि तप-तप कर ही लोहा खरा बनता है.
ताप पाकर ही सोना निखरता है |
उसे साहस देना ताकि वह वक्त पड़ने पर अधीर बने
सहनशील बनाना ताकि वह वीर बने |
उसे सिखाना कि वह स्वयं पर असीम विश्वास करे,
ताकि समस्त मानव जाति पर भरोसा व आस धरे |
यह एक बड़ा-सा लम्बा-चौड़ा अनुरोध है
पर तुम कर सकते हो,क्या इसका तुम्हें बोध है?
मेरे और तुम्हारे... दोनों के साथ उसका रिश्ता है;
सच मानो, मेरा बेटा एक प्यारा- सा नन्हा सा फ़रिश्ता है |
( हिन्दी अनुवाद मधु पंत अगस्त २००४)
Sunday, February 3, 2008
ब्लॉग जगत एक मिथ्या है....
मौज मिथ्या है, मौज पर उबलने वाले मिथ्या हैं, गिरी हुई लड़की मिथ्या है और उस गिरी हुई पर जो नल खोलकर कीचड़ गिरा रहे हैं वह भी मिथ्या ही हैं. हम यूं ही फूलते रहते हैं, सच्चाई है ब्लॉग में बिरादरी मिथ्या है.... जो है गुटबाजी है, आत्मप्रशंसा है, और एक दूसरे की पीठ खुजाने का सुख है!!! ये फुरसतिया जी कोई मिथ्या से कम नहीं.. और रेलगाड़ी वाले ज्ञानदत्त की तो मत ही पूछिये... ये ब्लॉग जबसे आया है पता नहीं आने के पहले लोग अपनी बात कैसे सम्प्रेषित करते थे. खाली समय करते क्या थे..? मन मुताबिक टिप्पणी कैसे पाया जाय का महत्वपूर्ण काम हाथ में नहीं रहता था तो हाथ के टाईम का आखिर करते क्या थे?... पर नादान लोग ये नहीं जानते कि टिप्पणी भी मिथ्या है..... किसी ने कहा है.... जिनके घर शीशे के होते हैं वो बत्ती बंद करके कपड़ा बदलते हैं.. घर में पत्नी को प्रभावित करने के लिये ब्लॉग पर पत्नी के बारे में चार लाइन ठेल देना भी मिथ्या से कम है भला? अब ज्ञानदत्त जी को ही देखिये क्या क्या लिखते रहते हैं. अपनी अफ़सरी पर उनका इतराना , वो तो ठीक है, कुछ मामलों में तो अम्पायर स्टीव बकनर टाईप अंट शंट लिखने के बाद थोड़ा मांड्वाली करते नज़र आते है........कि अभय जी आपको लगी तो नहीं........ ..... अगर लग गई हो तो चिन्ता की कोई बात नहीं रेलवे अस्पताल से टिन्चराइडिन मंगवा सकता हूँ.... अरे अभय बाबू इतना तो रुतबा है इस रेलवे विभाग में.
कभी-कभी लगता है किसी विषय पर लोग दो काम की बात करेंगे, मन में नये विचारों का कोई भाव उपजेगा, तो वह भी ससुर मिथ्या ही है!!! अब देखिये ना फ़ुरसतियाजी को रोज़ रोज़ तो पोस्ट लिखते नहीं है.. पर वो भी हिट पाने का लोभ करें ये बात सरासर गलत है.... ब्लॉग के पितामह पिरामिड जाने क्या-क्या जो ठहरे....पर लिखते क्या हैं मिथ्या... उनके लिखे से किसी को क्या फ़र्क पड़ता है.... पर खलिया उदासी में लेटा मन मानता कहां है ..... सो उन्होने भी कुछ चेप दिया...... कुछ लोगो का आंकलन कर दिया और उनको लगा मज़ा ले लिये पर वो जानते नहीं कि सब मिथ्या है, जैसे भारतीय क्रिकेट टीम की जीत मिथ्या है., अब देखिये ना अनामदास जी ने एक चिन्ता से हमें वाकिफ़ कराया वहीं एक सज्जन और ट्पक पड़े और वो वहीं बाऊंड्री से उन्होंने निदा फ़ाज़ली से वाकिफ़ करा दिया... अभी अनामदास कुछ कहते तो उन्होने अपने से वाकिफ़ करा दिया कि हज़ारों शीर्षक उनकी टांग के नीचे से गुज़र चुका है!.... पर मुख्य मुद्दा खा गये. शैलेन्द्र की लिखी एक लाइन याद आ रही है....
ये गम के और चार दिन
सितम के और चार दिन
ये दिन भी जायेंगे गुज़र,
गुज़र गये हज़ार दिन
देख लीजिये जनवरी का महीना भी बीतै गया... और हम क्या कर रहे है? जिनको हम सुना रहे है.. वही काम भी कर रहे है.....अब आप मेरी बात नहीं माने ये अलग बात है, पर कुछ लोग ब्लॉगजगत पर झंडा गाड़ने पर अमादा हैं कि जभी भी हिन्दी ब्लॉगिग की बात चले तो ससुरा अगर हमारा नाम नही आया तो लानत है....मैं जानता जनता हूं आप मेरे लिखे पर हंस रहे होंगे... तो ये मत समझिये कि आपके वाह वाह की टिप्पणी करने वाला इसलिये आपके पास नही जाता कि आपके लेखन से वो प्रभावित है.... बल्कि वो तो आपको बताना चाहता है कि भाई हम भी हैं दर्ज़ कर लो.... वर्ना क्या है कि जो यहां फूल-फूलके प्रशंसा करते और लेते फिर रहे हैं उनको मैं एक बार फिर बता देना चाहता हूं कि भाई लोग, ये ब्लॉग संसार एक मिथ्या है......यहां सब अच्छा दिखना चाहते हैं वो चाहे फ़ुरसतिया जी हों चाहे अभय... चाहे समीर लाल हो चाहे अज़दक.. चाहे एक हिदोस्तान की डायरी वाले सज्जन हों चाहे टूटी भिखरी वाले...... सबसे अनुरोध है टिप्पणी वाले माल की नहीं, मुद्दे पर बात करें... या ना करें..........पर इतना ज़रूर है सब को लपड़्झन्ना ना समझे... सबके सीने में कोमल कोमल दिल है! जब दिल से लिखियेगा तो किसी के पोस्ट का उद्धरण दे देकर मौज लेना बेमानी लगेगा.... क्योकि आप तो जनबे करते है सब मिथ्या है.....मिथ्या और माया केहु के हाथ ना आवेगी... बतरस में मज़ा है, ये तो ठीक है पर ज़्यादा हो तो सज़ा है, और सज़ा किसे मंज़ूर है........... गाल बजाने वाले बहुत हैं,गलचौर भी मिथ्या है.... अब हम क्या बताएं बस जानिये!!!!
कभी-कभी लगता है किसी विषय पर लोग दो काम की बात करेंगे, मन में नये विचारों का कोई भाव उपजेगा, तो वह भी ससुर मिथ्या ही है!!! अब देखिये ना फ़ुरसतियाजी को रोज़ रोज़ तो पोस्ट लिखते नहीं है.. पर वो भी हिट पाने का लोभ करें ये बात सरासर गलत है.... ब्लॉग के पितामह पिरामिड जाने क्या-क्या जो ठहरे....पर लिखते क्या हैं मिथ्या... उनके लिखे से किसी को क्या फ़र्क पड़ता है.... पर खलिया उदासी में लेटा मन मानता कहां है ..... सो उन्होने भी कुछ चेप दिया...... कुछ लोगो का आंकलन कर दिया और उनको लगा मज़ा ले लिये पर वो जानते नहीं कि सब मिथ्या है, जैसे भारतीय क्रिकेट टीम की जीत मिथ्या है., अब देखिये ना अनामदास जी ने एक चिन्ता से हमें वाकिफ़ कराया वहीं एक सज्जन और ट्पक पड़े और वो वहीं बाऊंड्री से उन्होंने निदा फ़ाज़ली से वाकिफ़ करा दिया... अभी अनामदास कुछ कहते तो उन्होने अपने से वाकिफ़ करा दिया कि हज़ारों शीर्षक उनकी टांग के नीचे से गुज़र चुका है!.... पर मुख्य मुद्दा खा गये. शैलेन्द्र की लिखी एक लाइन याद आ रही है....
ये गम के और चार दिन
सितम के और चार दिन
ये दिन भी जायेंगे गुज़र,
गुज़र गये हज़ार दिन
देख लीजिये जनवरी का महीना भी बीतै गया... और हम क्या कर रहे है? जिनको हम सुना रहे है.. वही काम भी कर रहे है.....अब आप मेरी बात नहीं माने ये अलग बात है, पर कुछ लोग ब्लॉगजगत पर झंडा गाड़ने पर अमादा हैं कि जभी भी हिन्दी ब्लॉगिग की बात चले तो ससुरा अगर हमारा नाम नही आया तो लानत है....मैं जानता जनता हूं आप मेरे लिखे पर हंस रहे होंगे... तो ये मत समझिये कि आपके वाह वाह की टिप्पणी करने वाला इसलिये आपके पास नही जाता कि आपके लेखन से वो प्रभावित है.... बल्कि वो तो आपको बताना चाहता है कि भाई हम भी हैं दर्ज़ कर लो.... वर्ना क्या है कि जो यहां फूल-फूलके प्रशंसा करते और लेते फिर रहे हैं उनको मैं एक बार फिर बता देना चाहता हूं कि भाई लोग, ये ब्लॉग संसार एक मिथ्या है......यहां सब अच्छा दिखना चाहते हैं वो चाहे फ़ुरसतिया जी हों चाहे अभय... चाहे समीर लाल हो चाहे अज़दक.. चाहे एक हिदोस्तान की डायरी वाले सज्जन हों चाहे टूटी भिखरी वाले...... सबसे अनुरोध है टिप्पणी वाले माल की नहीं, मुद्दे पर बात करें... या ना करें..........पर इतना ज़रूर है सब को लपड़्झन्ना ना समझे... सबके सीने में कोमल कोमल दिल है! जब दिल से लिखियेगा तो किसी के पोस्ट का उद्धरण दे देकर मौज लेना बेमानी लगेगा.... क्योकि आप तो जनबे करते है सब मिथ्या है.....मिथ्या और माया केहु के हाथ ना आवेगी... बतरस में मज़ा है, ये तो ठीक है पर ज़्यादा हो तो सज़ा है, और सज़ा किसे मंज़ूर है........... गाल बजाने वाले बहुत हैं,गलचौर भी मिथ्या है.... अब हम क्या बताएं बस जानिये!!!!
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