क्या कवि सम्मेलनों का दौर ख़त्म होता जा रहा है, एक समय था जब छोटे छोटे शहरों में कवि सम्मेलनों और मुशायरों की वजह से शहर में चहल पहल खूब हुआ करता था, वाह वाह और मुक़र्रर का शोर आज भी कानों में ज्यों का त्यों अपनी जगह बनाए हुए है...... पर आज उस समा को हम सिर्फ महसूस ही कर सकते हैं |
लगभग दसियों साल से सब कुछ समाप्त होता दिखाई दे रहा है तो आज उन्हीं पुराने दिनों कों याद करते हुए कवि डा: कुमार विश्वास जी की रचना उन्हीं की आवाज़ में सुनिए और आनंद लीजिये, इस रचना को मित्र ज्योतिन ने उपलब्ध कराया है उनका शुक्रिया और भी इस तरह की रचनाएँ अगर मुझे मिलती है तो ठुमरी के माध्यम से आप तक ज़रूर पहुंचाया जाएगा इसकी गारंटी मैं लेता हूँ ...........नए साल में फिर कुछ इसी तरह मुलाक़ात होगी |
समीर भाई आप सुन नहीं पा रहे इसलिये नीचे वाले प्लेयर पर चटका लगा कर अब सुन सकते हैं ....वैसे मैं ऊपर वाले प्लेयर को सुन पा रहा हूँ....
न शास्त्रीय टप्पा.. न बेमतलब का गोल-गप्पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्तो, है रंगमंच तैयार..
Tuesday, December 29, 2009
Saturday, November 14, 2009
नन्हें मुन्हें बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है ?
कल तक जिन गीतों को मेरे पिता गुनगुनाते थे उनके बाद उन गीतों को हमने भी गाया गुनगुनाया .... अब हमारे बाद आने वाली पीढ़ी भी उन्हें गुनगुना और गा रही है,जब भी इन गीतों को पहले पहल गाया या सुना गया होगा सोचिये कैसा लगा होगा...आज गीत वही है समय और समाज बदल गया है,और गीतों के अर्थ भी बदल गये हैं,हम बाल दिवस मनाते हैं.... सरकार डाक टिकट छापती है....कुछ समारोह हो जाते है आज के दिन, पर बच्चों का बचपन और उनकी हंसी थोड़ी जुदा होती जा रही है..बच्चा का समय से पहले बडा़ होते जाना ...बच्चों के भारी बस्ते अभी भी भारी है....बच्चों की एक बड़ी आबादी आज भी होटलों,स्टेशनों,अनाथालयों और सड़को पर ठोकरें खाती फिर रही है..क्या उन्हें पता है हमारे यहां बच्चों से सम्बन्धित योजनाएं सिर्फ़ कागज़ पर ही बन कर रह जाती है.....खैर लिखने को तो बहुत कुछ है पर इन सदाबहार गीतों को सुनिये और सोचिये हम कैसे हो गये हैं.....नन्हें मुन्हें बच्चों की मुट्ठी में आज सचमुच क्या है....... .सब सपना हो गया है..क्या?
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Wednesday, October 28, 2009
हम नामवर न हुए तो का ! हमको ना बुलाओगे ?
बड़ी भिन्नाट हो रही है, बड़े समय बाद अपने बिलागवतन में लोग इलाहाबाद के मीट का चूरमा बना रहे हैं , अफ़सोस त ई है कि हमहुं को वहां ना बुलाके इसके संयोजक लोगो ने बहुतै गलत काम किया और उस पर ये कि नामवर लोग वहां इकट्ठा थे उनमें एक ठो नामवर पर इतना समय और ऊर्जा खर्च कर रहे हैं कि सब मनई का पढ़ पढ़ के ऐसा लग रहा है कि हम संगम नहा लिये, ई सबको नहीं बुझाता है कि नामवर के बहाने लोग अपना अपना तीर छोड़ रहे है, क्या ब्लॉगजगत में सबको बुलाना सम्भव है..कुछ तो लोग छूट जाते तो इस तरह की बहस तो कुछ भी कर लो, उठनी ही थी...जो उठ रही है और आगे भी उठेगी इसे कोई रोक सकता है?
जिस बात की चर्चा सुरेश चिपलुनकर बाबू ने छेड़ी थी उ मुद्दा रह गया पीछे अरे वही वामपंथ और हिन्दूपंथ और मुद्दा बन गया नामवर, अरे कोई बताएगा कि कि हिन्दू हितों पर लिखने वाले लोगों को क्यौं नहीं बुलाया गया? ई सब छोड़िये अब यही बता दीजिये हमको उस सम्मेलन में क्यौं नहीं बुलाया गया कोई मेरे बारे मे बोलेगा?
नामवर जी ने अगर कभी कचरा कह भी दिया तो कोई ये भी बताए कि क्या ब्लॉग में सब सुगन्धित साहित्य ही रचा जा रहा है कौन तय करेगा कि सुगन्धित क्या है? और कचरा क्या है? और जो व्यक्ति एक दिन कचरा कहता है और वही आदमी कचरे के शीर्ष में आसन करना चाहता है तो इसमें बुराई क्या है?
चिट्ठा शब्द के बारे में अगर नामवर बोल दें कि यह शब्द हमारा दिया है तो उनके कहने से क्या उनका हो जाएगा? और अगर अपने किताब में इसका श्रेय ले लें तो क्या उनको कोई रोक पायेगा?
अरे सब चिट्ठाकार इलाहाबाद में भेंट मुलाकात किये एक दूसरे को आमने सामने ज़िन्दा देखा ये क्या कम है, और जब ब्लॉगवतन के लोग एक जगह इकट्ठा हो जाँय तो क्या बात होती है क्या ये भी किसी को बताना पड़ेगा?
जिस बात की चर्चा सुरेश चिपलुनकर बाबू ने छेड़ी थी उ मुद्दा रह गया पीछे अरे वही वामपंथ और हिन्दूपंथ और मुद्दा बन गया नामवर, अरे कोई बताएगा कि कि हिन्दू हितों पर लिखने वाले लोगों को क्यौं नहीं बुलाया गया? ई सब छोड़िये अब यही बता दीजिये हमको उस सम्मेलन में क्यौं नहीं बुलाया गया कोई मेरे बारे मे बोलेगा?
नामवर जी ने अगर कभी कचरा कह भी दिया तो कोई ये भी बताए कि क्या ब्लॉग में सब सुगन्धित साहित्य ही रचा जा रहा है कौन तय करेगा कि सुगन्धित क्या है? और कचरा क्या है? और जो व्यक्ति एक दिन कचरा कहता है और वही आदमी कचरे के शीर्ष में आसन करना चाहता है तो इसमें बुराई क्या है?
चिट्ठा शब्द के बारे में अगर नामवर बोल दें कि यह शब्द हमारा दिया है तो उनके कहने से क्या उनका हो जाएगा? और अगर अपने किताब में इसका श्रेय ले लें तो क्या उनको कोई रोक पायेगा?
अरे सब चिट्ठाकार इलाहाबाद में भेंट मुलाकात किये एक दूसरे को आमने सामने ज़िन्दा देखा ये क्या कम है, और जब ब्लॉगवतन के लोग एक जगह इकट्ठा हो जाँय तो क्या बात होती है क्या ये भी किसी को बताना पड़ेगा?
Sunday, October 18, 2009
किरण आहलुवालिया की आवाज़ में कुछ ग़ज़लें
कुछ ही दिन हुए कि एक पुराने गीत को याद करते हुए एक पोस्ट ठुमरी पर चढ़ाई थी, रचना अधूरी थी तो अपने मित्र पंकज ने पूरी रचना मेरे पास भेजी मैने उसे हूबहू चढ़ा दी ये सोचते हुए कि कम से कम वो रचना अंतर्जाल पर तो हमेशा रहेगी ही, खैर कुछ टिप्पणिया भी आईं उनमें से एक टिप्पणी मानसी की भी थी "ये पोस्ट तो अच्छी है पर ये क्या हो रहा है ठुमरी में? हम क्वालिटी गीत संगीत की आशा ले कर आये थे" तब मुझे वाकई लगा कि मानसी ग़लत तो कह नहीं रहीं पर क्या करें इधर कुछ नया भी सुनने को मिला नहीं और मेरी कोशिश भी यही रहती है कि वही रचना ठुमरी पर चढ़ाई जाय जिसे लोगों ने कम सुना हो और कम से कम वो रचना स्तरीय तो हो ही, तो उसी कड़ी में आज किरण आहलूवालिया की आवाज़ में कुछ रचनाएं आपके लिये लेकर आया हूँ, किरण आहलूवालिया के बारे में सिर्फ़ इतना कि आवाज़ और लय तो खूब है उनके पास पर उनके शब्द अगर कहा जाय तो मोती जैसे नहीं हैं, या कहा जाय बहुत साफ़ शब्द कानों को सुनाई नहीं देते, फिर भी किरण को सुनना सुखद है तो आप भी सुनें....
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Tuesday, October 13, 2009
हर लोमड़ी यहां पर अंगूर खा रही है, खा पाये जो न उसको खट्टा बता रही है ...
एक अधूरी रचना जो मेरे अंदर इस चुनाव के वातावरण में रह रह कर याद आ रही थी..और खास बात कि पूरी रचना मुझे याद भी नहीं हो पा रही थी...इस विश्वास के साथ मैने पिछले पोस्ट में उस रचना को ठुमरी पर चढ़ा दी कि अपने पुराने मित्र जब पढेंगे तो इसे कम से पूरा तो ज़रूर करेंगे...और हुआ भी वैसा कि हमारे पुराने संघतिया पंकज श्रीवास्तव ने उस रचना को मेरे पास भेज दिया वैसा जैसा कि हम कभी मिलकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में गाया करते थे , दस्ता इलाहाबाद के ओस में भीगे सुहाने दिन याद आ गये, उस ज़माने की तस्वीर भी तो नहीं है कि यहां लगा देते....खैर मित्र पंकज का शुक्रिया अदा करते हुए इस रचना को दुबारा पोस्ट कर रहा हूँ...जो अब पूरी है ।
दिल्ली में दीखता है जंगल का ही नजारा
रहने को घर नहीं है, हिंदोस्तां हमारा
गुणगान हो रहा है, मालाएं पड़ रही हैं
हर शाख उल्लुओं की शक्लें उभर रही हैं
कुछ रीछ नाचते हैं, कुछ स्यार गा रहे हैं
जो जी हुजूर कुत्ते थे, दुम हिला रहे हैं।
हर खेत सांड़ चरते बैलों को नहीं चारा
रहने को घर नहीं है----
हर लोमड़ी यहां पर अंगूर खा रही है
खा पाए जो न उसको खट्टा बता रही है
अपराध तेंदुओं का खरगोश डर रहे हैं
भेड़ों की भेड़िए ही रखवाली कर रहे हैं
पिंजड़ों में सारिकाएं गिद्दों का चमन सार
रहने को घर नहीं है...
हर लॉन लाबियों में गदहे टहल रहे हैं
बिल्ली की हर अदा पर चूहे उछल रहे हैं
सांपों की बांबियों में चूहों के मामले हैं
मानेंगे न्याय करके बंदर बड़े भले हैं
हैं मगरमच्छ जब तक, क्या नदियों की धारा
रहने को घर नहीं----
सिर पर सुबह उठाए मुर्गे दिखा रहे हैं
सूरज का फर्ज क्या है, उसको बता रहे हैं
चिड़ियों के घोसलों में कौओं का संगठन है
पेड़ों को टांग उल्टा, चमगादड़ें मगन हैं
कितने ही घोसलों का बचपन है बेसहारा
रहने को घर---
लकदक पहन उजाले बगुले खड़े हुए हैं
तप से हुए हैं पैदा तप से बड़े हुए हैं
न जाल है न बंसी, फिर भी विकट मछेरे
अनजान हैं मछलियां, निकलीं बड़ी सवेरे
उनको न भंवर कोई, उनका नहीं किनारा
रहने को घर नहीं है----
ये गीत रामकुमार कृषक या कमल किशोर श्रमिक का है..तड़प उठी है तो इसका पता भी लगा लेंगे। शुक्रिया उन दिनों की याद दिलाने के लिए...हाथ में ढफली लिए मगन मन 'दस्ता'...
दिल्ली में दीखता है जंगल का ही नजारा
रहने को घर नहीं है, हिंदोस्तां हमारा
गुणगान हो रहा है, मालाएं पड़ रही हैं
हर शाख उल्लुओं की शक्लें उभर रही हैं
कुछ रीछ नाचते हैं, कुछ स्यार गा रहे हैं
जो जी हुजूर कुत्ते थे, दुम हिला रहे हैं।
हर खेत सांड़ चरते बैलों को नहीं चारा
रहने को घर नहीं है----
हर लोमड़ी यहां पर अंगूर खा रही है
खा पाए जो न उसको खट्टा बता रही है
अपराध तेंदुओं का खरगोश डर रहे हैं
भेड़ों की भेड़िए ही रखवाली कर रहे हैं
पिंजड़ों में सारिकाएं गिद्दों का चमन सार
रहने को घर नहीं है...
हर लॉन लाबियों में गदहे टहल रहे हैं
बिल्ली की हर अदा पर चूहे उछल रहे हैं
सांपों की बांबियों में चूहों के मामले हैं
मानेंगे न्याय करके बंदर बड़े भले हैं
हैं मगरमच्छ जब तक, क्या नदियों की धारा
रहने को घर नहीं----
सिर पर सुबह उठाए मुर्गे दिखा रहे हैं
सूरज का फर्ज क्या है, उसको बता रहे हैं
चिड़ियों के घोसलों में कौओं का संगठन है
पेड़ों को टांग उल्टा, चमगादड़ें मगन हैं
कितने ही घोसलों का बचपन है बेसहारा
रहने को घर---
लकदक पहन उजाले बगुले खड़े हुए हैं
तप से हुए हैं पैदा तप से बड़े हुए हैं
न जाल है न बंसी, फिर भी विकट मछेरे
अनजान हैं मछलियां, निकलीं बड़ी सवेरे
उनको न भंवर कोई, उनका नहीं किनारा
रहने को घर नहीं है----
ये गीत रामकुमार कृषक या कमल किशोर श्रमिक का है..तड़प उठी है तो इसका पता भी लगा लेंगे। शुक्रिया उन दिनों की याद दिलाने के लिए...हाथ में ढफली लिए मगन मन 'दस्ता'...
Friday, October 9, 2009
दिल्ली में दीखता है जंगल का ही नज़ारा
चुनाव का मौसम आ गया पूरे देश में विधान सभा के चुनाव हो रहे है हैं,हर जगह नेताओं की मुस्कुराती तस्वीर के होर्डिंग, भाषण , रैली का दौर बस कुछ दिन, जनता से जुड़ाव, और फिर चुनाव के बाद शान्ति,नेताओं के वादे इरादे सब उनके पास , अभी गठरी पर एक इस रचना को देखकर एक बहुत पुरानी रचना की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही है....मुझे उम्मीद है मेरे सुहाने दिनों के मित्र अगर इसे पढेंगे तो इस अधूरी रचना को पूरा भी कर सकेंगे:
रहने को घर नहीं है, हिन्दोस्तां हमारा
दिल्ली में दीखता है जंगल का ही नज़ारा
लक-दक पहन उजाले बगुले खड़े हुए हैं
तप से हुए हैं पैदा, तब से बड़े हुए हैं
ना जाल है न बंसी फिर भी विकट मछेरे
अंजान हैं मछलियाँ निकली अभी सवेरे
उनको न भंवर कोई न उनका है किनारा
दिल्ली में दीखता है जंगल का ही नज़ारा
अब इसके आगे की पंक्तियाँ याद नहीं ...........अगर आप इसे पूरा कर सकें तो मेहरबानी,और ये भी याद नहीं कि ये रचना किसकी है बस मौके पर याद आ गई तो चेप रहा
रहने को घर नहीं है, हिन्दोस्तां हमारा
दिल्ली में दीखता है जंगल का ही नज़ारा
लक-दक पहन उजाले बगुले खड़े हुए हैं
तप से हुए हैं पैदा, तब से बड़े हुए हैं
ना जाल है न बंसी फिर भी विकट मछेरे
अंजान हैं मछलियाँ निकली अभी सवेरे
उनको न भंवर कोई न उनका है किनारा
दिल्ली में दीखता है जंगल का ही नज़ारा
अब इसके आगे की पंक्तियाँ याद नहीं ...........अगर आप इसे पूरा कर सकें तो मेहरबानी,और ये भी याद नहीं कि ये रचना किसकी है बस मौके पर याद आ गई तो चेप रहा
Tuesday, September 22, 2009
अजयजी की गठरी का ब्लॉग जगत में स्वागत करें !
अजयजी हमारे मित्र है उन्होंने भी गठरी नाम से अपने ब्लॉग की शुरूआत की है,आप भी उनका हौसला बढ़ाएं, उम्मीद है उनकी गठरी से ब्लॉग जगत लाभान्वित होगा।
Saturday, September 19, 2009
अतीत होते हमारे लोकगीत.....!!!
पिछली पोस्ट में त्रिनिडाड के बैठक संगीत के बारे मैने लिखा था पर ऐसा नहीं है कि ये बैठक संगीत सिर्फ़ और सिर्फ़ कैरेबियन देशों की थाती है....भाई हम भी कभी अपनी अंतरंग बैठकों में कुछ ऐसे गीतों को गाते रहे हैं कि जिस गाने से महफ़िल शुरू हुई होती वहां कुछ अलग किस्म के इम्प्रोवाईजेशन की वजह से उस पूरी रचना का एक नया ही रूप बन जाता...अब मेरे पास उसकी रिकॉर्डिंग तो नहीं है पर उस रचना में कव्वाली, गज़ल,कुछ अलग किस्म के चलताउ शेर और कुछ लोकप्रिय फ़िल्मी गीतों से बनी रचना उस पूरे बैठक में निकल कर आती थी,अफ़सोस तो इस बात का है कि उन बैठकों का कुछ भी हमारे पास मौजूद नहीं है।
अपने इस चिट्ठे पर मेरी कोशिश तो रहती है कि कुछ ऐसी चीज़ें परोसी जाँय जिसे लोगों ने कम सुना हो,जब मैने कैरेबियन चटनी पर पोस्ट लिखी थी तो अपने यहां के कैरेबियन चटनी को लेकर अलग अलग प्रतिक्रिया आई थी अनामदासजी ने लिखा था ......."इन गानों को सुनकर लगता है कि ऑर्गेनिक भारतीय संगीत, देसी संगीत सुनने के लिए अब कैरिबियन का सहारा लेना पड़ेगा, जहाँ भारतीय तरंग में बजते भारतीय साज हैं, और गायिकी में माटी की गंध है, सानू वाली बनावट नहीं है. मॉर्डन चटनी म्युज़िक में रॉक पॉप स्टाइल का संगीत सुनाई देता है, भारत में लोकसंगीत या तो बाज़ार के चक्कर के भोंडा हो चुका है या फिर उसमें भी लोकसंगीत के नाम पर ऑर्गेन और सिंथेसाइज़र, ड्रम,बॉन्गो बज रहे हैं.
तो अखिलेशजी की प्रतिक्रिया थी......."इसमें चटनी ही नहीं अचार भी है साथ ही साथ मिट्टी की हांडी में बनी दाल का सोंधा पन भी है...हां परोसने के तरीके में क्रॉकरी और स्टेन्लेस( संगीत) का बखूबी इस्तेमाल है, बेवतन लोगों में रचा बचा अस्तित्वबोध नये बिम्बों के साथ आधुनिक होता हुआ भी कहीं अतीत की यात्रा करता है। कहीं का होना या कहीं से होने के क्या मायने हैं इस संगीत से अयां हो रहा है।
पर मैं कहना चाहता हूँ कि आज भी अपने यहाँ ढूढें तो मन के तार झंकृत करने वाले लोक-गीतों भले कम हो गये हों पर आज लोग हैं कि उन्हें संजो कर रखे हुए हैं...
तो उसी कड़ी में कुछ लोकागीत लेकर आया हूँ जिसे हम दुर्लभ गीतों में शुमार कर सकते है, इन गीतों को भी किसी ने संजो के ही रखा होगा और आज मेरे पास न जाने कहां कहां से घूमता टहलता मेरे पेनड्राइव से होता हुआ आज ठुमरी तक पहुंचा है जिसे आप ज़रूर सुने और अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर दे ।
नौटंकी शैली में ज़रा इस गाने को सुनें, जिसे आप पहले भी सुन चुके है जिसे लता जी ने गाया था फ़िल्म" मुझे जीने दो" में और पीछे से नक्कारे की किड़मिड़ गिम भी सुने जो इस गाने को और मोहक बना रहा है.....इस आवाज़ से मैं तो अंजान हूँ. पर आप ही सुने और कुछ बताएं।
बिरहा पर भी क्लिक करके एक संगीत के साईट पर बहुत से लोकगीतों से रूबरू हो सकते है।
यहां बिरहा में जिनकी आवाज़ है वो मेरे लिये अनाम है अगर आप मदद कर सकें तो अच्छा होगा।
रोपनी आज रोपनी पर जो लोकगीत गाये जाते है उन पर एक नज़र ...हमारे यहां तो हर मौसम के लिये लोकगीत बने है...मॉनसून आते ही खेतों में धान की रोपनी होती है और किसान अपने खेतों में रोपनी वाले गीत गाते गाते अपना काम करते है...
और कोहबर(विवाह के समय जहाँ कई प्रकार की लौकिक रीतियाँ होती हैं) का गीत गाती महिलायें, विवाह गीत तो आपने बहुत से सुने होंगे पर कोहबर पर विशेष इस गीत को सुनें,
अपने इस चिट्ठे पर मेरी कोशिश तो रहती है कि कुछ ऐसी चीज़ें परोसी जाँय जिसे लोगों ने कम सुना हो,जब मैने कैरेबियन चटनी पर पोस्ट लिखी थी तो अपने यहां के कैरेबियन चटनी को लेकर अलग अलग प्रतिक्रिया आई थी अनामदासजी ने लिखा था ......."इन गानों को सुनकर लगता है कि ऑर्गेनिक भारतीय संगीत, देसी संगीत सुनने के लिए अब कैरिबियन का सहारा लेना पड़ेगा, जहाँ भारतीय तरंग में बजते भारतीय साज हैं, और गायिकी में माटी की गंध है, सानू वाली बनावट नहीं है. मॉर्डन चटनी म्युज़िक में रॉक पॉप स्टाइल का संगीत सुनाई देता है, भारत में लोकसंगीत या तो बाज़ार के चक्कर के भोंडा हो चुका है या फिर उसमें भी लोकसंगीत के नाम पर ऑर्गेन और सिंथेसाइज़र, ड्रम,बॉन्गो बज रहे हैं.
तो अखिलेशजी की प्रतिक्रिया थी......."इसमें चटनी ही नहीं अचार भी है साथ ही साथ मिट्टी की हांडी में बनी दाल का सोंधा पन भी है...हां परोसने के तरीके में क्रॉकरी और स्टेन्लेस( संगीत) का बखूबी इस्तेमाल है, बेवतन लोगों में रचा बचा अस्तित्वबोध नये बिम्बों के साथ आधुनिक होता हुआ भी कहीं अतीत की यात्रा करता है। कहीं का होना या कहीं से होने के क्या मायने हैं इस संगीत से अयां हो रहा है।
पर मैं कहना चाहता हूँ कि आज भी अपने यहाँ ढूढें तो मन के तार झंकृत करने वाले लोक-गीतों भले कम हो गये हों पर आज लोग हैं कि उन्हें संजो कर रखे हुए हैं...
तो उसी कड़ी में कुछ लोकागीत लेकर आया हूँ जिसे हम दुर्लभ गीतों में शुमार कर सकते है, इन गीतों को भी किसी ने संजो के ही रखा होगा और आज मेरे पास न जाने कहां कहां से घूमता टहलता मेरे पेनड्राइव से होता हुआ आज ठुमरी तक पहुंचा है जिसे आप ज़रूर सुने और अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर दे ।
नौटंकी शैली में ज़रा इस गाने को सुनें, जिसे आप पहले भी सुन चुके है जिसे लता जी ने गाया था फ़िल्म" मुझे जीने दो" में और पीछे से नक्कारे की किड़मिड़ गिम भी सुने जो इस गाने को और मोहक बना रहा है.....इस आवाज़ से मैं तो अंजान हूँ. पर आप ही सुने और कुछ बताएं।
बिरहा पर भी क्लिक करके एक संगीत के साईट पर बहुत से लोकगीतों से रूबरू हो सकते है।
यहां बिरहा में जिनकी आवाज़ है वो मेरे लिये अनाम है अगर आप मदद कर सकें तो अच्छा होगा।
रोपनी आज रोपनी पर जो लोकगीत गाये जाते है उन पर एक नज़र ...हमारे यहां तो हर मौसम के लिये लोकगीत बने है...मॉनसून आते ही खेतों में धान की रोपनी होती है और किसान अपने खेतों में रोपनी वाले गीत गाते गाते अपना काम करते है...
और कोहबर(विवाह के समय जहाँ कई प्रकार की लौकिक रीतियाँ होती हैं) का गीत गाती महिलायें, विवाह गीत तो आपने बहुत से सुने होंगे पर कोहबर पर विशेष इस गीत को सुनें,
Saturday, August 22, 2009
त्रिनिडाड का बैठक संगीत सुनना हो तो इधर आईये.......
बहुत दिनों से सिर्फ़ चिंतन के अलावा कुछ हो नहीं रहा, पिछले दिनों अपने समाज में सच का सामना से लेकर बरसात,सूखा, मंहगाई, स्वाइन फ़्लू, और जिन्ना का जिन्न सब एक एक करके दिमाग खराब कर रहे थे, ऐसा भी नहीं कि कुछ ढ्ट टेणन टाईप ही सही कुछ अपनी ज़िन्दगी ही चल नहीं रहा था, भाई सब चल रहा है पर खरामा खरामा, बस एक बार से दिमाग भन्ना रहा है लाईफ़लॉगर की वजह से, जानते इस कमीने साइट की वजह से न जाने कितने संगीत प्रेमी मुझे गरिया के चले जाते हैं अब आप पूछेंगे क्यौं ? तो बता दूँ पिछले दो साल से ब्लॉग नाम की चिड़िया से अपना जुड़ाव हुआ है, कुल मिला के गीत संगीत के अपने मोर्चे पर थोड़ा अमृत बाँटने का काम चल रहा था.
ज़्यादातर रचनाएं जो आप सुन रहे थे वो लाईफ़लॉगर के प्लेयर के बदौलत सुन पा रहे थे,काफ़ी लम्बे समय से इन लाईफ़लॉगर वालों ने अपना तार खिंच कर हमसे अलग कर दिया है अब मुश्किल ये है कि जितनी भी पुरानी पोस्ट थी उसपर आप सिर्फ़ पढ़ सकते हैं, सुन नहीं सकते, मतलब ये कि जितने भी लाईफ़लॉगर के प्लेयर पर जो गीत संगीत चढ़ाया था उसने काम करना बन्द कर दिया है यानि पिछली सारी मेहनत तेल ?
खैर कहीं कहीं अलग अलग प्लेयर पर भी थोड़ा बहुत चढ़ाया था वो सुरक्षित है, पर अपने सागर भाई और यूनुस भाई,इरफ़ान भाई,मनीष जी और उन सभी साथियों से जो तक्नालॉजी को बता सकते हैं तो उनसे हाथ जोड़ अपनी यही इल्तिज़ा है कि वो कम कम से कम ये तो बताएं कि कौन सा प्लेयर उचित और आसान है कि उससे कम से कम ठुमरी पर लोग आकर मायूस ना हों, भाई लोग ज़रा इस बारे में गौर करियेगा।
पिछले दिनों अपने भाई बन्धू जो हमारे देश से बहुत दूर त्रिनीडाड, सुरीनाम आदि देशों में सैकड़ों सालों से रहकर कुछ अपना सा सुर आजतक बनाए हुए है उनकों आज सुनवाने का जी कर रहा है अपना तो अच्छा बुरा हम सुनते ही रहते हैं पर इसे भी सुना जाय त्रिनिडाड की कोकिला......रसिका डिन्डियाल की आवाज़ में इस रचना को सुनिये और बताईये कि आज भी इस संसार को उन्होंने कैसे पानी और खाद से सींचा है कि आज भी उनका गाया हमें मस्त करता है ............भाई ज़रा नया ऑडियो प्लेयर कैसे बनाएं जाय जो आसान भी हो अभी तो हमारी यही सबसे बड़ी समस्या है कोई सुलझायेगा?
चलिये अब कुछ बैठक गान का और चटनी का आनन्द लीजिये ।
और भी है अपने पिटारे में ज़रा इन्हें भी तवज्जो दें। रामदेव चैतू की आवाज़ में ज़रा इस लोकप्रिय धुन को तो सुनिये....
और राकेश यनकरन की ये मिक्स चटनी का स्वाद तो ले ही लीजिये....
चलिये अब कुछ बैठक गान का और चटनी का आनन्द लीजिये ।
और भी है अपने पिटारे में ज़रा इन्हें भी तवज्जो दें। रामदेव चैतू की आवाज़ में ज़रा इस लोकप्रिय धुन को तो सुनिये....
और राकेश यनकरन की ये मिक्स चटनी का स्वाद तो ले ही लीजिये....
Wednesday, July 29, 2009
सच का सामना करने से क्या लोग डरने लगे हैं.....
पिछले दिनों "सच का सामना" को लेकर बहुत माहौल गरम है और गरम इस कदर है कि संसद को भी इसपर ध्यान देना पड़ा, अभी तक जितना मैने इस बारे में पढ़ा है सबने एकांगी पहलू पर ही ज़्यादा बात की गई है पर बैड्फ़ेथ पर जो विचार मैने पढ़े मुझे ऐसा लगता है कि इस लेख को पढ़ना ज़रूरी है और इसलिये भी पढ़ना ज़रूरी है कि ये व्यक्तिगत ही नहीं बल्कि समग्रता में सामाजिक सच्चाई का भी सामना कराता है।
Sunday, July 19, 2009
याद पिया की आये..........वडाली बंधुओं की यादगार महफ़िल से कुछ मोती....
उस्ताद पूरन चन्द और प्यारे लाल वडाली बन्धुओं को बहुत तो सुना नहीं पर इन बन्धुओं का गायन वाकई अद्भुत है,काफ़ी समय हो गया "टाइम्स म्युज़िक" ने एक एल्बम रिलीज़ किया था "याद पिया की" उसमें बहुत सी रचना पंजाबी में थी, पंजाबी मैं थोड़ा बहुत समझ पाता हूँ,जैसे गायक के लिये गाने के साथ अगर ये पता हो कि वो क्या गा रहा है तब उस रचना की गुणवत्ता बढ़ जाती है वैसे ही सुनने वाला भी रचना को पूरी तरह से समझ रहा हो तो किसी भी रचना को सुनने का मज़ा ही कुछ और हो जाता है ।

पश्चिम गायकों के बहुत से कंसर्ट में मैने श्रोताओं को रोते हुए चीखते हुए उछलते कूदते देखा है पर हमारे यहां का समाज संगीत के मामले में थोड़ा अलग है शान्त शान्त से श्रोता थोड़ा झूमते हुए वाह वाह की मुद्रा में बैठे रहते है,और जहां आवश्यक्ता होती है वहां दाद देना भूलते नहीं,याद है जगजीत सिंह साहब का एक अलबम आया था.....जिसमें उन्होंने कुछ चुटकुले भी सुनाए थे और श्रोताओं की दाद का स्केल भी बहुत ऊपर था श्रोताओं के शोर में एक आवाज़ आयी "आहिस्ता आहिस्ता" और फिर जगजीत साहब ने "सरकती जाय है रूख से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता" सुनाया था, जगजीत चित्रा का वो वाला एलबम ज़बरदस्त था उसी एलबम में हमने पहले पहल सुना था "दुनियाँ जिसे कहते है जादू का खिलौना है मिल जाय तो मिट्टी है खो जाय तो सोना है" आज बडाली बन्धुओं के स्वर में इस मोहक रचना को सुनकर वैसा ही आनन्द मिल रहा है।
कहते हैं पुराने और नये के बीच संघर्ष हमेशा से चलता आया है पुराना नये से कुछ सीख नहीं ले पाता तो धीरे धीरे पुराना हो ही जाता है,एक रचनाकार समय के साथ चलते हुए अपने आपको संवारता रहता है , धुन, वाद्य यंत्र सबमें तब्दीली लाता है तो वो रचनाकार समय के साथ थोड़ा ज़्यादा समय तक टिक के खड़ा हो पाता है ,नुसरत साहब इस बात को जानते थे इसीलिये विदेशियों के साथ उन्होंने बहुत से सफ़ल प्रयोग भी किये थे और शायद वडाली बन्धुओं ने भी इस बात को भांप लिया है और इस एलबम में वो तब्दीली साफ़ दीखती है , ज़रा आप भी देखिये खुली आवाज़ का जादू आपको झूमने पर मजबूर कर देगा।
वडाली बन्धुओं की ये रचना भी ज़रूर सुनें जो पहले से एकदम अलहदा है।
याद पिया की आये ये दु:ख सहा न जाय इस रचना को बहुत से गायकों की आवाज़ में मैने सुना है पर उस्ताद मुबारक अली खान साहब की गायकी को सुनकर आज मैने इसे भी आपके सुनिये लिये चुना है तो इन्हें भी सुनिये और बताईये कैसा लगा?

पश्चिम गायकों के बहुत से कंसर्ट में मैने श्रोताओं को रोते हुए चीखते हुए उछलते कूदते देखा है पर हमारे यहां का समाज संगीत के मामले में थोड़ा अलग है शान्त शान्त से श्रोता थोड़ा झूमते हुए वाह वाह की मुद्रा में बैठे रहते है,और जहां आवश्यक्ता होती है वहां दाद देना भूलते नहीं,याद है जगजीत सिंह साहब का एक अलबम आया था.....जिसमें उन्होंने कुछ चुटकुले भी सुनाए थे और श्रोताओं की दाद का स्केल भी बहुत ऊपर था श्रोताओं के शोर में एक आवाज़ आयी "आहिस्ता आहिस्ता" और फिर जगजीत साहब ने "सरकती जाय है रूख से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता" सुनाया था, जगजीत चित्रा का वो वाला एलबम ज़बरदस्त था उसी एलबम में हमने पहले पहल सुना था "दुनियाँ जिसे कहते है जादू का खिलौना है मिल जाय तो मिट्टी है खो जाय तो सोना है" आज बडाली बन्धुओं के स्वर में इस मोहक रचना को सुनकर वैसा ही आनन्द मिल रहा है।
कहते हैं पुराने और नये के बीच संघर्ष हमेशा से चलता आया है पुराना नये से कुछ सीख नहीं ले पाता तो धीरे धीरे पुराना हो ही जाता है,एक रचनाकार समय के साथ चलते हुए अपने आपको संवारता रहता है , धुन, वाद्य यंत्र सबमें तब्दीली लाता है तो वो रचनाकार समय के साथ थोड़ा ज़्यादा समय तक टिक के खड़ा हो पाता है ,नुसरत साहब इस बात को जानते थे इसीलिये विदेशियों के साथ उन्होंने बहुत से सफ़ल प्रयोग भी किये थे और शायद वडाली बन्धुओं ने भी इस बात को भांप लिया है और इस एलबम में वो तब्दीली साफ़ दीखती है , ज़रा आप भी देखिये खुली आवाज़ का जादू आपको झूमने पर मजबूर कर देगा।
वडाली बन्धुओं की ये रचना भी ज़रूर सुनें जो पहले से एकदम अलहदा है।
याद पिया की आये ये दु:ख सहा न जाय इस रचना को बहुत से गायकों की आवाज़ में मैने सुना है पर उस्ताद मुबारक अली खान साहब की गायकी को सुनकर आज मैने इसे भी आपके सुनिये लिये चुना है तो इन्हें भी सुनिये और बताईये कैसा लगा?
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Saturday, July 11, 2009
एक कजरी पं.छन्नूलाल मिश्र जी की आवाज़ में ....
लोग ना जाने किन किन बहसों में लगे हैं, कभी इन बहसों का अन्त होने वाला भी नहीं है ,तो घड़ी भर जहां मन को सुकून मिले ऐसी विषम स्थितियों में कुछ अच्छा गीत संगीत सुनने से मन के अन्दर जो उर्जा मानव मन को मिलती है उसका कोई जोड़ नहीं है। रिमझिम बरसात की फुहार से अभी अभी रूबरू होकर घर में घुसा हूँ, दिन भर ऑफ़िस की गहमा गहमी,कहीं गुजरात में लोग मर रहे है,तो कहीं कोई आत्महत्या कर रहा है,कहीं लोग समलैंगिस्तान बनाने पर आमादा हैं तो बहुत से लोग इसके बरखिलाफ़ हैं।

फोटो गुगुल के सौजन्य से
कहीं मन की बेचैनी है जो खत्म होने का नाम नहीं लेती,बहुत दिनों से कुछ ठुमरी पर चढ़ाया ही नहीं था और ऐसा भी नहीं कि लोग ठुमरी पर कुछ ताज़ा सुनने के लिये बेकरार हों, इधर लाईफ़लॉगर की वजह से पुरानी पोस्ट जो लाईफ़ लॉगर के प्लेयर पर चढ़ाया था उसकी बत्ती लाईफ़लॉगर वालों ने गुल कर दी है ये बात अभी मुझे बहुत परेशान कर रहीं है,काफ़ी सारी मेहनत अब लाईफ़लॉगर की वजह से कुर्बान हो गई मुझे इसका मलाल तो हमेशा रहेगा।
चलिये इस रिमझिम भरे मौसम में कुछ हो जाय, पता है यहां मुम्बई में मौसम के बदलते देर नहीं लगती, कहते हैं मौसमी फल खाना शरीर के लिये लाभप्रद होता है,वैसे "मौसमी रचना भी अगर दिल से सुनी जाय तो मन में सकारात्मक विचार पैदा होता है" ये बात किसी ने कहा है या नहीं पर आज मैं कह दे रहा हूँ, तो अब बहुत ज़्यादा भांजने के बजाय मुद्दे पर आते हैं और पं. छ्न्नूलाल मिश्र जी की मखमली आवाज़ का लुत्फ़ लेते हुए एक कजरी सुनते है। यहां भी क्लिक करके पंडित छन्नूलाल जी की गायकी का लुत्फ़ लिया जा सकता है

फोटो गुगुल के सौजन्य से
कहीं मन की बेचैनी है जो खत्म होने का नाम नहीं लेती,बहुत दिनों से कुछ ठुमरी पर चढ़ाया ही नहीं था और ऐसा भी नहीं कि लोग ठुमरी पर कुछ ताज़ा सुनने के लिये बेकरार हों, इधर लाईफ़लॉगर की वजह से पुरानी पोस्ट जो लाईफ़ लॉगर के प्लेयर पर चढ़ाया था उसकी बत्ती लाईफ़लॉगर वालों ने गुल कर दी है ये बात अभी मुझे बहुत परेशान कर रहीं है,काफ़ी सारी मेहनत अब लाईफ़लॉगर की वजह से कुर्बान हो गई मुझे इसका मलाल तो हमेशा रहेगा।
चलिये इस रिमझिम भरे मौसम में कुछ हो जाय, पता है यहां मुम्बई में मौसम के बदलते देर नहीं लगती, कहते हैं मौसमी फल खाना शरीर के लिये लाभप्रद होता है,वैसे "मौसमी रचना भी अगर दिल से सुनी जाय तो मन में सकारात्मक विचार पैदा होता है" ये बात किसी ने कहा है या नहीं पर आज मैं कह दे रहा हूँ, तो अब बहुत ज़्यादा भांजने के बजाय मुद्दे पर आते हैं और पं. छ्न्नूलाल मिश्र जी की मखमली आवाज़ का लुत्फ़ लेते हुए एक कजरी सुनते है। यहां भी क्लिक करके पंडित छन्नूलाल जी की गायकी का लुत्फ़ लिया जा सकता है
Sunday, June 28, 2009
पंचम दा को याद करते हुए......
आज अगर हमारे बीच पंचम दा होते तो सत्तर बरस के होते,कल ही तो उनके जन्म दिन पर हम उन्हें याद कर रहे थे,सचिन दा के बेटे तो थे पर उनकी पहचान पर कभी सचिन दा का साया नहीं पड़ा,यही तो उनकी खासियत थी, "सुबह" नाम का एक सीरियल आया करता था दूरदर्शन पर उसका शीर्षक गीत पंचम दा ने गाया था,नेट पर तलाशते तलाशते मिल गया,इस अलग सी आवाज़ को सुनिये और उन दिनों को याद कीजिये.
पंचम दा ने कुछ फ़िल्मों की थीम म्युज़िक भी बनाई थी, आज पंचम दा को याद करने लिये उनकी बनाई कुछ यादगार थीम म्युज़िक का आनन्द लेते है जैसे इसे सुनिये जो फ़िल्म शोले से है..
और नीचे वाले प्लेयर में अलग अलग फ़िल्मों का थीम म्युज़िक मिक्स है जिसे आप ज्यों ज्यों सुनियेगा त्यों त्यों फ़िल्म का नाम भी याद आ आता जायेगा..................... है ना यादगार?
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पंचम दा ने कुछ फ़िल्मों की थीम म्युज़िक भी बनाई थी, आज पंचम दा को याद करने लिये उनकी बनाई कुछ यादगार थीम म्युज़िक का आनन्द लेते है जैसे इसे सुनिये जो फ़िल्म शोले से है..
और नीचे वाले प्लेयर में अलग अलग फ़िल्मों का थीम म्युज़िक मिक्स है जिसे आप ज्यों ज्यों सुनियेगा त्यों त्यों फ़िल्म का नाम भी याद आ आता जायेगा..................... है ना यादगार?
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Sunday, June 21, 2009
भोजपुरी फ़िल्म "लागी नाहीं छूटे रामा " के कुछ गाने....
इरफ़ान जी ने टूटी बिखरी में भोजपुरी के बदनाम गानों की एक लम्बी फ़ेहरिस्त लगाकर वाकई बहुत अच्छा काम किया,दर असल अगर देखा जाय तो भोजपुरी के नाम पर इसके सिवा कोई बहुत अच्छा का काम हुआ भी नहीं है और आज भोजपुरी फ़िल्में धड़ाधड़ बन तो रही हैं पर माल काटने के चक्कर में कोई मेहनत करके अच्छी फ़िल्म और अच्छे गीत जनता को दे ऐसी यहां किसी की चिन्ता भी नहीं है.
खैर टूटी हुई बिखरी हुई पर उन बदनाम भोजपुरी गीतों को सुनने के बाद लगा कि एक काम और भी किया जा सकता है कि कुछ बेहतर रचनाएं भी अगर कहीं दिखे उन्हें कम से कम एक जगह इकट्ठा तो किया ही जा सकता है, लोकगीत तो भोजपुरी में भरा पड़ा है पर ऑडियो में हमारे पास फ़िल्मी भोजपुरी गीतों के अलावा अभी भी बहुत कुछ ऐसा नहीं मिलता कि सुन कर दिल बाग बाग हो है ,भोजपुरी में आल्हा,कजरी,चैती,विवाह गीत,सोहर आदि तो खूब सुनने को मिल जाता है पर एक अच्छे अलबम के नाम पर हमारे पास ऐसा कुछ नही है जिस पर गर्व किया जाय,मशहूर गायिका शारदा सिन्हा की आवाज़ मुझे तो बहुत अच्छी लगती है अगर उनका गाया "पनिया के जहाज़ से पल्टनिया बने अईहा हो" अगर खोजने पर मिला तो आपको ज़रूर सुनवाउंगा, पिछले पोस्ट में फ़िल्म "गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबों" के मधुर गीतों से आपको रूबरू कराया था आज इसी फ़ेहरिस्त में "लागी नहीं छूटे रामा" के गीत लेकर आया हूँ, मऊ (उत्तर प्रदेश) के श्री जगलाल जी ने "गंगा मईया तोहे पियरी ....के गानों को सुनकर अपनी खुशी ज़ाहिर की थी,फ़ोन पर उनसे बहुत देर तक भोजपुरी गीतों को लेकर हमारी बात हुई उनका कहना था इन गानों को किसी छोटे शहर के म्यूज़िकल स्टोर में तलाशना दुरूह कार्य है और लगे हाथ "लागी नाहीं छूटे रामा" और "बिदेसिया" के गीतों को भी सुनने की इच्छा ज़ाहिर की थी तो आज इसी फ़ेहरिस्त में "लागी नहीं छूटे रामा" के कुछ गीत लेकर आया हूँ, मज़ा लीजिये. वैसे इस फ़िल्म के बारे में कुछ और जानना चाहें तो आवाज़ पर भी पढ़ सकते हैं.
खैर टूटी हुई बिखरी हुई पर उन बदनाम भोजपुरी गीतों को सुनने के बाद लगा कि एक काम और भी किया जा सकता है कि कुछ बेहतर रचनाएं भी अगर कहीं दिखे उन्हें कम से कम एक जगह इकट्ठा तो किया ही जा सकता है, लोकगीत तो भोजपुरी में भरा पड़ा है पर ऑडियो में हमारे पास फ़िल्मी भोजपुरी गीतों के अलावा अभी भी बहुत कुछ ऐसा नहीं मिलता कि सुन कर दिल बाग बाग हो है ,भोजपुरी में आल्हा,कजरी,चैती,विवाह गीत,सोहर आदि तो खूब सुनने को मिल जाता है पर एक अच्छे अलबम के नाम पर हमारे पास ऐसा कुछ नही है जिस पर गर्व किया जाय,मशहूर गायिका शारदा सिन्हा की आवाज़ मुझे तो बहुत अच्छी लगती है अगर उनका गाया "पनिया के जहाज़ से पल्टनिया बने अईहा हो" अगर खोजने पर मिला तो आपको ज़रूर सुनवाउंगा, पिछले पोस्ट में फ़िल्म "गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबों" के मधुर गीतों से आपको रूबरू कराया था आज इसी फ़ेहरिस्त में "लागी नहीं छूटे रामा" के गीत लेकर आया हूँ, मऊ (उत्तर प्रदेश) के श्री जगलाल जी ने "गंगा मईया तोहे पियरी ....के गानों को सुनकर अपनी खुशी ज़ाहिर की थी,फ़ोन पर उनसे बहुत देर तक भोजपुरी गीतों को लेकर हमारी बात हुई उनका कहना था इन गानों को किसी छोटे शहर के म्यूज़िकल स्टोर में तलाशना दुरूह कार्य है और लगे हाथ "लागी नाहीं छूटे रामा" और "बिदेसिया" के गीतों को भी सुनने की इच्छा ज़ाहिर की थी तो आज इसी फ़ेहरिस्त में "लागी नहीं छूटे रामा" के कुछ गीत लेकर आया हूँ, मज़ा लीजिये. वैसे इस फ़िल्म के बारे में कुछ और जानना चाहें तो आवाज़ पर भी पढ़ सकते हैं.
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Saturday, May 23, 2009
हे गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबो

आज भोजपुरी फिल्म का स्तर वाकई बहुत गिर गया है पर जब भोजपुरी फिल्म की शुरुआत हुई थी तब ऐसी स्थिति नहीं थी जो आज है, साठ के दशक में भोजपुरी में बनी पहली फिल्म "
"गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबो"में कम से कम सामाजिक सरोकार तो दिखता था पर ये ज़रुर है कि कुछ अच्छी भोजपूरी फ़िल्म बनने की जो शुरुआत हुई थी जैसे "लागी नाही छूटे रामा" या "बिदेसिया" जैसी फ़िल्मों के बाद फ़िल्मों का स्तर निम्न स्तर का होता चला गया,उन पुरानी फ़िल्मों के गीतों को सुनना आज भी एक सुखद एहसास दे जाता है, आज भोजपूरी फिल्म का जो हाल है किसी से छुपा नहीं है, मनोज तिवारी जब फ़िल्म के हीरो नहीं बने थे तब का उनका गाया लोकगीत "असिये से कईके बी ए लईका हमार कम्पटीशन देता" पसन्द आया था ,पर आज भी इन पुरानों गीतों में अपनी की सी महक है जो भुलाए नहीं भूलती शुरुआती दौर ही मील का पत्थर सबित होगा ये किसी ने सोचा नहीं था,
आज वो गीत मैं आपको सुनाने जा रहा हूँ," हे गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबो.... ये गीत लता जी और उषा मंगेशकर की आवाज़ में है मधुर गीत शैलेन्द्र के लिखे हैं और संगीत चित्रगुप्त का है।
फ़िल्म है "गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबो" ।
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Saturday, May 9, 2009
नये ब्लॉगिये का स्वागत करें......
भाई, मेरे मित्र अखिलेश धर हैं, बहुत दिनों से सोचते सोचते आखिरकार उन्होंने अपना ब्लॉग BADFAITH के नाम से शुरु किया है,अभी उन्होंने अपनी लिखी एक कविता पोस्ट की है। उम्मीद है कि अपने ब्लॉग के माध्यम से वो ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक अपने दार्शनिक विचार ले जा पायेंगे,भाई हम तो स्वागत करे ही रहे हैं आप भी उनका उत्साह ज़रूर बढ़ाएं।
नय्यरा नूर की गाई कुछ बेहतरीन रचनाएं......

गज़ल, कव्वाली,सूफ़ी रचनाएं सब बीते दिनों की बात हो गई हो जैसे,हम जैसे लोग आज भी गज़लों को सुनते हैं, गुनगुनाते हैं, मौका मिले तो गाते हैं,पर आज की पीढ़ी को तो ये सब स्लो स्लो सा लगता है,और हम हैं कि ग़ज़लों के मायने समझते हुए बड़े तल्लीन भाव से सुनते हैं,गज़ल गायकी के पंडित जगजीत सिंह, उस्ताद ग़ुलाम अली, गुरुवर मेहदी हसन,नुसरत साहब आदि आदि ने जो बीसियों साल पहले गाकर छोड़ दिया हमारी भी दुनियां उन्हीं के आस पास सिमट कर रह गई है,नये के नाम पर फ़्यूज़न ही है जिसे हम पूरी तरह स्वीकार भी नहीं कर पाये,प्रयोग तो होते रहेंगे और हम हमेशा की तरह कचरे से मोती तलाशते रहेंगे, आज कुछ यूं हुआ कि नय्यरा नूर को सुन रहा था," ऐ ज़ज़बाए दिल गर मैं चाहूँ,हर चीज़ मुक़ाबिल आ जाय" इतनी सधी और मीठी आवाज़ को बार बार सुनने को जी करता है,तो सोचा कुछ और भी रचनाएं नय्यरा जी की तलाशते है और इकट्ठा अलग अलग रचनाओं का आनन्द लिया जाय, और क़ामयाबी मिल ही गई, नय्यरा नूर की भीनी- भीनी आवाज़ आप जब सुन रहे हों तो क्या मजाल कि बीच में छोड़ कर उठ जाँय,,एक अजीब सी खनक लिये नय्यरा नूर की आवाज़ आपको भीतर तक हरियाली में डुबो देती है,तो मुलाहिज़ा फ़रमाएं, और नय्यरा नूर की छह रचनाओं का एक एक कर आनन्द लें।
नय्यरा नूर के बारे में और जानना चाहें तो यहाँ क्लिक कर सकते हैं
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Sunday, May 3, 2009
सचिन दा की आवाज़ आज भी हमारे इर्द-गिर्द गूंजती है.........

सचिन देव बर्मन बेहतरीन संगीतकार तो थे ही पर उससे भी बेहतर उन्होंने अपनी आवाज़ का खूबसूरती से प्रयोग किया था,उनके गाये सभी गीत सीधे आपके दिल से तादात्म्य स्थापित कर लेते थे, दादा की आवाज़ में गज़ब की कशिश थी जिसे बीस तीस पचास साल भी आप भुला नहीं सकते ये मैं दावे के साथ कह सकता हूं ,तो कुछ रचनाएँ इधर उधर से इकट्ठा की हैं मैंने,इनमें से कुछ गीतों कों तो कभी कदास रेडियो टीवी पर सुन तो लेते हैं पर यहाँ आप पूरे सुकून से सुन सकते है। सचिन देव बर्मन के बारे में कुछ ज़्यादा जानना चाहते है तो यहाँ क्लिक करके जान सकते है।
यहाँ सचिन दा की गाई रचनाएँ हैं जो गाइड,अराधना,बन्दिनी,सुजाता,तलाश और ज़िन्दगी-ज़िन्दगी फ़िल्म से है।
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Saturday, April 11, 2009
ठुमरी की सालगिरह....
पिछले दिनों यूनुस जी ने रेडियोवाणी की दूसरी साल गिरह मनाई थी,आज ११ अप्रैल को ठुमरी भी दो साल की हो गई, ठुमरी पर जो मेरी पहली पोस्ट थी उसे आज फिर से पोस्ट कर रहा हूँ।

बचपन की सुहानी यादो की खुमारी अभी भी टूटी नही है..
जवानी की सतरगी छाव बलिया,आज़मगढ़, इलाहाबाद, और दिल्ली मे..
फिलहाल १२ साल से मुम्बई मे..
निजीचैनल के साथ रोजी-रोटी का नाता..
असल में जो पोस्ट पहले पहल ठुमरी के लिये लिखी गई थी वो दो साल से ठुमरी के एडिट वाले भाग में लम्बे समय से पड़ी थी,शायद इस पोस्ट की क़िस्मत में आज के दिन ही छपना लिखा था, वो पोस्ट मूल रूप से आपके सामने है।

अरे, क्या नहीं दिखा, भाई?... और क्यों नहीं दिखा? हम घास छील रहे हैं? कि आप गलत महफिल में चले आये हैं, बात क्या है? जो भी है अच्छा नहीं है...
"ठुमरी" नाम अपने अज़दक का दिया हुआ है, पहली पोस्ट छपने के बाद भी ठुमरी की दिशा तय नहीं हो पायी थी, बहुत सुविधाजनक तरीके़ से पहली ही पोस्ट में एक कुत्ते की तस्वीर लगा कर किसी तरह पोस्ट पूरी की गई,क्यौकि कुछ भी लिखने की अपनी स्थिति दूर दूर तक थी ही नहीं, खैर अज़दक महोदय को लगता था कि मैं लिख सकता हूँ? और मेरी स्थिति ऐसी कि ब्लॉग की दुनियाँ से अनजान,अन्य चिट्ठे पर जा जा कर टिप्पणी करता रहता और कुछ दिनों बाद मैने देखा कि टिप्पणी करते करते कुछ कुछ लिखने लग गया हूँ,और धीरे धीरे ये तय भी होता गया कि ठुमरी को अपनी पसन्दीदा संगीत रचनाओं और साथ साथ अपने मन में उमड़ते गुबारों का मंच बनाना है ,कितना सफल हुआ ये तो पता नहीं, पर खुद को कुछ कुछ जानने में अपनी ठुमरी ने बहुत मदद की है , साथ साथ उन्हें भी मैं धन्यवाद देना चाहूंगा जिन्होंने हिन्दी में लिखने वाले आसान औजार बनाए,जिसकी वजह से मेरे जैसे लोग भी हिन्दी में टूटा फूटा ही सही, लिखने लगे ,उन्हें भी मेरा सलाम पहुंचे जो गाहे बगाहे ठुमरी पर आकर अपनी टिप्पणियो से मेरा मनोबल हमेशा बढ़ाते रहे हैं। और उनको भी मेरा सलाम जिन्होंने ठुमरी को अपने चिट्ठे पर जगह दी है।
और इसी बात पर मुन्नी बेग़म की गायी हुई कुछ फड़कती हुई ग़ज़लो को सुनते हैं,जिन्हें किसी भी महफ़िल में आप भी गायें तो महफ़िल लूट सकते हैं।

बचपन की सुहानी यादो की खुमारी अभी भी टूटी नही है..
जवानी की सतरगी छाव बलिया,आज़मगढ़, इलाहाबाद, और दिल्ली मे..
फिलहाल १२ साल से मुम्बई मे..
निजीचैनल के साथ रोजी-रोटी का नाता..
असल में जो पोस्ट पहले पहल ठुमरी के लिये लिखी गई थी वो दो साल से ठुमरी के एडिट वाले भाग में लम्बे समय से पड़ी थी,शायद इस पोस्ट की क़िस्मत में आज के दिन ही छपना लिखा था, वो पोस्ट मूल रूप से आपके सामने है।

अरे, क्या नहीं दिखा, भाई?... और क्यों नहीं दिखा? हम घास छील रहे हैं? कि आप गलत महफिल में चले आये हैं, बात क्या है? जो भी है अच्छा नहीं है...
"ठुमरी" नाम अपने अज़दक का दिया हुआ है, पहली पोस्ट छपने के बाद भी ठुमरी की दिशा तय नहीं हो पायी थी, बहुत सुविधाजनक तरीके़ से पहली ही पोस्ट में एक कुत्ते की तस्वीर लगा कर किसी तरह पोस्ट पूरी की गई,क्यौकि कुछ भी लिखने की अपनी स्थिति दूर दूर तक थी ही नहीं, खैर अज़दक महोदय को लगता था कि मैं लिख सकता हूँ? और मेरी स्थिति ऐसी कि ब्लॉग की दुनियाँ से अनजान,अन्य चिट्ठे पर जा जा कर टिप्पणी करता रहता और कुछ दिनों बाद मैने देखा कि टिप्पणी करते करते कुछ कुछ लिखने लग गया हूँ,और धीरे धीरे ये तय भी होता गया कि ठुमरी को अपनी पसन्दीदा संगीत रचनाओं और साथ साथ अपने मन में उमड़ते गुबारों का मंच बनाना है ,कितना सफल हुआ ये तो पता नहीं, पर खुद को कुछ कुछ जानने में अपनी ठुमरी ने बहुत मदद की है , साथ साथ उन्हें भी मैं धन्यवाद देना चाहूंगा जिन्होंने हिन्दी में लिखने वाले आसान औजार बनाए,जिसकी वजह से मेरे जैसे लोग भी हिन्दी में टूटा फूटा ही सही, लिखने लगे ,उन्हें भी मेरा सलाम पहुंचे जो गाहे बगाहे ठुमरी पर आकर अपनी टिप्पणियो से मेरा मनोबल हमेशा बढ़ाते रहे हैं। और उनको भी मेरा सलाम जिन्होंने ठुमरी को अपने चिट्ठे पर जगह दी है।
और इसी बात पर मुन्नी बेग़म की गायी हुई कुछ फड़कती हुई ग़ज़लो को सुनते हैं,जिन्हें किसी भी महफ़िल में आप भी गायें तो महफ़िल लूट सकते हैं।
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Saturday, April 4, 2009
गुलज़ार साहब वाकई कलम और आवाज़ के जादूगर हैं......

गुलज़ार साहब वाकई कलम और आवाज़ के जादूगर हैं,अपनी रचनाओ में जब शब्दों को रंग की तरह भरते चले जाते है तो वो रचना बहुत कुछ अपने अनुभव का कोलाज सा लगने लगती है, कभी कभी तो कुछ शब्दों का इस्तेमाल करके आपको चौंका देते है,अपनी गीतों में कुछ ऐसा संसार रचते हैं कि सुनने वाले को यहीं लगेगा कि भई ये तो गुलज़ार साहब ही लिख सकते हैं,बहुत से गाने तो आज भी मन के आंगन में गूजते ही रहते हैं, खामोशी,सीमा, मौसम आंधी और जब ओमकारा का वो गीत "नमक इश्क़ का या इक कौड़ी चाँद की...या "जब कजरार कजरारे" हो या उनकी लिखी अनगिनत रचनाएं आपके अंदर एक अलग ही महक पैदा करते हैं,वैसे जब पहली बार मैने मिर्ज़ा ग़ालिब सीरियल के मुखड़े में गुलज़ार साहब की रोबीली दमदार आवाज़ सुनी तो उनकी कलम के साथ -साथ उनकी आवाज़ के भी हम कायल हो गये थे।
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गुलज़ार साहब के बारे में सुना है कि वो चलताउ काम करना पसन्द नहीं करते,अपनी रचनाओं को लिखने में उनसे आप ये नहीं कह सकते कि दो दिन में आप लिख कर दे दीजिये......मेरे मित्र राजेश सिंह हैं जब उन्होंने अपनी पहली फ़िल्म "बेताबी" के लिये विशाल भारद्वाज को बतौर संगीतकार लिया था पर गाने को कम समय में लिखना था लिहाज़ा गुलज़ार साहब ने इतनी जल्दी लिखने से मना कर दिया था, वैसे गुलज़ार साहब का लिखा संगीतबद्ध करना भी आसान नहीं होता ... मेरे मित्र हैं मिश्राजी उन्होंने एक घटना याद दिलाई कि "दिल ढूढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन" ये गीत गुलज़र साहब ने फ़िल्म "आंधी" के लिये लिखा था पर आरडी दादा की धुन में न आरडीदादा को मज़ा आ रहा था ना गुलज़ार साहब को,लिहाज़ा उस गीत को उन्होंने आंधी में इस्तेमाल ही नहीं किया बाद में इस गीत को गुलज़ार साहब ने फ़िल्म "मौसम" में इस्तेमाल किया और तब संगीबद्ध किया मदन मोहन साहब,बताने की ज़रुरत नहीं कि ये गीत भी कितना मोहक था जो आज भी आपको ताज़ा करने का दम रखता है।
सुना तो ये भी है कि स्लमडॉग का जै हो जिसपर गुलज़ार साहब को ऑस्कर से नवाज़ा गया है दरअसल इस गीत को गुलज़ार साहब ने सुभाष घई कि फ़िल्म "युवराज" के लिये लिखा था पर उस फ़िल्म ये गाना इस्तेमाल हो नहीं पाया, और रहमान ने गुलज़ार से पूछकर ये गाना स्लमडॉग में चिपका क्या दिया चारों तरफ़ जै हो का शोर ही मच गया पर ये गाना मुझे पसन्द नहीं आया।
मेरे फ़िल्म इंडस्ट्री से जुड़े पुराने मित्र है आर एल मिश्रा और समीर चौधरी ( सलिल चौधरी के छोटे भाई) जिनसे पुरानी फ़िल्मों से जुड़ी बहुत सी घटनाएं सुनकर आनन्द आता है, जब कभी पुरानी बात छिड़ जाती है तो बस हम चुपचाप बैठकर उन्हें सुना करते है ऐसे ही एक दिन पता चला कि गुलज़ार साहब को जब पहला गाना लिखने को मिला था तब सचिन देव बर्मन दादा ने उनको बुलाया और समझाया था कि "चांदनी रात है, प्रेमिका को अपने प्रियतम से मिलना तो है पर ऐसी चांदनी है कि लोग उसे पहचान जाएंगे",गुलज़ार साहब ने लिखा "मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे श्याम रंग दई दे,छुप जाउंगी ही रात ही में ,मोहे पी का संग दई दे", ये गाना तो खूब लोकप्रिय हुआ था।
चलिये तो पहले हम गुलज़ार साहब के लिखे पहले गीत सुनते हैं।
Bandini (1962) = M... |
और लगे हाथ गुलज़ार साहब का लिखा "चड्डी पहन के फूल खिला है"जो जंगल बुक का शीर्षक गीत था सुनते हैं वैसे मासूम फ़िल्म का "लकड़ी की काठी" भी बच्चों में ही नहीं सभी की पसन्द बन गया ।
दरअसल मैं तो सिर्फ़ गुलज़ार साहब की आवाज़ में इन रचनाओं को सुनावाना चाह रहा था जिसे नीचे क्लिक करके आप सुन सकते हैं..पर लिखने बैठा तोऔर भी बहुत सी चीज़ें जुड़ती चली गई और कुछ इस तरह की पोस्ट बन गई, उम्मीद है आनन्द आया होगा। तो अब आप गुलज़ार साहब की आवाज़ में उनकी कुछ रचनाएं सुनिये,पढ़ने का अंदाज़ इतना प्रभावशाली है कि उनको सुनते हुए आप खुद ब खुद बहते चले जाते हैं।
आशा है आपको ये पोस्ट पसन्द आई होगी।
Saturday, March 7, 2009
रंगी सारी गुलाबी चुनरिया रे मोहे मारे नजरिया संवरिया रे ........
अब जाके लग रहा है कि होली आने को है,जब किसी छत से फेंका गया गुब्बारा जिसमें भरा था पानी.....मेरे सर को छू कर निकल गया तब मुझे लगा कि होली आ गई है....ऊपर देखा तो एक छत की मुंडेर पर इक बच्चा मुझे देखकर मुस्कुरा रहा था जैसे.... बच गये बाबू .....खैर मैं तो थोड़ा आंख दिखाकर वहां से चलता बना ......पर जब मैं गया कबाड़खाने पर तो वहां का रंग देख कर मन मदमस्त हो गया,लावन्याजी ने तो होली को ही खंगाल दिया है ......और इधर अपने मित्र मयंकजी नये नये ब्लॉगजगत में आये हैं जो आजकल प्याज बहुत खा रहे हैं, भी ज़माने को अपना रंग दिखाने मशगूल हैं, तब मुझे भी लगा कि ठुमरी के लिये मैने भी कुछ रंग चुनके रखे थे जिसे शायद इसी मौक़े का इंतज़ार था, सुनिये और मदहोश हो जाने के लिये तैयार हो जाईये और होली के इस रंग का भी मज़ा लीजिये,इसका भी नशा भांग से कम नहीं है.....तो पिछले हफ़्ते छाया गांगुली जी की मदमाती आवाज़ ने महौल को जैसे छलका ही दिया था....तो आज सुना रहा हूँ आपको एक दादरा दो अलग अलग आवाज़ों में रंगी सारी गुलाबी चुनरिया रे मोहे मारे नजरिया संवरिया रे........ शोभा गुर्टू और उस्ताद शुजात हुसैन खां की लरज़ती आवाज़ में सुनिये ................आप सभी को रंग बिरंगी होली की शुभकामनाएं.
Monday, March 2, 2009
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
एक और नये साथी ने आभासी दुनियाँ में कदम रखा है, ये हमारे बहुत ही पुराने मित्र हैं साथ साथ संगीत के साथ लिट्टी चोखा की बात जब आये तो चेहरा साथी का खिल खिल जाता है फिर अपने हाथों से बनाने का भी अच्छा शौक है इन्हें.... नाम है इनका मयंक राय और इन्होंने अपने ब्लॉग का नाम रखा है "क्या रंग है ज़माने का" तो मित्र का उत्साह बढ़ाएं.... मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि मयंक के पिटारे में जितना मसाला है उससे कभी आप निराश नहीं होंगे,मैने पिछली पोस्ट में लिखा था कि पता नहीं क्यौं पं भीम सेन जोशी और पं जसराजजी की आज तक कोई ऐसी रचना सुनने को नहीं मिली जो लम्बे समय तक याद रहे मिले सुर मेरा तुम्हारा जो गीत था जिसे दूरदर्शन पर हमने बहुत देखा था वो हमें बहुत पसन्द था तब भी और आज भी पसन्द है......और इसी पोस्ट के बाद मयंकजी ने इस बात को ध्यान में रखते हुए पं जसराज की यादगार रचना से अपने ब्लॉग की शुरूआत की है जो स्वागत योग्य है....मयंक जी हमारी शुभकामनाएं स्वीकार करें।और इसी बात पर मशहूर गायिका छाया गांगुली जी के मधुर स्वर में नज़ीर अकबराबादी की इस रचना का आनन्द लीजिये।
तब देख बहारें होली की
जब फागुन रंग झमकते हों
तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों
ख़ुम शीशे जाम छलकते हों
महबूब नशे में छकते हों
जब फागुन रंग झमकते हों
नाच रंगीली परियों का
कुछ भीगी तानें होली की
कुछ तबले खड़कें रंग भरे
कुछ घुँघरू ताल छनकते हों
जब फागुन रंग झमकते हों
मुँह लाल गुलाबी आँखें हों
और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग भरी पिचकारी को
अँगिया पर तक के मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों
तब देख बहारें होली की
तब देख बहारें होली की
Sunday, February 22, 2009
गुलाम अली साहब की आवाज़ में कुछ यादगार रचनाएं
पिछले दिनों मैं अपने बड़े भाई विनय के पास मऊ (उत्तर प्रदेश ) गया था,मऊ से भी बीस किलोमीटर दूर घोसी चीनी मिल है (जहां से कांग्रेस के कल्पनाथ राय सांसद हुआ करते थे) और दूर से ही चीनी मिल की महक ने अपनी दस्तक दे दी थी कि घोसी आने वाला है,वहां की खुशबू जब तक आप वहां रहेंगे आपकी नाक में अपनी जगह बना लेगी......वहां उस छोटे से शहर को कुहरे में लिपटे देखा तो आनन्द ही आ गया,थोड़ी ठंड भी थी .... वहां विनय भाई के खेतों में सरसों के पीले फूल लहलहा रहे थे आपको बुला रहे हों ....... भाई के खेतों के चावल ,सब्ज़ी और हरी मिर्च खाकर तो मैने तो मस्त ही होगया ,अपने खेतों में विनय ने राजमा भी लगा रखा था इनके पौधों को मैने पहली बार देखा था ....बस इतना किया कि मैंने राजमा के पौधों की तस्वीर ले ली ......खेतों में जो हरियाली थी उसे मैं अपने अन्दर महसूस कर रहा था, विनय भाई जैसे इन सब चीज़ों से बोर और हमारी मुम्बई की ज़िन्दगी से ज़्यादा प्रभावित लग रहे थे , उन्हें लग रहा था कि गुरू ज़्यादा हो गई तुम कुछ ज़्यादा ही तारीफ़ कर रहे हो.....खैर मैने कहा कि "पसन्द अपनी अपनी ख्याल अपना अपना" बहुत सी बातें हमारे बीच हुई उसका ज़िक्र बाद में, खास बात ये कि विनय भाई ने अपनी फ़र्माइश कर ही दी वो ठुमरी पर अपनी पसन्द की कुछ गज़लें सुनना चाहते थे वो भी मेंहदी हसन,गुलाम अली,नैय्यरा नूर,नुसरत साहब .... लिस्ट कुछ लम्बी ही थी... खैर विनय भाई की पसन्द की कुछ रचनाएं आज मैं पेश कर रहा हूँ ,तो उसकी पहली कड़ी में आज उस्ताद ग़ुलाम अली साहब की रचनाएं हैं ....जो विनय भाई के साथ साथ मुझे भी बेहद पसन्द हैं और आपको भी ज़रूर पसन्द आएंगी वैसे आपने इन रचनाओं को पहले भी सुन ही रखा होगा पर दुबारा सुनने पर भी आपको पसन्द आएगा....



और अब सुने ग़ुलाम अली साहब की गाई कुछ लोकप्रिय रचनाएं।



और अब सुने ग़ुलाम अली साहब की गाई कुछ लोकप्रिय रचनाएं।
Saturday, February 7, 2009
हमरी अटरिया पे आजा रे संवरिया देखा देखी तनिक होई जाय......
भाई हमें तो शुजात हुसैन खां साहब का ये अंदाज़ बहुत पसन्द है, सितार पर जिस अंदाज़ से उनकी उंगलियाँ चलती है उससे अलग उनकी डूबी हुई आवाज़ भी कम नहीं है।आज आप सुनिये पर पता नहीं क्यौ एक बात जो दिल में है आज कह लेना चाहता हूँ, इतना नाम पं जसराज और पं भीमसेन जोशी जी का लिया जाता है पर पता नहीं क्यौं उन्हें मैं ठुमरी पर चढ़ा क्यौं नही पाया ......एक बात ज़रूर है कि शायद गायन में बहुत ज़्यादा शास्त्रीयता मुझे रास नहीं आती|
.मुझे पं जसराज जी और पं भीम सेन जोशी जी की आवाज़ पसन्द भी है पर आज तक एक पूरी रचना कभी मुझे भाई नहीं.....पं भीमसेन जी की आवाज़ जब से सुनी है तभी से उस आवाज़ के हम कायल हैं पं जसराज जी और पं भीमसेन जोशी दोनों को मैने सामने से कई बार सुना है, सुनने के बाद भी यही लगता है इनको लाईव सुनना ही सुखद है .....इन्हें सामने से सुनिये तो आप ये ज़रूर महसूस करेंगे कि न जाने कहां कहां से इनके स्वर निकलते हैं जो आम गायक के बस की बात भी नहीं है इन सब के बावजूद ऐसी कोई पूरी रचना जिसे मैं सुनने के लिये यहां वहा भटकूं बेकरार रहूँ ऐसा इनको लेकर कभी नहीं हुआ, शायद संगीत में बहुत ज़्यादा शास्त्रीयता मुझे रास नहीं आती शायद यही वजह है इन दोनों की आवाज़ के तो सभी कायल है पर इन दोनों की कोई यादगार रचना कोई गिना नहीं पाता..... कोई मुझे बताएगा इन दोनों की कोई बेहतरीन रचना जिसे एक बार सुन लें जिसका सुरूर हमेशा बना रहे... ऐसी कौन सी वजह है कि इनकी रचनाएं बहुत से लोकप्रिय ब्लॉग पर भी भी सुनाई नहीं देती .......
ये तो रही मन की बात। अब जिस रचना को आप सुनने जा रहे हैं इसे मैने बेग़म अख़्तर और कई आवाज़ों में सुना है पर आज आप शुजात साहब की आवाज़ में सुनेंगे तो आनंद आयेगा......आप लीजिये आनन्द.. दुबारा कुछ बेहतर मिला तो जल्दी ही मुलाक़ात होगी।
Monday, January 19, 2009
ओ मेरे आदर्शवादी मन, ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन, अब तक क्या किया? जीवन क्या जिया!!
पिछले दिनों मै मुक्तिबोध की कविताएं पढ़ रहा था और संयोग देखिये वही कविता कुछ अलग अंदाज़ में कुछ मित्रों ने गाया है और आज मेरे पास मौजूद है,अपनी संवेदना भी अब कुछ ऐसे हो गई है, कि बहुत सी बातों का असर हम पर होता ही नहीं,अपने आस पास ही कुछ ऐसे स्थितियाँ बन जाती हैं कि लगने लगता है कि कुछ बोलुंगा तो खामख्वाह अपना समय ज़ाया होगा, और चुपचाप निकल लेने में ही अच्छाई नज़र आने लगी है,कैसे हो गये हैं हम? पहले तो ऐसे नहीं थे.पिछले दिनों आतंकी घटना हुई यहां मुम्बई में,पूरे दिन टेलीविज़न पर आंख गड़ाए सारे ऑपरेशन को देखता रहा,मन ही मन दुखी होता रहा,सरकार को कोसता रहा,गुप्तचर विभाग को कोसता रहा,और इसके विरोध में प्रोटेस्ट गेदरिंग होनी थी गेटवे ऑफ़ इंडिया पर, तो मन में संशय था मैं अगर वहां चला भी गया तो मेरे जाने से क्या हो जाएगा?
इस गाने की वजह से मुझे मजबूरन जाना पड़ गया,मैं उस भीड़ में शामिल हुआ,बेइंतिहां लोगों से पटा पड़ा था शहर उस दिन,इतने सारे लोग जमा थे वहां, जिसमें हर वर्ग के लोगों की शिरक़त भी थी, पर उनका कोई नेता नहीं था, अगर कोई बनने की कोशिश करता भी तो लोग उसे वहा से भगा भी देते, उस दिन भीड़ में उन लोगों के चेहरे देख कर लगा था कि कितने तो लोग हैं जो समाज में सकारात्मक परिवर्तन चाहते है, पर सब भीड़ ही बने रहना चाहते हैं,कोई नेता नहीं बनना चाहता,उस दिन के बाद अभी तक मैं यही सोच रहा हूँ आखिर वहां जाकर क्या मिला,उससे बेहतर तो ये गीत है जिसे आप सुनेंगे,और अपने ऊपर जो प्रश्न चिन्ह लगे हैं उसकी कम से कम निशानदेही तो कर पायेंगे, तो सुने.हांलाकि जिसे आप गीत के रुप में सुनने जा रहे है है वो दर असल है मुक्तिबोध की लम्बी कविता "अंधेरे में", यहां पर इस कविता की कुछ पंक्तियाँ ही गाई गई हैं।
ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!
उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में क़नात-से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!! मुक्तिबोध मुक्तिबोध पर चटका लगा कर, इस रचना को सुन सकते हैं ! !हिरावल, पटना की प्रस्तुति आवाज समता राय, डीपी सोनी, अंकुर राय, सुमन कुमार और संतोष झा की है।
इस गाने की वजह से मुझे मजबूरन जाना पड़ गया,मैं उस भीड़ में शामिल हुआ,बेइंतिहां लोगों से पटा पड़ा था शहर उस दिन,इतने सारे लोग जमा थे वहां, जिसमें हर वर्ग के लोगों की शिरक़त भी थी, पर उनका कोई नेता नहीं था, अगर कोई बनने की कोशिश करता भी तो लोग उसे वहा से भगा भी देते, उस दिन भीड़ में उन लोगों के चेहरे देख कर लगा था कि कितने तो लोग हैं जो समाज में सकारात्मक परिवर्तन चाहते है, पर सब भीड़ ही बने रहना चाहते हैं,कोई नेता नहीं बनना चाहता,उस दिन के बाद अभी तक मैं यही सोच रहा हूँ आखिर वहां जाकर क्या मिला,उससे बेहतर तो ये गीत है जिसे आप सुनेंगे,और अपने ऊपर जो प्रश्न चिन्ह लगे हैं उसकी कम से कम निशानदेही तो कर पायेंगे, तो सुने.हांलाकि जिसे आप गीत के रुप में सुनने जा रहे है है वो दर असल है मुक्तिबोध की लम्बी कविता "अंधेरे में", यहां पर इस कविता की कुछ पंक्तियाँ ही गाई गई हैं।
ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!
उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में क़नात-से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!! मुक्तिबोध मुक्तिबोध पर चटका लगा कर, इस रचना को सुन सकते हैं ! !हिरावल, पटना की प्रस्तुति आवाज समता राय, डीपी सोनी, अंकुर राय, सुमन कुमार और संतोष झा की है।
Thursday, January 1, 2009
स्वानन्द किरकिरे के इन गीतों से इस साल का आगाज़ करते हैं.....
भाई नया साल सबको मुबारक हो,बीते सालों की गलतियाँ फिर ना दोहराएं बस यही अपनी चाहत है, आज इस सुनहरे मौक़े दमदार आवाज़ के धनी स्वानन्द किरकिरे की आवाज़ से आगाज़ करते हैं,स्वानन्द किरकिरे की गायकी का अपना अलग अन्दाज़ है, कुल छ: गीत जो मुझे बेहतरीन लगे वो आपकी ख़िदमत में पेश हैं....
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