न शास्त्रीय टप्पा.. न बेमतलब का गोल-गप्पा.. थोड़ी सामाजिक बयार.. थोड़ी संगीत की बहार.. आईये दोस्तो, है रंगमंच तैयार..
Monday, December 31, 2007
जैसा मेरा गुज़रे, वैसा ही आपका भी गुज़रे॥ नया साल !!
ठुमरी पर आने जाने वाले हीत- मीत को ......... नव वर्ष की शुभकामनाएं ! ! !
दो पसन्दीदा गीत है मेरे, आज सुनियेगा दोनो किशोरदा ने गायें हैं, सुनने के बाद प्रतिक्रिया अवश्य दें
पहला गीत "आ चल के तुझे .........
और ये गीत सवेरे का सूरज तुम्हारे लिये है..
Sunday, December 30, 2007
एक ठुमरी........बाजुबंद खुल खुल जाय !!!
प्रमोद इरफ़ान,अनिल,अभय का शुक्रिया कि उनकी वजह से चिट्ठाजगत,नारद, ब्लॉगवाणी से जुड़ने का मौका मिला , सबके ब्लॉग पर जाकर उनके विचार पढ़ना और उनपर टिप्पणी करना और अपने भी टिप्पणी को छ्पे हुए देखना अद्भुत लगता था, , , मेरे लिये तो साल की उपलब्धि अगर कहा जाय तो तो ब्लॉग से जुड़ना ही है,बहुत सारे ब्लॉग जो मेरे ज़िन्दगी के हिस्सा बन गये हैं उन्हें सलाम !!
अज़दक का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं जिसने मुझे ठेल ठेल कर लिखने को प्रेरित किया और प्रतिक्रिया स्वरूप ठुमरी का जन्म हुआ !!! और बाते बाद में!
कुछ सुनाना चाहता हूं,प्यार से सुनिये
तो आज मेरी पसन्द की ठुमरी आपके सामने है सुनिये और आनन्द लीजिये !!!
आज जो आपको सुना रहा हूं बाजुबन्द खुल खुल जाय जिसे कभी बड़े गुलाम अली खान साहब ने सबसे पहले गाया था वैसे जितने भी शास्त्रीय गायक हैं वो इसे गा चुके है पर आज आपके सामने है आबिदा परवीन
और यही ठुमरी कुछ अलग ढंग से जगजीत सिंह ने भी गायी है उसे भी सुनें
Saturday, December 22, 2007
हीर सुनने का मन है?
यहां प्लेयर के बांयी ओर दो बार क्लिक करके सुना जा सकता है।
Saturday, December 15, 2007
एक संवाद !!!
अन्दर कमरे में एक विद्यार्थी किताब बांच रहा है !
एक और बालक है जो बैठा बैठा भावशून्य है ! दिन का समय है !
देखकर लग रहा है कि हॉस्टल से कब के निकल चुके हैं दोनों !
अब भविष्य की किसी बड़ी तैयारी में लगे है !
तभी दोनों की तंद्रा टूटती है !
सामने एक आदमी ज़ोर ज़ोर से चिल्ला कर बोलने लगा !
सुन लो तुम दोनों, दो साल से तुम लोग से किराया बढाने को कह रहा हूं !
और तुम इस बात को गम्भीरता से ले नही रहे !
अब ये समझ लो ये महीना तुम्हारे लिये आखिरी है!
बिना बढा किराया दिये तुमको मै रहने नही दूंगा !
थोड़ी देर तक कमरे में सन्नाटा फिर
एक आवाज़ उभरती है !
सुनो मेरे बाप से बोलो कि वो तुम्हारा ही नही
मेरा भी पैसा !
यहां किताब के लिये तो पैसे हैं नहीं
इनको भी चाहिये !
सुनो अब दुबारा मत आना पैसे मांगने
क्योकि अगर रिज़ल्ट सही नही आया
तो हम तुम्हारा रिज़्ल्ट तो निकाल ही !
मालिक मकान अभी आंखे दिखा ही रहा था
कि एक विद्यार्थी कमरे से निकला !
उसके एक हाथ में एक चाकू था
और दूसरे हाथ में कलम
ज़ोर से बोला !
दोनो में से तुम क्या चाहते हो बोलो
मलिक मकान तेज़ी देख सकपका गया
उसने कलम की तरफ़ इशारा किया
और कहा कलम !
और तेज़ी से बाहर की तरफ़ जाने लगा
जाते जाते उसने कहा
हम समझ गये तुम क्या चाहते हो !
और वहां से चलता बना
दोनो लड़के मुस्कुराये !
और एक ने कहा
जो शब्द नही कर पाये
उसे हथियार ने कर दिया
शब्द हथियार कब बनेंगे !!!
उस्ताद राशिद खान को सुनते हुए !!
आज भी आपको राशिद साहब की वो रचनाएं सुनने को मिलेंगी जिसे सुनने बाद भी कम से कम बोल तो आपकी जुबान पर होंगे ही.
शास्त्रीय संगीत के बारे में आम धारणा बन गई है कि बड़ा बोझिल होता है, झेल होता है, अरे इस पर तो एक चुट्कुला भी आम है कि एक जगह बढिया संगीत का जलसा हो रहा था एक शास्त्रीय गायक अपनी तान छेड़े हुआ था,
जिस सुर में वो गायक गा रहा था वो करूण रस ही था शायद ,तभी एक व्यक्ति ने देखा कि उसके बगल वाला व्यक्ति रो रहा है उसकी आंख से आंसू धीरे धिरे झर रहे हैं, उसे आश्चर्य हुआ क्योकि
वो अपने आपको शास्त्रीय संगीत का बड़ा मर्मग्य समझ कर ही रस ले रहा था उसे इस बात पर आश्चर्य हो रहा था जिन सुरों को वो समझता है पर उसके दिल में उस तरह तो नहीं उतर रही पर ये व्यक्ति गायक की तान पर आंसू बहा रहा है, ज़रूर कोई बड़ा पंडित है कोतुहल वश पूछ बैठा ' लगता है गायक के सुर ने आपके मर्म को छू लिया है आप शास्त्रीयता में वैसे ही इतने गहरे धंसे हुए च्यक्तित्व लगते है क्या मुझे भी समझाएंगे किस बात पर आपके आंसू निकल रहे है' तो सामने वाले व्यक्ति ने कहा कि 'वो बात नही है जहां मै बैठा हूं वहां पैर हिलाने की जगह नही है पैर की तकलीफ़ बढ गई है इसी से रोना आ रहा है', पर यहां मेरी मंशा रुलाने की कतई नही है
आज आप सुनिये राशिद खान की आवाज़ का जादू, आपको सुनाउं इसका मौका आज जाकर मिला है !!
पहला गीत फ़िल्म जब वी मेट से है !
ये दूसरी रचना नैना पिया से है
और ये तो आप सुन ही ले फिर बात करें
Monday, December 10, 2007
बंद हैं तो और भी खोजेंगे हम,रास्ते हैं कम नहीं तादाद में !!
ये गीत आपको नज़र कर रहा हूं,इसे सम्भवत: लिखा था देवेन्द्र कुमार आर्य ने और इस गीत की धुन भी अच्छी बन पड़ी थी, संगीत और कोरस के साथ गाने का मज़ा ही कुछ और था,इसे लम्बे समय तक दस्ता इलाहाबाद के साथी गाते रहे थे,हमारे लोकप्रिय गीतों मे ये गीत भी शामिल था, पता नहीं और कहां लोग इसे गाते हैं, गीत करीब बीस साल पुराना है, अब ही पढ़ कर बताएं कि ये गीत कितना प्रासांगिक है,विनीता और अंकुर की वजह से ये गीत मुझे मिल पाया जिसकी तलाश मुझे काफ़ी दिनो से थी !!
इधर इरफ़ान ने भी इलाहाबाद को कुछ अलग ढंग से याद किया है उसे भी देख सकते हैं !! तो पेश है ये लोकप्रिय गीत !!
बंद है तो और भी खोजेंगे हम
रास्ते हैं कम नही तादाद में-२
आग हो दिल में अगर मिल जायेगा
हस्तरेखाओं में खोया रास्ता
बंद है तो और भी खोजेंगे हम
रास्ते हैं कम नही तादाद में-२
मुठ्ठियों की शक्ल में उठने लगे
हाथ जो उठते थे कल फरीयाद में
पहले तो चिनगारियां दिखती थी अब
हर तरफ़ है आग का इक सिलसिला
बंद है तो और भी खोजेंगे हम
रास्ते हैं कम नही तादाद में-२
टूटती टकराहटों के बीच से
इक अकेली गूंज है ये ज़िन्दगी
ज़िन्दगी है आग फूलों में छिपी
ज़िन्दगी है सांस मिट्टी में दबी
बन्द हैं तो और भी खोजेंगे हम
रास्ते हैं कम नहीं तादाद में
बनके खुशबू फूल की महकेंगे वे
जो किरण बन मिल गये हैं खाक में
बंद है तो और भी खोजेंगे हम
रास्ते हैं कम नही तादाद में
Friday, November 30, 2007
पल भर की पहचान !!
बचपन में पेनफ़्रेन्डशिप का शौक था, हालांकि इसमें भी उतना नही धंसे जितना ब्लॉग में धंस चुके हैं,लेकिन उन पेनफ़्रेन्डशिप के ज़माने में किसी मगज़ीन में ऐसे पते नोट करने का शौक ज़रूर था जिनकी उम्र और शौक मुझसे मिलते जुलते थे, पर कभी ऐसे सम्बन्ध बन नही पाये उसकी कोई याद भी बची नहीं है, मै दूसरी बार किसी ब्लॉगर मीट का हिस्सा बना, कौतुहल तो था अनजान लोगों को जानने का, यहां अनजान शब्द थोड़ा ठीक नहीं लग रहा क्योकि हम तो उनके विचार उनके ब्लॉग को पढ़ कर जान ही लेते हैं,फिर भी जिनसे कभी नही मिला उनसे मुलाकात और उनके मुंह से अपना नाम सुनना या सबके प्रति उनकी आत्मीयता देखकर मन प्रसन्न तो होता ही है,
उन तमाम लोगों को जो ठुमरी पर आते हैं, अपनी टिप्पणियां देते है,शुभकामनाएं देते हैं ,सुझाव आदि देते हैं जिनसे मै कभी मिला भी नहीं और उन सबकी ऐसी अत्मीयता का मैं कायल हूं, उन सभी के लिये मन्ना डे का ये गीत समर्पित करना चाहता हूं, पर गीत सुनने से पहले मुझे फ़िराक साहब का ये शेर याद आ रहा है....
पाल ले एक रोग नादां
ज़िन्दगी के वास्ते
सिर्फ़ सेहत के सहारे
ज़िन्दगी कटती नहीं
उस पल को याद करते हुए ये मन्ना दा का गीत पेश है किसने लिखा और किसने दिया संगीत ये मैं जानता नहीं पर ये अवश्य जानता हूं कि ये दोनो गीत सभी चिट्ठाकारों को समर्पित है सुने और आनन्द लें ।
पहला गीत है पल भर की पहचान .......
और दूसरा गीत ये आवारा रातें दोनो गीत मन्ना दा ने गाये हैं।
Thursday, November 29, 2007
गज़ल और भजन के बीच गजन !!!
भजन गाने वालों में लता दीदी, मुकेश का सुन्दर कांड,हरिओम शरण ,ऐसे बहुत से नाम सुनाई दे रहे थे, पर जहांतक बात आती है अनूप जलोटा साहब की तो वो दौर ऐसा था जब अनूप जलोटा छाये हुए थे, मईया मोरी मैं नहीं माखन खायो, रंग दे चुनरिया,मैली चादर ओढ के कैसे द्वार तुम्हारे आऊं, ऐसी लागी अगन मीरा हो गई मगन,क्या मंदिर और क्या घर और क्या गली गली चौराहे चौराहे तक खूब बजा करते थे ,
जब उन्होने उन्होंने देखा कि लोग गज़ल भी सुन रहे है तो उन्होने कुछ समय गज़ल भी गाया , आज मैं अनूप जलोटा ने जो गज़ल गायीं थीं उनका ज़िक्र करना चाहता हूं, उन्होंने कुछ बढिया गज़लें भी गाई थीं जिनमें ;चांद अंगड़ाइयां ले रहा है, तुम्हारे शहर का मौसम, और भी गज़लें थीं पर अभी याद नही आ रहा पर इतना ज़रूर था कि अनूप जी ने जो भी गज़ल गाया उसकी स्टाइल भजन जैसी ही होती थी,उसमे उन्होंने एक शैली भी बना थी जो वो भजन गाते समय भी उस शैली का इस्तेमाल बखूबी किया करते थे.... वही एक लम्बी तान लेते कि जनता अगर ताली ना बजाए तो वो रूकते ही नहीं थे, अगर आप उन्हे सुनते तो आपको लगता कि आप गज़ल नहीं भजन सुन रहे हैं, तो उस समय लोग अनूप जलोटा की गज़लों को गजन कहा करते थे।
तो आज मै आपको अनूप जलोटा ने जो गजन गाये है उसे सुनवा रहा हूं, और साथ साथ भजन भी सुनिये जो आज भी मंदिरों में सुने जा सकते।
तो पहले सुनिये अनूपजी द्वारा गाया भजन ऐसी लागी अगन मीरा हो गई मगन
और अब आप सुने वो गजन जिसे अनूप जी खूब गाया करते थे । तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे...
और इस गजन को भी सुन ही लीजिये.. आंखों से पी..
Wednesday, November 28, 2007
दोस्तों को समर्पित एक ब्रेख्त का गीत !!
पर अच्छे गीत कुछ ही हैं जिन्हें मै लिखने की कोशिश कर रहा हूं, याददाश्त के सहारे लिख रहा हूं, अगर किसी तरह की भूल हो तो तो आप मदद कर सकते है, अभय के कहने पर इसे अपने ब्लॉग पर चढा रहा हूं ।
गर आपकी प्लेट खाली है तो सोचना होगा
कि खाना कैसे खाओगे
गर आपका तसला खाली है तो सोचना होगा
कि खाना कैसे खाओगे
ये आप पर है कि पलट दो सरकार को उल्टी
जब तक कि खाली प्लेट नहीं भरती
अपनी मदद आप करो
किसी का इंतज़ार ना करो
यदि काम नहीं है और आप हों गरीब
तो खाना कैसे होगा ये आप पर है
सरकार आपकी हो ये आप पर है
(पलट दो सर नीचे और टांगे ऊपर)
ये आप पर है कि पलट दो सरकार को उल्टी
तुम पर हंसते हैं कहते हैं तुम गरीब हो
वक्त मत गंवाओ अपने आपको बढ़ाओ
योजना को अमलीजामा पहनाने के लिये
गरीब गुरबां को अपने साथ लाओ
ध्यान रहे कि काम होता रहे- होता रहे- होता रहे
जल्दी ही समय आयेगा जब वो बोलेंगे
कमज़ोर के आस पास हंसी मंडरायेगी हंसी मंडरायेगी
गर आपकी प्लेट खाली है तो सोचना होगा कि खाना
कैसे खाओगे गर आपका तसला खाली है तो ................. !!!!!!!!!
Sunday, November 25, 2007
जैसे सूरज की गर्मी से...... सुनिये भजन शर्मा बंधुओं का गाया !!
तो सुनिये शर्मा बंधुओं द्वारा गाया ये भजन जैसे शैलेन्द्र सिंह बॉबी फ़िल्म का गाना गा कर अमर हो गये, कब्बन मिर्ज़ा भी ख़ुदा ख़ैर करे गा कर अमर हो गये और भी बहुत से नाम है, वैसे नाम वाम में क्या रखा है, सुनिये इस भजन को, इस भजन की तासीर ही कुछ ऐसी है कि बार बार सुनने का मन तो करेगा ही.. और भी याद रहेगा कि किसी के जन्मदिन पर क्या सुनने को मिला था.!!!!
Friday, November 16, 2007
भुपेन हज़ारिका और उनके जनोन्मुखी गीत !!!!
रुमागुहा की आवाज़ और उस गाने की धुन आज भी मै अपने अंदर बजता महसूस करता हूं, हां ये बात भी है कि कोलकाता से मेरे एक मित्र ने इस कैसेट को उपलब्ध कराया पर कुछ दिनो बाद कोई मित्र उस कैसेट को सुनने के लिये क्या ले गये आज तक वापस भी मिला , पर कसेट की वजह से पता चल पाया कि जिस गीत को इतना सुनने के लिये आतुर था उस गीत को भुपेन हज़ारिका का लिखा हुआ है और धीरे धीरे भूपेन दा को सुनने लगा , बाद में सुमन चट्टोपाध्याय का सुमनेर गान सुना और आनन्द आया ।
आज कुछ जीवनोन्मुखी गीतों के बारे में मै सोच रहा था कि आखिर हिन्दी में इस तरह के गीतों पर विशेष कुछ क्यों नहीं हो पाया जबकि बंगाल और आसाम आदि इलाकों में लोग पता नही कब से गा रहे हैं, वैसे अब आज के दौर में वाकई और कौन लोग गा रहे हैं ऐसे गीत, मुझे मालूम तो नही है, पर एक ज़माने में भुपेन हज़ारिका ने इस तरह के जन गीत खूब गाये है और लोगों ने उन्हें खूब सराहा भी पिछ्ले दिनो यूनुस जी ने भी भुपेन दा के गीत सुनाए थे ।
तो आज भुपेनदा की कुछ चुनी हुई रचनाएं आपके लिये ले कर आया हूं अगर बंगला ना आती हो तो किसी बंगाली जानने वाले से इसके अर्थ को समझने की कोशिश करियेगा.. वाकई इस तरह का प्रयोग हिन्दी में अगर हुआ हो तो आप सूचित ज़रूर करियेगा , तो सुनिये और सुनाइये भुपेन दा के वो रचनाएं जिनकी वजह से लोग भूपेन हज़ारिका को जानते हैं।
आज आपके सामने कुछ गीत पेश कर रहा हूं, जो भुपेन हज़ारिका, सुमन चट्टोपाध्याय, नचिकेता, अंजन दत्ता के गाये हुए हैं सभी गीत बंगला में हैं मै भी भाव तो समझ लेता हूं अज़दक की वजह से इन सारे गीतों को समझ पाया बंगला मुझे आती नहीं है. तो मुलाहिज़ा फ़रमाईये
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Tuesday, November 6, 2007
ये टेस्ट पोस्ट है...
पहले सुनिये इकबाल बानो को जिनकी आवाज़ का जादू तो देखिये लोग इनक्लाब ज़िन्दाबाद के नारे लगा रहे है मशहूर गज़ल हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे.. (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़)
01 Hum Dekhege.wma |
अभी सुनते हैं चटनी मुरलिया मुरलिया ( सैम बुधराम)
ये आवाज़ है नैय्यरा नूर की ऐ इश्क हमें बरबाद ना कर
ये भी सुने आनन्द तो आयेगा... कुमार गंधर्व॥॥
एक विडियो....
हिन्दी चटनी
Sunday, November 4, 2007
आपने अब तक लिया नहीं, करेबियन चटनी का स्वाद !!!!
तो अनामदासजी की ने कुछ इस प्रकार अपनी प्रतिक्रिया दी...गजबै है. आनंद में सराबोर कर दिया आपने, भौजइया बनावे हलवा सबसे अच्छा था लेकिन बाकी सब अच्छे हैं. इन गानों को सुनकर लगता है कि ऑर्गेनिक भारतीय संगीत, देसी संगीत सुनने के लिए अब कैरिबियन का सहारा लेना पड़ेगा, जहाँ भारतीय तरंग में बजते भारतीय साज हैं, और गायिकी में माटी की गंध है, सानू वाली बनावट नहीं है. मॉर्डन चटनी म्युज़िक में रॉक पॉप स्टाइल का संगीत सुनाई देता है, भारत में लोकसंगीत या तो बाज़ार के चक्कर के भोंडा हो चुका है या फिर उसमें भी लोकसंगीत के नाम पर ऑर्गेन और सिंथेसाइज़र, ड्रम,बॉन्गो बज रहे हैं. भारतीय इस अनमोल संगीत को बाँटने के लिए आपको बहुत पुन्न मिलेगा.
आखिर हम अभिभूत क्यों हैं ? क्या इसलिये कि जो यहां ज़िन्दा नहीं हैं उनमें यहां( देसीपन) वहां ज़िन्दा है और जो यहां ज़िन्दा हैं उनमें उनमें यहां मुर्दा हैं, एन्थ्रोपोलिजिस्ट के लिये शायद ये विषय ज़्यादा रुचिकर हो पर हमारे लिये तो यही सुखद है कि हम यहां भी है और वहां भी हैं, तो मुलाहिज़ा फ़रमाइये और आप भी गुनगुनाइये.... और सुनिये मौली रामचरन और रसिका डिन्डियाल को स्वाद लें चटनी का । ये जो पहला वा गीत है उसे गाया है मौली रामचरन ने और बोल हैं..अरे मन बैठे कर लो विचार......
और ये दूसरा वाला भी कम मस्त नही है इसे गया है रसिका डिन्डियाल ने जिन्हे वहां लोग रानी के नाम से भी पुकारते हैं
बोल हैं ... कोई नैना से नैना मिलाये चला जाय...
Saturday, November 3, 2007
कैरेबियन चटनी का स्वाद...भाग दो !!!
दुलहा ब्याहे आए.. मोर मन लागा दुलहिनी से ....
घर घर बाजते बधईया ........
Thursday, November 1, 2007
कैरेबियन चटनी संगीत का स्वाद ! ! !

देखिये ना लोकगीत पर मेरा पिछ्ला पोस्ट तो आपने पढा ही होगा और इस पर पिछ्ले दिनो इरफ़ानजी और यूनुसजी ने कुछ अच्छी रचना भी हमें सुनवाई थी,पर पुरानी चीज़ें जैसे हाथ से फ़िसल फ़िसल जा रही हैं उसे हम सम्हाल ही नही पा रहे और जब कुछ नई चीज़ दिखती है तो राय बनाने में ही काफ़ी समय निकल जाता है.. पर मैं आज के गीतों के बारे में ये सब मगजमारी कर रहा हूं, अब आज के दौर में कुछ भी नया सुनने को मिल जाय तो नये लोग उसे बड़ी शिद्दत से देखते हैं पर वहीं कुछ पुराने मिल जायेंगे और बात यहीं से शुरू होगी कि अच्छा तो है पर वो बात नही है जो पहले हमने सुना था और फ़िर पुराने दिन की बातें शुरू होंगी और ओस में भीगे दिनो की बात होगी और मामला रफ़ा दफ़ा ।
कैरेबियन चटनी सुन रहा था और मै यही सोच भी रहा था कि गुयाना, फ़िजी,और मौरिशस, हालेंड आदि देशो में डेढ़ दो सौ साल से रह रहे हमारे पुर्वजो ने कितना कुछ बदलते हुए देखा होगा, जो भी अपने देश अपनी मिट्टी लेकर गये होंगे उसे कितना सहेज संजॊ के रखा होगा पर बदलते समय में वहां भी गीत संगीत में कितना कुछ बदला होगा और कितनों ने ये बात तो वहां भी कही ही होगी कि अब पहले जैसी बात नही है, पर हम तो उनके आज के अंदाज़ से ही अभिभूत है नही विश्वास होता तो आप भी सुनिये और सोचिये समय के साथ कितना कुछ बदला होगा पर उन्हॊने आज भी वो रस अपने संगीत में बचा रखा है जो आपको बरबस सुनने और समझने को मजबूर कर दे तो कुछ जुगाड़ से ये चट्नी आप तक पहुंचा रहा हूं, मज़े से इसका स्वाद लीजिये स्वाद जो जायकेदार तो है ही अपना सा रस भी आपको भरपूर मिलेगा ये मेरी गारन्टी है ।
इसके इतिहास पर कुछ जानकारी बांट सके तो सोने में सुहागा, मेरे दिमाग में तो अभी भी अमिताभजी द्वारा गाया कलिप्सो ही दिमाग में है ओ रे सांवरिया ससुर घर जाना... पर आपको लेकर चलते है कैरेबियन द्वीप और वहां का मज़ा लीजिये.. आप जो सुनने जा रहे हैं उसे गाया है सैम बुडराम( Sam boodram) ने जो ट्रेडिशनल चटनी किंग माने जाते है. गाने मै लिख नही पा रहा इसके लिये माफ़ी चाहता हूं।
सोनार तेरी सोना पर मेरी विश्वास है....
छ्ट्ठी के दिन भौजैईया बनावे हलवा .......
कुछ और उम्दा चीज़ें है परोसने के लिये पर ..... जो आपने सुना कैसा लगा ज़रूर लिखियेगा !!!!
Friday, October 12, 2007
क्या लोकगीत अब लुप्त हो जायेंगे ?

पता नहीं क्या क्या करना चाहता हूँ, पर समस्या ये है की ऑफिस का भी काम इतना सर पर पड़ा रहता है की अपने काम से मुक्त होकर कुछ व्यक्तिगत चिन्तन जैसी बात तो सोचना भी मुश्किल सा हो गया है, आज बैठा था की अचानक अनिल सिह ( अपने एक हिन्दुस्तानी की डायरी वाले) याद आ गए उन्होंने अरसा पहले जब हम बलिया मे रहते थे,तब उन्होने एक लोकगीत "छाप के पेड़ छियुलिया, की पतबन गहबर हो" ये लोकगीत उन्होंने मेरे घर पर सुनाया था और इस गीत को सुनकर मेरी माँ के आँख में आँसू आ गए थे, काफ़ी देर तक तो माँ इस गीत को सुनकर कही, अपने में ही खो गईं थीं उनको देखकर लगा था की लोकगीतों में भी कितना दम है जब सम्प्रेषित करती है तो सीधे दिल से सम्वाद स्थापित करती है, हम भी जब किसी जलसे में समूह के साथ लोकगीत गाया करते थे, तो वो समां देखते ही बनता था ।

ये सोचकर भी की सैकड़ो साल से लोकगीतों की परम्परा, हमारे समाज में आज भी आख़िर जिंदा कैसे हैं? यही सोचकर आश्चर्य भी होता है , हाँ ये ज़रुर हुआ है की, शादी विवाह के मौकों पर गाँव जवार में जो लोकगीत गाए जाते थे, उनकी जगह फिल्मो की धुनों ने ले ली है, अब तो ये हाल है की भजन भी फिल्मी धुनों पर गाये जाते हैं, आज भी बहुत सी फ़िल्मो के गाने लोकधुन की वजह से ही हिट होते हैं, ये दिगर बात है कि लोकगीतों का स्थान हमारे यहां हमेशा महत्वपूर्ण होने के बावजूद, धीरे धीरे ख्त्म होता जा रहा है, अब नई पीढ़ी के लोग भी शादी विवाह के मौके पर फ़िल्मी धुनों का ही इस्तेमाल धड़ल्ले से कर रहे हैं, जिससे लोकगीतॊ को नुकसान ही पहुंचा है।
हमारे पुराने मित्र उदय ने पिछले दिनों एक फ़िल्म कस्तूरी बनाई थी, उस फ़िल्म मे एक ख़ास बात थी, कुछ ऐसे लोकगीत जो हम सुना करते थे बरसों पहले, उन लोकगीतों का इस्तेमाल उदय ने अपनी फ़िल्म कस्तूरी में किया, ये लोकगीत हमेशा लोकप्रिय रहे हैं, इस वक्त मैं आपके लिए दो गीत इसी फ़िल्म कस्तूरी चुनकर लाया हूँ, संगीत निर्देशन प्रियदर्शन का है, जिनकी ये पहली फ़िल्म थी । आप ज़रूर सुनें, पहला गीत है बाबा निमियां के पेड़ जिन काट्यु हो. बाबा निमिया चिरैय बसे......जिसे गाया है मराठी गायिका आरती अंकलीकर ने और दूसरा गीत है पछियुं अजोरिया ढुरुकि चली... ...आवाज़ है कविता कृष्णामूर्ती की,तो लीजिये पेश हैं यहां ये तो बता दूं कि ये दोनो गीत भी फ़िल्म से ही हैं, ज़रा आरती अंकलीकर की आवाज़ में इस लोकगीत को तो सुनिये.....
यहां आप कविता जी की आवाज़ में सुन सकते है... पश्चिम अंजोरिया ढुरुकि चली...
कभी हम खूबसूरत थे !! !!

दूसरी गज़ल कुछ यूं है .... ऐ इश्क हमें बरबाद ना कर ...
अभी तो मैं जवान हूँ !!!

जवानी की सतरंगी छाँव, जवानी का जोश, जवानी-दीवानी ,ढलती जवानी, और जवानी के बारे मे ना जाने क्या लिखा जाता है, अब मै अपनी जवानी के बारे मे पुराना किस्सा ज़रुर सुनाना चाहता हूं ...मै भी इसे अपने पुराने दिन के रूप में ही याद करना चाहुंगा, जवानी के दिन के रूप मे नही, क्योकि अभी तो मै जवान हूं, तो इलाहाबाद के दिनो की बात है, रंगकर्म अपने उफ़ान पर था, नाटककार ब्रेख्त का नाटक इनफ़ॉरमर हम कर रहे थे, तब मै बाइस साल का रहा होउंगा, नाटक का एक पात्र मुझे भी निभाना था, निर्देशक थे तिगमांशु धूलिया.. तो निर्देशक ने बताया कि जो चरित्र आप निभा रहे है, उसकी उम्र लगभग पैंतालिस की है..तो मैने उस चरित्र के बारे सोचना शुरु किया, पैतालिस का आदमी कैसा होना चाहिये कैसा दिखना चाहिये....थोड़ा गाम्भीर्य धारण करना चाहिये और साथ साथ चाल भी धीमी होनी चाहिये.. बोलना भी बड़ा तौलकर....उसकी कनपटी के दोनो तरफ़ बाल सफेद होने चाहिये, वो तेज़ी जो जवानी मे रहती है वो तो बिल्कुल नही होनी चाहिए, पर आज मैं पैतालिस का हूं और आज लग रहा है, जो मैंने पहले इस उम्र के बारे में कल्पना की थी, वो ग़लत थी, क्योकि अभी भी मैं जवान हूं...हां इतना ज़रुर है, अपनी जवानी को बरकरार रखने के लिये बस इतना हुआ है कि बालों का रंग अब काला नहीं रह गया, उसमे भी लोरियल का इस्तेमाल हो रहा है...... जवानी बरकरार है, जब एक आध महीने में बालों का रंग थोड़ा धूमिल होने लगता है तो अपने कुछ खास लोग बोलने लग जाते है कि लगता है, लोरियल आंटी बहुत दिनो से आई नही हैं बुला लीजिये भाई और मै लोरियल आंटी को बुलाता हूं और फिर से पहले जैसा जवान हो जाता हूं
एक बार मै अपने ऑफ़िस की सीढियो से नीचे उतर रहा था तो मेरे एक सीनियर रास्ते में मिल गये, मैने क्या देखा, कि उनकी मूंछ के बाल उनके सर के बाल से कुछ ज़्यादा ही काला नज़र आ रहा था मैने इसका राज पूछा, तो उन्होने बताया कि मेरी मूंछ की उम्र सर के बालो से सोलह साल कम है, लेकिन ये बताना कि ये कमाल किसी रंग का है, इससे कन्नी काट गये, अरे कुछ तो ऐसे भी है सर के बाल सफ़ाचट्ट कर रखे है तो सफ़ेदी का सवाल ही नही उठता.. तो कहना ये चाहता हूं कि अभी भी मैं जवान हूं और इसी बात पर मल्लिका पुखराज की एक रचना याद आ रही है हालांकि इस रचना को मेरे पिता भी बहुत पसन्द करते थे और आज मै भी कह रहा हूं कि मुझे बेहद पसन्द है. धुन तो साधारण ही है. पर आवाज़ ऐसी की बार बार सुनने का मन करे , रचना है हफ़ीज़ जलंधरी की .... गाया है, मल्लिका पुखराज ने, तो मुलाहिज़ा फ़रमाइये:
उस मोड़ का वो पीपल, करता है कितनी बातें ...... तलाश बैंड की कुछ रचनाएं !!!!

अब सुनिये इस गीत को और अपने कॉलेज के दिनो की कैन्टीन तो याद आ ही जाएगी ..... चाय ज़रा सी ........
और ये रचना हर सुबह है परेशां .......
सुनने के बाद अपने अनुभव ज़रूर बांटिये कुछ सुझाव भी हो तो दीजियेगा आपके सुझाव तलाश तक ज़रूर पहुंच
जाएंगे!!!!
Monday, October 1, 2007
कैसे समाज मे हम रह रहे हैं ?
यही नहीं, साहिर या उनकी तरह कुछ और लोग जो विज़नरी थे, पहले ही आने वाले समाज की शक्ल देख लेते थे तभी तो इस तरह का गीत उन्होंने उसी समय रच दिया, जैसे मुक्तिबोध ने अंधेरे मे सब कुछ देख लिया था, जो आज हम भी अपनी नंगी आंखो से देख सकते हैं.
कहते हैं जीवन बहुत ख़ूबसूरत है, एक बार ही तो ये जीवन मिलता है, छक के जी लेने में जाता क्या है भला ?पर लोग कहाँ चुप रहने वाले.... कहने वाले मिल ही जाएंगे की ख़ूब पैसा हो, तो जीवन भी खूबसूरती से जीं सकते हैं, पर पैसे वालों का क्या हाल है, परिवार में एक डॉक्टर भी जुड़ जाता है.. कुता लेकर सुबह सुबह टहलते देखे जाते हैं तो क्या लगता है वे खुश है, कुता पाल रखा है सुबह सुबह कुत्ता टहला रहे है बताइये कितना सुखद है ये सब इनके लिए पर आप जानते नही की सुबह सुबह कुत्ते को नही कुता इन्हें टहला रहा होता है, की सुबह सुबह डॉक्टर ने टहलने के लिए कहा और ये भी कहा है नही टहलोगे तो जल्दी टपक जाओगे.. कितना टेंशन है(भाई कुत्ते का उदाहरण यूं ही दे दिया है)
लोग तो ये भी कहते हैं की पैसा रिश्ते की मिठास तय करता है ओफो, ये क्या भाई,मै अनाप शनाप लिखने लगा दार्शनिक बातें मुझपर जंचती नही है, लगता है मैं ज़मीन से ऊपर उठकर ऊंची ऊंची छोड़ रहा हूँ पर कहना ये चाहता हूँ की, इसी समाज में कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो आने वाले समय को पहले ही भांप लेते हैं,इस पर मै तो चकित रहे बिना रह नही पाता..
अब बताइये कब लिखा था बुल्ले शाह ने बेशक मन्दिर मस्जिद तोड़ो बुल्ले शा ये कहता, पर प्यार भरा दिल कभी तोड़ो, इस दिल मे दिलवर रहता... आज देखिये आज के दौर मे ये गाना कितना फिट बैठता है,और बहुत से गीत होंगे पर मुझे ये गीत आज के दौर मे बड़ा सटीक लगता है मुकेशजी का गाया ये गीत, लगता है जैसे अभी अभी लिखा गया है. साहिर ने लिखा था आसमां पे है खु़दा और ज़मी पे हम ......
फ़िल्म है "वो सुबह कभी तो आएगी"... गायक हैं मुकेश
शायद मैं अपनी बात ठीक से नही रखा पाया, क्योकि इसके लिए लम्बे पोस्ट की दरकार है, जो मेरे लिए नितांत मुश्किल है, पर इतना जरूर है, कि जिस समाज मे हम रह रहे हैं कुछ ऐसा हो, की हमे अपने समाज पर गर्व हो, और हम सर उठा कर कहे, ऐसे ख़ूबसूरत समाज से जुड़कर हम गौरवान्वित महसूस करे, जो वाकई दुरूह है.इस खूबसूरत गीत से, मै आज की पोस्ट समाप्त करना चाहता हूं ... इस गीत को सुनिये, मज़ा भी है, और दर्द भी, इस फ़िल्म का नाम है नई उमर की नई फसल फ़िल्म तो कूड़ा थी, पर करते क्या, गाने के चक्कर में पूरी फ़िल्म देखनी पड़ी ... अब सोचिये ना, गाने के चलते हमने वैसे बहुत सी फ़िल्में देखी है जो बाद में पता चला गाने पर ही पूरी फ़िल्म टिकी है. पर ये गीत जो आप सुनने जा रहे है. आज भी सुनता हूं तो सिहर उठ्ता है मन, तो देखिये वीडियो
नीरज जी का है ये गीत ... कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे गाया है रफ़ीसाहब ने, .. तो सुनिये, आज बस इतना ही .... !!!!!
Saturday, September 29, 2007
सपनों की रानी का सच !!!
Sunday, September 23, 2007
बीते दिनो की बात और हलका हलका सुरुर नुसरत जी की कव्वाली !!!

आजकल क्रिकेट का सुरूर चल रहा है पर ये एक हवा की तरह आया है और उसी तरह चला जाएगा, पर ब्लॉग का सुरुर तो कमाल है, इन दिनो ब्लॉग का सुरूर है जो सर चढ़कर बोल रहा है, हर बार कुछ नया करने की चाहत से मन तो लबरेज़ रहता है ., क्या करें जब कुछ सोचता हूं ,तो लगता है कि मेरे लिखे अनुभव पर किसी को पड़ी ही क्या है, पर बार बार रोकने के बाद भी बीते कल की सुहानी यादें हमेशा घुमड़ कर पीछा करती रहती है,
जब इलाहाबाद या दिल्ली में था तो वहां महफ़िल अपने आप ही जम जाती थी ... साथ में संगीत के मुरीद लोग तो साथ थे ही.. वो चाहे अज़दकजी हो, चाहे हिन्दुस्तानी डायरी वाले अनिल सिह हो तो क्या निर्मल आनन्द वाले अभय तिवारी हों, या टूटी हुई बिखरी हुई वाले इरफ़ान हो या पहलू वाले चन्दू हो...या पंकज श्रीवास्तव हो साथियो के साथ अपनी मंडली दस्ताऔर जन संस्कृति मंच के साथ अनगिनत नाटको और गीतों के प्रदर्शन घूम घूम कर पूरे देश में करना, याद आता है.
दिल्ली की मंडली इससे अलग थी.. वहां भी हारमोनियम तबले से रात भर क्या धमा चौकड़ी मची रहती थी.. कितना मज़ा आता था... एक बार तो दिल्ली मे गज़ब हो गया, हमलोग तो वहां मंडी हाउस में एक्ट वन के लिये नाटक किया करते थे.हम नाटक करते करते कब गायन मंडली में तब्दील हो गये पता ही नही चला.. और बाद में कब हम कैसे सड़को पर उतर आये और देखते देखते हमने सिर्फ़ कोरस गीत तैयार किये और उसके देश भर में खूब सारे प्रदर्शन किये जो मैं तो कभी भूल ही नही सकता .
तब भाई पीयूष मिश्र, आशीष विद्यार्थी, मनोज बाजपेई, निर्मल पांडे, गजराज राव, भाई निखिल वर्मा, अनीश, अनुभव सिन्हा, गुड्डा, विजय बाबू ,अरविन्द बब्बल और हमारे निर्देशक एन के शर्मा,पत्रकार राजेश जोशी, पत्रकार अरूण पान्डे और भी बहुत से नाम थे .दिन भर तो हम साथ ही साथ रहते थे और रात में हारमोनियम के साथ जब बैठते थे तो समझ नही आता था कि इतनी जल्दी रात खत्म कैसे हो जाती थी पर अब ब्लॉग रूपी नई बयार ने हमें चारों तरफ़ से घेर लिया है अगर कहें तो बहुत अकेला भी कर दिया है कि ऑफ़िस करने बाद घर से निकलना भी तो नही चाहते..पर ये जो ब्लॉग की दुनिया जो है उसने भी बहुत सारे अजनबी मित्रों से मिलावाया है और धीरे धीरे ये अजनबियत भी गुम होती जा रही है.... हम मित्र बनने की ओर अग्रसर है...
इसी से आज आपके सामने नुसरत साहब कि कव्वाली पेश कर रहा हूं और जो भी ऊपर मैने लिखा वो चाहे आपको बुरा लगे या भला झेलिये और मुझे अपने नॉस्टेल्जिया में खो जाने दीजिये...तो आज की ये कव्वाली अपने दोस्तो को नज़र करता हूं तो गौर फ़रमाइयेगा... ये जो हल्का हल्का सुरूर है सुनिये और मज़ा लीजिये इस बेहतरीन कव्वाली का, तो पेश है !!!!
इस कव्वाली को सुनने के बाद अपनी प्रतिक्रिया अगर देना हो तो अवश्य दें !!!! इस कव्वाली के सुरूर को ब्लॉग से जोड़कर सुनियेगा तो शायद और मज़ा आये !!!!
आसमा से उतारा गया ज़िन्दगी देके मारा गया..... मुन्नी बेगम की कुछ गज़लें!!

आज आपके लिये एक पुरानी अवाज़ लेकर आया हूं. अब हमारे साथी कहने लगेंगे कि क्या भाई कब तक पुरानी यादों में खोये रहेंगे? पर क्या करें मन है कि मानता ही नही, जब से ब्लॉग से जुड़ा हूं तबसे हाल ये है कि हर बार किसी ना किसी के ब्लॉग पर कुछ देख कर कहना पड़ता है कि आपने तो पुरानी याद ताज़ा कर दी..
तो अब मैने भी सोचा कि जो भी हो अपने पास पुरानी यादों का पिटारा जब तक समाप्त नही हो जाता तब तक कुछ तो उन सारी चीज़ों को अपने साथ लेकर चलना ही है क्योकि वो पुरानी यादे तो हमेशा अपने साथ रहेंगी ही. तो आज एक ऐसी ही कुछ फ़ड़कती हुई गज़ल सुनावाई जाय अब आप कहेंगे ये फ़ड़कती हुई का क्या मतलब हुआ भाई?
तो आज मैं बात कर रहा हूं मुन्नी बेगम की. मुन्नी बेगम ने जो भी गाया उस समय की लोकप्रिय शायरी हमेशा उनके साथ रही. एकदम महफ़िली आवाज़,और उनकी गज़लें सुनकर वाकई बार बार कहने को मन करता है जानते हैं क्या? वाह वाह मेरे पास इतना समय नही है कि मैं उन गानो को लिखूं यूनुस भाई अभी बोल उठेंगे कि ये गज़ल अच्छी तो थी पर आप नीचे लिख देते तो आपका क्या जाता, तो अब बिना हील हुज्जत के सुनिये मुन्नी बेगम की ये मस्त गज़ल. इस गज़ल को लिखने वाले हैं इकबाल सफ़िपुरी. गज़ल है आसमं से उतारा गया...
और ये भी गज़ल सुनें और आनन्द लें और वाह वाह करें. गज़ल है लज़्ज़ते गम बढ़ा दीजिये....
मुन्नी बेगम की खासियत भी यही रही है कि हमेशा चलती गज़लों को उन्होने आवाज़ दी है तो इस गज़ल मे भी वो बात है सुनिये: और बताइये मज़ा आया की नहीं . गज़ल है कब मेरा नशेमन एहले चमन..
Thursday, September 20, 2007
एक फ़्युज़न ये भी, पुराना तो है पर तासीर गज़ब की है

कुछ दिनों पहले अजित भाई और भाई अनिल जी ने नया कुछ डालने को कहा था तो इस पर मैं इतना ही कहुंगा कि संगीत मे प्रयोग हमेशा मुझे अच्छे लगते रहे हैं, बहुत पहले आनन्द शंकर की रचनाएं सुनने में मज़ा आता था,पर धीरे धीरे वो मज़ा जाता रहा और अब उसकी जगह नॉस्टेल्जिया ने ले लिया है, अब सुनता हूं तो पुराना कुछ कुछ याद आता रहता है बस । पर कुछ संगीत रचनाएं ऐसी भी होती है जो धीरे धीरे पूरे वातावरण को और मोहक बना देते हैं तो अब ज़्यादा लिखना मुनासिब भी नही है, क्योकि सुनने के बाद ही कुछ बात की जाय तो अच्छा रहेगा, तो मन्द मन्द संगीत का आनन्द लें हां यहां ये बताना उचित होगा कि ये रचना पुरानी ज़रूर है पर एक समय गज़ब का जलवा था,पूरब और पश्चिंमी संगीत का मिलन का एक साथ मिलन तो देखिय्रे... मज़ा लीजिए.. सुनने के लिये दो तीर के बीच में दो चट्का लगाएं इस रचना में थोड़ी समस्या है.. खेद है आप ठीक से सुन नही पा रहे।
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Wednesday, September 19, 2007
टिप्पणियां जीवन रक्षक दवाएं हैं !!

Monday, September 10, 2007
इक बरहमन ने कहा है...ये साल अच्छा है...

लेकिन उनकी गाई कुछ गज़लें आज भी सुनते है तो तरावट सी पर जाती है, और आज ही आज तलाशते तलाशते कुछ चीज़ें मिली है, आप भी लुत्फ़ उठाइये, तो सबसे पहले राजनीति पर व्यंग करती इस रचना को सुनिये....इक बराहमन ने कहा है ...
फिर इस नज़्म को सुने ऐसी बहुत सी रचनाएं जगजीतजी ने गाईं हैं जो मस्त लगतीं हैं.....बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी...
और ये ज़रूर सुनिये ..ये दौलत भी ले लो.. इसे तो हम दोस्तो की महफ़िल में बार बार सुनते हैं और आह आह कहते हैं.
Friday, September 7, 2007
उस्ताद मेहदी हसन साहब को सुनते हुए!!!!

मेहदी हसन साहब का ज़िक्र आते ही ना जाने कितनी ग़ज़लों के टुकडे़ मेरे ज़ेहन में गुनगुनाते लगते हैं, ना जाने क्या याद आने लगते हैं .पर अब काफ़ी दिनों से मेंहदी साहब गा नही रहे.. कहते है लकवा मार गया उन्हें. पर यहां तो हम अपाहिज़ हुए जा रहे है उन्हें सुने बगैर.....अब जब उन्होने गाना छोड़ दिया है.. पर हमारी यादों में तो वो हमेशा बने रहेंगे... .अरे अब उनकी क्या बात करें, अब तो अच्छी गज़ल और अच्छी आवाज़ सुनने को मन तरसता ही रहता है क्योकि एक समय था जब पूरे बाज़ार पर इन्हीं लोगो का ज़ोर था पर अब धीरे धीरे समय के साथ साथ बहुत कुछ बदल गया है पर आज भी उन्हें सुनने वालों की कमी नही है, .
मेहदी साहब ने हर किस्म की ग़ज़लें गाईं हैं जिन्हें सुनकर हम हमेशा मुत्तासिर होते रहेंगे.. ...यहां मेंहदी साहब की चन्द ग़ज़लें पेश हैं ....तो पहली गज़ल मुलाहेज़ा फ़रमाएं.. बोल हैं: देख तो दिल की जां से उठता है..
मेंहदी साहब का अंदाज़ तो देखिये...
मोहब्बत करने वाले कम ना होंगे.. इसका तो जवाब नहीं
जीत के पल और राहुल द्रविड
Tuesday, September 4, 2007
क्या बता सकते है ये आवाज़ है किसकी ?
समीर भाई ने मेरी शंका को दूर कर दिया है...... ये संरचना मुम्बई के "अग्नि बैंड" की है..... समीर भाई आपको दिल से शुक्रिया.... तो आप अब सुनिये और देखिये......!!!!
Monday, September 3, 2007
बिक्रम घोष का तबला

तो सोचना क्या है? बिक्रम घोष के बारे में सिर्फ़ इतना कि मूलत: तबलानवाज़ हैं लेकिन रचना जो है आपका मन तो मोह ही लेंगी! तो यहां टिपियाइए, और आनंद लीजिए तबले के तक-धिड़ाक का...
Sunday, September 2, 2007
शुभा मुदगल का जादू...

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लगे हाथ शुभाजी की गायिकी के कुछ अन्य नमूनों का भी आनन्द लीजिए..
पहले राग देस में यह सुनें:
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फिर यह ज़रा चालू, धीम-धड़ाम वाली बंदिश सुनें:
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और यह एक कजरी:
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और आखिर में एक सावनी:
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Friday, August 31, 2007
जीतते जीतते हार गये !! !!

अरे कल का मैच तो मैंने पूरा देखा...और सुबह सुबह तैयार होकर ऑफ़िस भी आ गया.. कुछ भी कहे ये टीम इंडिया के लिये तो बुरा ही था.. पर एक अच्छा खेल देखने को मिला, मैच अभी शुरू भी नही हुआ था साथियों के एस.एम एस पे एस.एम.एस आते रहे..क्या था उन एस एम एस में चलिये इस एस एम एस की कुछ कड़िया जोड़ने की कोशिश करता हूं..हम भारतीय जीत के प्रति कितने लालाइत रहते हैं ये आपको इन एस एम एस संदेश से पता लगेगा....
* भाई टॉस जीत गये हैं अब ये मैच भी अपने हाथ है.
* जीतना है.
* जीत अपनी सुनिश्चित है
* देखा सचिन को ,५० लगाते ही ठंडे
* अरे ये क्या कार्तिक को भेज दिया?
*लग रहा है लो स्कोरिंग मैच है.
* अरे सब आउट होते जा रहे हैं सबकी चर्बी बढ गई है.
* अरे ये साले खिलाड़ी नही है स्टार हैं.
* बड़ा कम स्कोर बना है अब बॉलर ही कुछ कर सकता है..
* इंगलैण्ड ये मैच बचा नही पायेगा अपना ज़हीर फ़ॉर्म में है.
* स्पिनर तो अभी बाकी हैं ये मैच अपना है..
*अरे ये आगरकर को भी विकेट मिल गया
* जब गला फ़ंसता है तभी विकेट लेता है...
* ए भाई इस पवरवा का बाल बहुत बढ गया है इसे कटवाओ भाई
*अब तो मैच हाथ में है आज सोईयेगा नहीं
* गुरु नींद आ रही है
*सोना मत कुछ भी करो पर जगते रहो
* देखना कुछ तो चमत्कार ज़रुर होगा.
* अब बॉलिंग में मज़ा नही आ रहा
* ये रवि बोपारा अगर आउट हो गया तो समझिये मैच हमारी झोली में है..
*ये साला स्टुअर्ट ब्रॉड भी साला जमा हुआ है अब लगता है अब जीत मुश्किल है
* दोनों दिमाग से खेल रहे हैं.
* अरे इनको कोई आउट नही कर पा रहा अब हम सोने जा रहे हैं
* भाई एक बात तय करके मैं तो सो जाउंगा..कि अब से ये क्रिकेट सिरकेट देखना बन्द. फ़ुट्बॉल इससे अच्छा है कम से कम ९० मिनट में खत्म तो हो जाता है.
* भाई आपको भारत की हार मुबारक, मैं तो सोने जा रहा हूं.. वैसे भी मैं हार देख नहीं सकता..
*ये साला द्रविड़ बेहूदा कप्तान है...
* ल्ल्ल्ल्ल्ल गई भैंस पानी मॆं
* चलो सो जाते हैं साले रात खराब कर दिये.
भाई क्रिकेट एक ऐसा खेल है जो वाकई खेल भावना से देखो तो मज़ा है, नही तो सज़ा , तो भाई खेल देखो और खेल की धार देखो... .....ये ज़रूर है कि यहां खेल से बड़ा खिलाड़ी होता जा रहा है जो चिन्ता की बात है.. हां अगर कोई और खेल हो दिल लगाने का तो अवश्य बताएं.. अंगरेज़ों का खेल कह कर भागिये नहीं.....!!!!!!
Monday, August 27, 2007
झमाझम बरसात में !!

दो पैसा के हल्दी!
पानी बरसे जल्दी!!
पर आज मैं अपने मित्र अजय कुमार की कविता आपके लिये लेकर आया हूं अजय अपने को कवि भी मानते नहीं हैं पर अलग अलग मौकों पर वो कुछ ना कुछ लिख ही देते हैं और हम सुनकर वाह वाह भी करते हैं. ये कविता आज ही ताज़ा ताज़ा लिखी गई है. मेरे पास उनकी कोई फोटो भी नही है जो इस मौके पर लगा देता, लीजिये पेश है अजय कुमार की कविता ......
घिर आई घनघोर घटायें !
बैठा हूं तन्हाई में!!
कैसे तेरी याद न आये!
सावन की पुरवाई में!!
तेरी पायल छनक रही है!
या सावन की रिमझिम है!!
सौ प्यालों का नशा छुपा है!
तेरी इक अंगड़ाई में !!
Thursday, August 23, 2007
काहे की मुक्ति...

अरे, आप इस दुनिया को समझना चाहते हैं तो पता नहीं कितने जन्म लें फिर भी समझ पाना मुश्किल ही है.. अगर आप समझ भी गये तो हमारा क्या भला होने वाला है? अपने उमर के आखिरी पल में आपको सत मिल भी गया तो किसी को क्या लेना देना......अब मेरे लिये भी इस विषय पर ज्ञान देना भारी पड़ रहा है.... असल में मेरा ये विषय भी तो नहीं है.... असल में मुझे पता भी नही कि किस क्षेत्र में मैं अच्छा दखल रखता हूं.. जीवन से मुझे क्या चाहिये बस ये.... कि मेरे पास सारी ऐशोआराम की चीज़ें हों..सिर पर कोई ज़िम्मेदारी न हो..बात करने के लिये ढेर सारे दोस्त हों..तो शायद ये दुनियां मुझे भी सुन्दर लगने लगे...मैं यहां से जाना ही ना चाहूं और रही बात मुक्ति की तो उसकी इच्छा भी न रहे... अरे, कुछ बात बन भी रही है कि मैं ऐसे ही लिखे जा रहा हूं?....
Monday, August 20, 2007
तो मुन्ना भाई को मिल गई जमानत

Friday, August 10, 2007
आखिर आज़ादी का मतलब क्या है?

आखिर आज़ादी का मतलब क्या है?तिरंगा ऐसा क्यों हो गया है जो सिर्फ़ क्रिकेट के मैदान में ही लहाराया जाता है, और हार हो तो मैदान से गायब, ऐसा क्यों? शहर के चौराहे पर गरीब बच्चा हाथ में छोटे-बड़े झन्डे बेच कर उस दिन की कमाई से किसी तरह अपना पेट पाल ले, ऐसा क्यों है? आज आज़ाद देश में ऐसा भी हो रहा है कि एक विकलांग अपनी छोटी सी मांग के पूरा नही होने पर आत्महत्या करने पर मजबूर है। ये कौन लोग हैं जो विकलागों को बेबस और मजबूर बना रहे हैं, ऐसा क्यों है? क्या हम इस सबके आदी हो गये हैं? सब चलता है इस वाक्य को हमने अपना ब्रम्ह: वाक्य बन जाने दिया है? और इसी ब्रह्म: वाक्य की छतरी के नीचे प्रेम से देशभक्ति का गीत भी गाते रहते हैं, और हमें शर्म भी नहीं लगती? आइए, फिर से गाने या रेंकने लगें: जहां डाल डाल सोने की चिडिया करती थी बसेरा ये भारत देश है मेरा ये भारत देश है मेरा....
आज की पीढ़ी के अभिनेताओं को हिन्दी बारहखड़ी को समझना और याद रखना बहुत जरुरी है.|
पिछले दिनों नई उम्र के बच्चों के साथ Ambrosia theatre group की ऐक्टिंग की पाठशाला में ये समझ में आया कि आज की पीढ़ी के साथ भाषाई तौर प...

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रंगरेज़ .....जी हां ....... अंतोन चेखव की कहानी पर आधारित नाटक है ... आज से तीस साल पहले पटना इप्टा के साथ काम करते हुये चेखव की कहा...
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पिछले दिनों मै मुक्तिबोध की कविताएं पढ़ रहा था और संयोग देखिये वही कविता कुछ अलग अंदाज़ में कुछ मित्रों ने गाया है और आज मेरे पास मौजूद है,अप...
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पिछले दिनों नई उम्र के बच्चों के साथ Ambrosia theatre group की ऐक्टिंग की पाठशाला में ये समझ में आया कि आज की पीढ़ी के साथ भाषाई तौर प...