बीती रात मुम्बई की सबसे सर्द रात में एक थी..पारा ९.२ तक पहुँच गया था, कहते हैं पिछले ४०-५० सालों में ऐसी सर्दी नहीं पड़ी थी,जितनी सर्दी ज़्यादा पड़ रही है........और ऐसे मौसम में मुम्बई में गर्मा गर्मी कुछ ज़्यादा ही दिखाई दे रही है।
ये जो मुम्बई में जो कुछ हंगामा हो रहा है,मैने अपनी नंगी आँख से भी देखा तक नहीं है.. जो कुछ भी देखा है टीवी पर ही देखा है,जो कुछ भी हुआ अफ़सोस जनक है..मेरा इस पर कोई विचार देने का इरादा तो कतई नहीं है,पर इतना तो है मुम्बई में रहते पंद्र्ह साल हो गये हैं पर कभी भी अपना अपना सा लगा नहीं, अपने इलाहाबाद को हम तो सीने से लगाए रहते है और उसी आस में हम यहां किसी सड़क के किनारे चाय की दुकान खोजकर मित्रों या परिवार के संग तबियत से बैठकर चाय की चुस्की ले लें तभी मज़ा आ जाता है ,पर यहां मुम्बई का रगड़ा पेटिस,उसल पाव,मिसल पाव, पव भाजी आजतक मुझे भाया नहीं,यहाँ वड़ा पाव भी कभी कभी ही खाने मन करता है....पर खाने के बाद पेट की ऐसी तैसी वो अलग ।
और अब ठाकरे की मेहरबानी से वस्तुस्थिति पता चल रही है सबकुछ देख कर लगा कि मराठी भाइयों के दिल में कुछ तो पक रहा था काफ़ी दिनों से, और मीडिया के हवा देने पर इतना कुछ हो गया फिर भी राज को व्यापक जनसमर्थन नहीं प्राप्त है , ये देखकर अच्छा लगा ...... पिछले दिनों एक बात तो लग रही थी, जब ये देखा की पूरब के भाई लोग सर पर टोकरी रख कर सब्ज़ी या मछली घर घर बेच रहे थे तो स्थानीय लोगों के विरोधी स्वर सुनाई दे रहे थे... पर लगा देखो ये सब पैसे के लिये कितना मेहनत करते हैं.. और स्थानीय लोग थोड़ा अपना रूआब रखते हुए.. घर घर जाकर माल बेचना पसन्द भी नहीं करते...लेकिन इनकी कमाई देखकर स्थानीय लोगों में असन्तोष साफ़ दिखा....पर यहां नौकरी-पेशा लोगों में इतना वैमन्यस्यता तो मुझे दिखाई नहीं देती।
मीडिया के कुछ ज़्यादा ही सनसनी फैला्ने से हम यहां मुम्बई मे रहकर थोड़ा असुरक्षित महसूस करने लगे हैं, जिन घटनाओं को मैने टीवी पर देखा टैक्सी वाले को मार खाते हुए,खोमचे वाले का सारा माल सड़क पर फैला है खूब अच्छे से लोग उस खोमचे वाले की धुनाई कर रहे है,या देखा लोकल ट्रेन में किसी कमज़ोर आदमी को पिटते हुए....तो बड़ी ग्लानि हो रही थी, आखिर हम कैसी जगह रहते हैं?कैसे लोगों के बीच हमें रहना पड़ रहा है, जो अपनी बदहाली के लिये दुष्मन को चिन्हित ही नहीं कर पा रहे और आस पास के लोगों पर अपना गुस्सा उतार रहे हैं, बेरोज़गारी,और भाषा के नाम पर उलझे पड़े है.. पर इसके ज़िम्मेदार लोग राज ठाकरे को थोड़ा चढ़ाकर शिवसेना के टक्कर मे लाकर वोट को कुछ इस तरह बाँट देना चाहते हैं कि फिर से चुनाव में वोट की फ़सल काट सकें,और लोग लड़ते रहें,सरकार है कि मुस्कुरा रही है ।
कैसे हो गए हैं हम? कहाँ गई मुम्बई की स्पिरिट? सब समन्दर में समां गई क्या,?या जो कुछ अनामदास जी ने लिखा उसमें मज़ा ही ढूढते रहेंगे या इसका कोई हल भी सुझाएंगे? पर मैं तो इन सब पचड़ों में कहीं से पड़ने वाला नहीं, पता नहीं अभी और क्या क्या करना है.बीवी बच्चे माँ भाई और अपने लिये ही तो सब कुछ कर रहे हैं, तो जिनको सलाह देनी है वो दें, जिन्हें मज़ा लेना है वो लें,उन्हें रोकने वाला मैं कौन होता होता हूँ ................यही सब देख कर इन्ही मौज़ू पर एक गीत सुना था कभी, आज थोड़ा प्रासंगिक सा लगता है आप भी सुनिये... ...ANTHEM WITHOUT NATION शीर्षक से गीत Nitin Sawhaney की आवाज़ में है नितिन को मैने बहुत ज़्यादा सुना तो नहीं है पर आप सुनकर बताइयेगा यही उम्मीद करता हूँ, , तो मैं तो चला अपने काम धंधे पर ...पर जाते जाते .टी वी पत्रकारिता से जुड़े मेरे पुराने मित्र पंकज श्रीवास्तव की एक कविता जो उन्होने बीस साल पहले कही थी ....
दर्द में डूबे हुए दिन सर्द बड़ी राते हैं
मन को कितना समझाएं
बाते तो बातें हैं........
पर नितिन के गीत को सुनने से पहले एक शेर....... पन्द्रह साल मुम्बई मे रहकर भी ये शहर अपना सा नहीं लगता ।
ये सर्द रात ये आवारगी ये नींद का बोझ
अपना शहर होता तो घर गए होते
पले बढे़,इस ज़मीन पे हम जवान हुए
ये ना पूछो हमारे कैसे इम्तिहान हुए
पड़ा जिसे भी उस जुबान को अपना समझा
के हमने दिल से सब जहान को अपना समझा
ज़मीन से ले के आसमान को अपना समझा
सुना ये देश बेगाना है तो,हैरान हुए
पले बढ़े जो इस ज़मीन पे हम जवान हुए....
कदम कदम पे दो राहें समाजों के मिले
के हमसफ़र अलग- अलग से,रिवाज़ों के मिले
के रास्ते न हमें अपने अंदाज़ों के मिले
अजीब हादसे सफ़र के दरम्यान हुए
पले बढ़े इस ज़मीं पे हम जवान हुए
हमारी पाक मोहब्बत किसी को रास नहीं
हमें तो प्यार कि किसी से भी कोई आस नहीं
के क्या है इनमें अभी हमारे पास नहीं
ये सोचकर हम अक्सर ही परेशान हुए
पले बढ़े.इस ज़मीन पे हम जवान हुए
ये ना पूछो हमारे कैसे इम्तिहान हुए
न शास्त्रीय टप्पा.. न बेमतलब का गोल-गप्पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्तो, है रंगमंच तैयार..
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5 comments:
ओह, कैसी उलझी-उलझी तो बातें हैं, विमल..
अपना शहर होता तो घर गए होते?.. और मुझे?.. यहीं छोड़ गए होते?..यही पचीस सालों की दोस्ती है?
बोलिये और कहाँ जांए?अरे साथी आपको छोड़ कर हम कहाँ जाने वाले हैं,आपका ही तो मार्गदर्शन पाकर तो हम धन्य हैं,कुछ गलत तो नहीं बोला क्या?
आपकी बातें उलझाती है , मगर आखिरकार समझ में आ ही जाती है , अछा लगा पढ़कर !
गीत के बोल दिल छूते हैंं.
विमल भाई बहुत बढ़िया प्रस्तुति थी। आखिरकार ध्वनितंत्र तो ठीक हुआ और सबसे पहले कुछ अच्छा सुनने आपके धाम पर चला आया। ये नितिन भाई की आवाज़ तो कमाल की है। इस गीत मे जित तरह से खरज पर टिक कर गाया है उससे गीत के भाव साकार होते हैं। मायूसी, नैराश्य घनीभूत होता है।
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